बात शायद 1985 की है । खान अब्दुल गफ्फार खान कांग्रेस के शताब्दी समारोह में शिरकत करने के लिए दिल्ली आये थे। उनका तब बहुत स्वागत सत्कार हुआ था ।स्वाधीनता संग्राम के दौर के उनके साथी अब नहीं के बराबर रह गये थे लेकिन विरासतों की तादाद अच्छी खासी थी ।अपनी ऊंची कद काठी और गोरे रंग के कारण आज भी वह आकर्षण का केंद्र थे ।मैं मिला तो उनसे पहले भीएक बार था मोहम्मद यूनुस के निवास पर लेकिन वह एक औपचारिक भेंट थी । उनसे दूर वाली मेरी मुलाकात तो मार्च-अप्रैल, 1947 में भी रावलपिंडी में हो चुकी थी जब वह महात्मा गांधी के साथ लालकुर्ती की एक सार्वजनिक सभा में आये थे । यह सभा हमारे घर तोपखाना बाज़ार से ज़्यादा दूर नहीं थी जहां मैं अपने चाचा श्री परमानंद जी के साथ गांधी जी को देखने और सुनने के लिए गया था ।लालकुर्ती में चाचा जी का ससुराल भी था । वैसे ‘लालकुरती’ गफ्फार खान के खुदाई खिदमतगार यानी ‘मानव-मात्र की सेवा की भावना ‘ पैदा करने वाले कार्यकर्ताओं की पोशाक भी है । 14-15, 1947 को विधिवत विभाजन से पहले पेशावर से लाहौर तक हिंदू मुसलमानों के बीच फसाद हो चुके थे जिसके फलस्वरूप हम लोग करीब दो सप्ताह तक सेना की देखरेख में शिविरों में बिता आये थे ।लोगों को शांत करने की गर्ज से गांधी जी तब रावलपिंडी आये थे ।उस समय पहली और आखिरी बार मैंने गांधी जी को देखा था जिनके साथ मुझे ‘सरहदी गांधी’ यानी अब्दुल गफ्फार खान भी दीखे थे । उस समय मेरी उम्र बारह बरस के करीब थी।
अप्रैल-मई 1947 में रावलपिंडी में गांधी जी के साथ सीमांत गांधी अर्थात खान अब्दुल गफ्फार खान को देखा था,कुछ दूर से।लेकिन उनके आकर्षक व्यक्तित्व और प्रखर वाणी की छाप जो तब बालक मन पर पड़ी था वह करीब 40 साल बाद भी मौजूद थी। उन दिनों आजकी तरह नेताओं को घेरने जैसी भीड़ नहीं होती थी और न ही सुरक्षा व्यवस्था या धक्कमपेल ।मेरे चाचा परमानंद जी अक्सर मुझे मंच के करीब खड़ा कर स्वयं पीछे चले जाते थे।वह शायद मेरे उत्साही मन से परिचित होते थे।रावलपिंडी में हम लोग चार प्राणी थे: मेरे माता-पिता (ईश्वर देवी और अमर नाथ), मेरे चाचा जी और मैं ।उनकी हाल में ही शादी हुई थी।चाची को मिलाकर हम लोग पांच जीव थे।दादी लाजवंती फालिया वाले घर में रहती थीं ।कभी कभी हमारे पास रावलपिंडी में आ जाती थीं । रिश्तेदारी हमारी एक बुआ करतार देवी अपने पति जोधसिंह और बेटे सुरजीत,दर्शन और शीला के साथ मरीढ़ में रहती थीं ।मेरे फूफा का खासा लंबा चौड़ा व्यापार था।सुरजीत और मैं एक साथ दैडीज़ स्कूल में पढ़ते थे और आधी छुट्टी में साथ साथ खाना खाते थे।सुरजीत हिंदी के लेखक हैं ।उन्होंने उर्दू,पंजाबी और अंग्रज़ी से हिंदी में बहुत सी कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद किया है और मौलिक लेखन भी किया है ।
