क्या जम्मू-कश्मीर की जनता के दिलों पर लगभग छह दशकों तक राज करने वाले अब्दुल्लाह परिवार का पतन शुरू हो गया है? यह सवाल इन दिनों यहां के सियासी गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है, क्योंकि उमर अब्दुल्लाह ने गांदरबल क्षेत्र से स्वयं चुनाव न ल़डने का निर्णय करके इन संभावनाओं को बल प्रदान किया है कि पार्टी तेज़ी के साथ कश्मीर में अपनी साख खोती जा रही है.
शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह यानि उमर अब्दुल्लाह के दादा जम्मू कश्मीर के इतिहास के संभवत: सबसे प्रभावशाली नेता थे. वह 1930 के दशक में महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ विद्रोह करने के कारण वह एक लोकप्रिय नायक बन गये थे. उन्हें ‘शेर-ए-कश्मीर’ के नाम से पुकारा जाने लगा और 1947 में भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के विलय के बाद शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बन गये, लेकिन कुछ वर्षों बाद ही उन्हें केन्द्र सरकार के निर्देशों पर गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया. कुल मिलाकर 22 वर्षीय कारावास और संघर्ष के बाद जब 1975 में शेख़ अब्दुल्लाह ने फिर मुख्यधारा की राजनीति में आने का निर्णय किया तो इस ‘शेर-ए-कश्मीर’ ने गांदरबल चुनाव क्षेत्र को अपनी ‘मांद’ बना लिया. गांदरबल सीट अब्दुल्लाह परिवार की पारंपरिक सीट मानी जाती थी और इसी सीट पर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह ने भी चुनाव लड़े थे और उनके बाद उनके बेटे फ़ारूख़ अब्दुल्लाह ने भी और फिर फारूख़ के बेटे उमर अब्दुल्लाह ने भी इसे अपना चुनावी क्षेत्र बना लिया था. इस सीट के दम पर राज्य की सत्ता दशकों तक अब्दुल्लाह परिवार के हाथों में रही.
जनवरी 2009 में जब उमर अब्दुल्लाह ने मुख्यमंत्री की हैसियत से राज्य की बागडोर संभाली तो सबको विश्वास था कि वह एक बेहतर शासक साबित होेंगे. वह उम्र के लिहाज़ से उस समय तक भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्री थे. वह उच्च शिक्षा प्राप्त भी थे. उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा था. वह अपने साधारण स्वभाव के लिए मशहूर थे.
शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह 1982 में अपनी मौत तक गांदरबल चुनाव क्षेत्र का ही प्रतिनिधित्व करते रहे थे. उनके बाद जब नेशनल कांफ्रेस का नेतृत्व फारूख़ अब्दुल्लाह के हाथों में आ गया तो उन्होंने भी 1983, 1987 और 1996 में इसी सीट से चुनाव लड़ा और जीते, यहां तक कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह पिछले विधानसभा चुनावों यानि 2008 के चुनाव में इसी सीट से जीतकर आये, लेकिन अब उमर अब्दुल्लाह के इस निर्णय से सभी लोग हैरान रह गये हैं, बल्कि नेशनल कांफ्रेंस के कई वरिष्ठ नेता उमर के इस निर्णय पर नाराज़ भी हो गये हैं. उमर अब्दुल्लाह की ओर से गांदरबल सीट छोड़ने की घोषणा के एक दिन बाद गांदरबल से संबंध रखने वाले नेशनल कांफ्रेंस के एक वरिष्ठ नेता और एमएलसी शेख़ गुलाम रसूल पार्टी से इस्तीफ़ा देकर मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी में शामिल हो गये. शेख़ गुलाम रसूल ने त्यागपत्र में यह बात स्पष्ट की कि गांदरबल में लोग नेशनल कांफ्रेंस से नाराज़ हैं और यहां पार्टी की साख पर प्रभाव पड़ेगा.
आम राय यह है कि चूंकि गांदरबल में अब्दुल्लाह परिवार और उनकी नेशनल कांफ्रेंस की साख ख़त्म हो चुकी है, इसीलिए उमर अब्दुल्लाह ने इस बार गांदरबल को छोड़कर एक साथ सोनाबार और बेरूह की दो सीटों से चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है. एक साथ दो चुनाव क्षेत्रों से चुनाव ल़डने का निर्णय भी सियासी पंडितों की नज़र में उमर अब्दुल्लाह का अपनी जीत पर विश्वास न होने की ओर इशारा करता है.
गांदरबल में नेशनल कांफ्रेंस के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने चौथी दुनिया को बताया कि उमर अब्दुल्लाह ने अच्छा ही किया कि गांदरबल सीट छोड़ दी, क्योंकि उन्हें इस बार यहां हार का सामना करना पड़ता. लोगों में उनके प्रति सख़्त आक्रोश है. जनता के गुस्से का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि वर्ष 2008 में चुनाव जीतने के बाद उमर अब्दुल्लाह मुश्किल से ही तीन-चार बार यहां आये. लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें थीं लेकिन वह इन उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, इसलिए इस बार यहां उनकी कामयाबी की कोई संभावना नहीं थी.