क्योंकि मैं मंच के करीब था इसलिए कभी गांधी जी तो कभी सीमांत गांधी को निहारता था।कभी उनकी कदकाठी को देखता तो कभी लोगों को संबोधित करने की शैली की।गांधी जी गुजराती मिश्रित हिंदी में मार्च के दंगों से प्रभावित हुए लोगों को आश्वस्त कर रहे थे कि अब शांति का रास्ता तलाश लिया गया है,आप लोग बेफिक्र रहें।देश का विभाजन होने पर आप लोगों को पूरी सुरक्षा मिलेगी ।लेकिन हम जैसे लोग जो दो हफ्तों तक सेना के संरक्षण में कैंपों में शरणार्थियों का-सा जीवन बिता आये थे उन्हें गांधी जी का शांति का आश्वासन प्रभावित नहीं कर पाया।उस समय लोग और उदिगन हो गये जब खान अब्दुल गफ्फार खान ने गांधी जी से इज़ाजत मांगते हुए बताया कि अभी भी पेशावर और उसके आसपास शरारती अंसर ऐक्टिव हैं ।वहां मौजूद लोगों को आने वाले दिनों का भान हो गया था। लिहाजा मेरे पिता जी ने रावलपिंडी छोड़ने का मन बना लिया।चाचा जी पोस्ट ऑफ़िस में काम करते थे उन्होंने बंबई (मुंबई) में ट्रांसफर करा लिया ।चाचा,चाची और दादी मुंबई चले गये।पिता जी की बस्ती के पास टिनिच में कुछ लोगों से जान पहचान थी।हम लोगों ने 5 अगस्त को रावलपिंडी को अलविदा कहा ।करीब दो बरस तक हम लोग टिनिच में रहे,नौ बरस रायपुर और लोकसभा सचिवालय में नौकरी के बाद दिल्ली में ।सीमांत गांधी से वर्तमान उनके एम्स में भरती होने के बाद की गयी जो करीब दो घंटे तक चली ।उस समय यह भेंटवार्ता उस समय ‘दिनमान’ के लिए एक स्कूप था।
गफ्फार खान को पख्तून उन्हें आदरपूर्वक कई नामों से संबोधित करते हैं:
जैसे ‘बाचाखान’, ‘सीमांत गांधी ‘, ‘बादशाह खान ‘आदि ।दिल्ली में वह अपने सम्मान में आयोजित कांग्रेस के अत्यधिक कार्यक्रमों से इतने थक गये थे कि उन्हें कुछ दिनों के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भरती कराना पड़ा ।हालांकि वहां सुरक्षा प्रबंध खासे कड़े थे लेकिन मैंने उनसे अकेले मिलने का प्रबंध कर ही लिया ।
मुझे खान अब्दुल गफ्फार खान बड़े प्यार से मिले ।जब मैंने उन्हें बताया कि हम लोग रावलपिंडी से आये हैं तो वह कुछ भावुक होकर आशीर्वाद वाले दोनों हाथ ऊपर उठा कर बोले, ‘ठीक हैं न ‘। इस आशीर्वाद के बाद हम लोगों ने खुल कर बातें करनी शुरू कर दीं ।उनकी देखभाल के लिए उनके कमरे में एक नर्स और एक और व्यक्ति मौजूद था ।उन दोनों को भी कुछ समय के लिए उन्होंने कमरे से बाहर भेज दिया । जब मैंने पूछा कि कैसी लगी मौजूदा कांग्रेस पार्टी और उसके नेता? हल्का -सा मुस्कराए और बोले वक़्त के साथ काफी कुछ बदल जाता है ।कांग्रेस प्रमुख और वज़ीरेआज़म राजीव गांधी नेक इंसान लगता है ।पंडित जवाहरलाल नेहरू का वह नाती और इंदिरा गांधी का बेटा ।नफासत तो उन्हें घुट्टी में पिलायी जाती है मुझे बहुत इज़्ज़त बख्शी । अपने नाना की बातें भी करता रहा,अपनी माँ और अपने मुल्क की भी ।जवाहरलाल तो मेरे भाई जैसे थे ।एक बार गलतफहमी ज़रूर हो गई थी जो हमने जल्दी ही सुलटा ली ।बाद में तो हमारा बहुत करीबी रिश्ता हो गया और कांग्रेस पार्टी के हर सम्मेलन में हम दोनों की राय शायद ही कभी मुख्तलिफ रही हो । और कई पुराने नेता भी मिले ।स्वतंत्रता संग्राम के वक़्त कुछ तो छोटे थे तो कुछ नन्हे । खुशी की बात है कि वे सभी मेरे नाम से वाकिफ हैं ।
और गांधी जी के साथ आपके कैसे संबंध थे ?
अब बादशाह खान कुछ गमगीन हो गये ।ऐसा लगा मानो उन्हें कुछ करीबी लेहमो की याद हो आयी हो ।कहां से शुरू करुँ और क्य क्या बताऊं ।उनका गला रुंध गया था ।’दो लफ्ज़ में मैं इस तरह बयान कर सकता हूं कि सरहदी पेशावर के कबीलों की
नेतागिरी से निकाल कर कांग्रेस में शामिल करने से लेकर हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने की शुरुआत उन्होंने ही की थी ।’ 5 मार्च, 1931 के गांधी-इरविन समझौते में यह दर्ज है कि हिंसा के आरोपियों को छोड़ कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया जाएगा।मतलब यह कि अगर किसी केस में हम दोनों को गिरफ्तार किया जाता है तो रिहाई भी साथ साथ होगी ।एक बार ऐसा नहीं भी हुआ था ।लेकिन गांधी जी ने तुरंत लॉर्ड इरविन से कहा कि या तो गफ्फार खान को रिहा करो अथवा मुझे भी गिरफ्तार करो ।और मुझे फौरन रिहा कर दिया गया था ।बहुत प्रेम करते थे गांधी जी मुझसे ।चाहे बारदोली दंगों की जांच करने के लिए जाना हो या रावलपिंडी अथवा पेशावर या लाहौर वह अक्सर मुझे साथ रखते थे।उन्हीं की वजह से सीमांत के हम लोग कांग्रेस के साथ जुड़े थे ।शर्त सिर्फ एक ही थी स्वाधीनता संग्राम में उनका साथ देना ।उनकी लड़ाई भी ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ थी और हम सरहद के लोग अंग्रजों के ज़ुल्मों से आजिज़ आ चुके थे । 1901 में जब अंग्रजों ने सीमा प्रांत को पंजाब से अलग कर फ़्रंटियर क्राइम्स रेगुलेशन ऐक्ट लागू कर दिया तो उससे पठानों के सम्मान, गरिमा और आत्मविश्वास को बहुत ठेस पहुंची और हम लोगों पर बेइन्तहा ज़ुल्म होने लगे तो डूबते को सहारा कांग्रेस और गांधी जी ने दिया ।
यह पूछे जाने पर कि कांग्रेस के दूसरे नेताओं का उनके प्रति क्या रुख था तो बादशाह खान ने बताया कि सभी नेताओं ने सरहद के हम पश्तूनों का दिलखोल स्वागत किया चाहे पंडित नेहरू रहे हों या वल्लभभाई पटेल,अबुल कलाम आज़ाद या डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अथवा सुभाषचंद्र बोस देश के स्वधीनता संग्राम में हमारी सक्रिय भूमिका के कौल का इस्तकबाल किया ।उन्हें यह भी पता चला गया कि हमारे खुदाई खिदमतगार अहिंसा में यकीन रखते हैं और गांधी जी के भारत की आज़ादी के अहिंसक आन्दोलन में उनका महत्वपूर्ण रोल हो सकता है, तो सभी नेताओं ने हमें गले लगाया ।बेशक़ हमारे कांग्रेस में शामिल होने से अंग्रजों की भवें तन गयी थीं, क्योंकि अब खुदाई खिदमतगार का दायरा सीमा प्रांत से बढ़ कर पूरा भारत जो हो गया था ।हमारा यह सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन पूरी तरह से अनुशासित और अहिंसक था जो सत्य पर आधारित था और उसका मकसद बेकसूर लोगों के आत्म- सम्मान की रक्षा करना था ।खुदाई खिदमतगार को उसके लाल रंग की शर्ट से पहचाना जा सकता था जिसे कुछ लोग ‘लाल कुरती’ कहते तो कुछ ‘सुर्खपोश’।
तो आपके अहिंसक खुदाई खिदमतगार आन्दोलन की वजह से आपको ‘सरहदी गांधी ‘ या ‘सीमांत गांधी ‘ कहा जाता है ।इस सवाल पर हंसते हुए बोले,भई असली गांधी तो एक ही है,हम तो सब उसके अनुयायी हैं ।खुदाई खिदमतगार बहुत जल्दी सर्वप्रिय हो गया था जो पठानों का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक आन्दोलन था।इस आन्दोलन की वजह से पठानों में प्रेम, मोहब्बत,भाईचारा,एकता, जातिभक्ति के साथ साथ राष्ट्रभक्ति भी पैदा हुई । आम तौर पर पठानों को हिंसक माना जाता है लेकिन खुदाई खिदमतगार ने उनकी यह परिभाषा ही बदल दी ।जब कभी हम अंग्रजों से कहते कि हमारा यह आन्दोलन तो अहिंसक है तो इस पर उनका जवाब हुआ करता था,’अहिंसावादी पठान हिंसावादी पठान से ज़्यादा खतरनाक है ।’ गांधी जी की नज़रों में लॉर्ड इरविन अच्छे इंसान थे लेकिन उन्हें भी यह यकीन नहीं था कि पठान अहिंसावादी हो सकते हैं ।