गांदरबल के एक पत्रकार साबिर अयूब ने बताया कि नेशनल कांफ्रेंस ने अश्फ़ाक़ जब्बार को यह सीट देकर एक सही निर्णय किया है, क्योंकि अश्फ़ाक़ जब्बार का इस क्षेत्र में ख़ासा प्रभाव है और यहां उमर अब्दुल्लाह के मुक़ाबले में अश्फाक़ के जीतने की अधिक संभावनाएं हैं. दरअसल अश्फ़ाक जब्बार, शेख़ अब्दुल्लाह जब्बार के बेटे हैं, जो महाराजा के ख़िलाफ़ जद्दोजहद और उसके बाद स्वर्गीय शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह का दाहिना हाथ रहे थे. शेख़ अब्दुल जब्बार को 1990 में उग्रवादियों ने गोली मारकर क़त्ल कर दिया था.
नेशनल कांफ्रेंस के प्रवक्ता जुनैद मत्तु ने चौथी दुनिया को बताया कि उमर अब्दुल्लाह ने दरअसल पिछले साल अश्फ़ाक़ जब्बार के साथ वादा किया था कि अगर वह कांग्रेस पार्टी छोड़कर नेशनल कांफ्रेंस में शामिल हो जाते हैं तो उन्हें गांदरबल चुनाव क्षेत्र से मेंडेंट दिया जायेगा. उमर अब्दुल्लाह ने अपना वही वादा निभाया है. हालांकि राजनीतिक विशेषज्ञ इस तर्क को मानने से इंकार कर रहे हैं. उनका कहना है कि दरअसल जम्मू में भाजपा और घाटी में पीडीपी की लहर ने नेशनल कांफ्रेंस को हताश कर दिया है और नेशनल कांफ्रेंस पर चुनाव से पहले ही हार का डर हावी हो गया है.
राजनीतिक विश्लेषक मक़बूल साहिल का मानना है कि तीन पुश्तों तक कश्मीर पर शासन करने के बाद अब अब्दुल्लाह परिवार का पतन शुरू हो रहा है. उन्होंने ने बताया कि अब्दुल्लाह परिवार और उनकी नेशनल कांफ्रेंस की साख ख़त्म हो गई है. गांदरबल सीट उमर अब्दुल्लाह ने छोड़ दी, क्योंकि उन्हें पता था कि यहां उन्हें हार का मुंह देखना पड़ सकता है. अब उमर अब्दुल्लाह का एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ना भी यह साबित करता है कि उन्हें जीत की कोई उम्मीद नहीं है. इसके अलावा गत संसदीय चुनावों में फ़ारूक़ अब्दुल्लाह की शर्मनाक हार ने भी अब्दुल्लाह परिवार और नेशनल कांफ्रेंस को हिलाकर रख दिया है. उत्थान के बाद पतन निश्चित होता है. दुनिया के हर कोने में परिवारों की सत्ता अंतत: समाप्त हुई ही है. ऐसा ही कुछ अब्दुल्लाह परिवार के साथ हो रहा है.
कहते हैं कि मुसीबत भी अकेले नहीं आती. अब्दुल्लाह परिवार के लिए एक और परशानी फ़ारूक़ अब्दुल्लाह और उनके चाचा व पार्टी के महासचिव शेख़ नज़ीर की स्वास्थ्य समस्या भी है. फ़ारूक़ अब्दुल्लाह इन दिनों लंदन में उपचार करा रहे हैं, जहां आने वाले चंद दिनों में उनके गुर्दे को बदला जाना है. शेख़ नज़ीर भी इस हद तक बीमार हैं कि उन्होंने अपनी राजनीतिक गतिविधियां रद्द कर दी हैं. ऐसी स्थिति में नेशनल कांफ्रेंस को चुनाव में विभिन्न परेशानियों का सामना करना पड़ेगा. वैसे भी पिछले 6 वर्षों की नेशनल कांफ्रेंस सरकार में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनका ख़ामियाज़ा नेशनल कांफ्रेंस को निश्चित तौर पर उठाना पड़ेगा.
जनवरी 2009 में जब उमर अब्दुल्लाह ने मुख्यमंत्री की हैसियत से राज्य की बागडोर संभाली तो सबको विश्वास था कि वह एक बेहतर शासक साबित होेंगे. वह उम्र के लिहाज़ से उस समय तक भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्री थे. वह उच्च शिक्षा प्राप्त भी थे. उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा था. वह अपने साधारण स्वभाव के लिए मशहूर थे. इन सारी बातों के कारण उमर अब्दुल्लाह से लोगों की बहुत सी उम्मीदें जुड़ गईं लेकिन उनके सत्ता संभालने के कुछ महीने बाद ही दक्षिण कश्मीर के शोपियान में कथित रूप से दो महिलाओं की बलात्कार के बाद हत्या की घटना हुई. कश्मीर में एक आम राय है कि उमर अब्दुल्लाह सरकार ने इस मामले को दबाने और दोषियों कोे सज़ा से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसके बाद साल 2010 में कश्मीर में क़त्ले-आम का बाज़ार गर्म कर दिया गया. पुलिस के द्वारा कथित रूप से 100 से अधिक लोग, जिनमें अधिकतर बच्चे शामिल थे, मार दिये गये. पिछले 6 वर्षों के दौरान भ्रष्टाचार के विभिन्न गंभीर मामले सामने आये लेकिन सरकार ने किसी भी मामले में दोषियों को पकड़ने का प्रयास नहीं किया. इस प्रकार की कई ऐसी घटनाएं हुई, जिस कारण उमर अब्दुल्लाह सरकार की छवि बुरी तरह प्रभावित हुई. फिलहाल स्थिति ऐसी है कि उमर अब्दुल्लाह को गांदरबल जैसी अपनी पारंपरिक सीट से भी जीत की उम्मीद नहीं रही है.