वह कहते थे कि ‘पठान और अहिंसा?असंभव है ।’ इस पर गांधी जी ने उन्हें कहा था कि आपको चाहिए कि आप सीमा प्रांत में जाकर अपनी आंखों से देखें कि पश्तून किस हद तक अहिंसा में आस्था रखते हैं ।’ लॉर्ड इरविन ने गांधी जी की जुबान का मान रखा और सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया जो फर्ज़ी मामलों में गिरफ्तार किए गये थे ।हमारे अहिंसात्मक आन्दोलन ने पठानों के दिलों से डर और शक़ पूरी तरह से खत्म कर दिया और उसकी जगह ली हिम्मत और बहादुरी ने ।ऐसी प्रतिष्ठा, उनके ऊंचे चरित्र और अनुशासन के कारण ही हिंदुस्तान की जंगे आज़ादी में खुदाई खिदमतगारों की खिदमात खुले दिल से स्वीकार की गयीं जिन के अहम रोल को गांधी जी ने भी तस्लीम किया था । 1939 के बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन में मुझे पार्टी का अध्यक्ष नियुक्त करने का फैसला हो गया और इस बाबत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सूचित किया कि वह इस्तीफा दे रहे हैं और उनके स्थान पर बाचा खान यानी मुझे अध्यक्ष चुना गया है ।मैंने फौरन तार से इत्तला दे दी कि ‘मैं एक सिपाही हूं,खुदाई खिदमतगार हूं और खुदाई खिदमतगारी ही करूंगा ।’
कुछ लोगों का यह भी मानना रहा है कि कांग्रेस में आपके शामिल हो जाने के बावजूद कुछ बड़े नेताओं से आपके खयालात वैसे नहीं मिलते थे जैसे गांधी जी और पंडित नेहरू से , मसलन सरदार पटेल,राजगोपालाचारी,अबुल कलाम आज़ाद.. बीच में मुझे टोकते हुए गफ्फार खान ने कहा कि ऐसी गलतफहमियां फैलाने वाले हर जमात में हैं,ज़रूरत है ऐसे अंसरों से दूर रहने की।हम यह कैसे भूल सकते हैं कि सरदार पटेल के वालिद विट्ठल भाई पटेल,जो उस वक़्त सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के माननीय स्पीकर थे, ने रावलपिंडी में बैठकर सीमा प्रांत पर ढाये जाने वाले ज़ुल्म का विस्तृत ब्योरा अगर भारत भर की अखबारों को न भेजा होता तो हमें कांग्रेस में क्यों शुमार किया जाता ।विट्ठल भाई पटेल पेशावर के किस्सा खानी बाज़ार के उस गोलीकांड का जायजा लेने के लिए असेंबली द्वारा तैनात किये गये थे जिसमें बड़ी तादाद में खुदाई खिदमतगार मारे गये थे लेकिन अंग्रेज़ हुकूमत ने उन्हें वहां जाने की इज़ाजत नहीं दी थी लिहाजा रावलपिंडी में बैठकर कुछ चश्मदीद गवाहों की गवाही के आधार पर अंग्रेजों के ज़ुल्म की कहानियों का सिर्फ हिंदुस्तान को ही नहीं सारी दुनिया को वाजे कराया था ।ऐसे बाप के बेटे से हमारे रिश्ते कैसे तुर्श हो सकते हैं ।
सुना जाता है कि आप और गांधी जी हिंदुस्तान के बंटवारे के हक़ में नहीं थे तो यह विभाजन हुआ कैसे और क्यों?जहां तक मैं समझता हूं कि कुछ बड़े नेताओं की यह दलील थी अंग्रेज़ तो देश छोड़ कर जायें बदले में हमें विभाजन मंज़ूर कर लेना चाहिए ।इसके साथ एक पेंच और भी फंसा हुआ था सीमा प्रांत में जनमत संग्रह कराने का ।मैं और महात्मा गांधी दोनों जनमत संग्रह के विरुद्ध थे ।लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने देश का विभाजन और सीमा प्रांत में जनमत संग्रह दोनों पर अपनी सहमति प्रदान कर दी ।यह फैसला मेरे लिए मौत के समान था ।मैं हैरान और परेशान था । मेरे ज़ख्मों पर नमक छिड़कते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने सुझाव दिया कि मुझे मुस्लिम लीग में शामिल हो जाना चाहिए । मुझे उनकी इस सलाह पर बहुत दुख हुआ क्योंकि कुछ समय पहले तक हम दोनों सैधांदिक और वैचारिक तौर पर मुस्लिम लीग की नीतियों के खिलाफ थे ।मुस्लिम लीग जहां विनाश के लिए काम कर रही थी वहां मैंने अपनी सारी ज़िंदगी निर्माणकार्य में लगा दी थी । मैंने गांधी जी से कहा कि हम पठान आप लोगों के साथी हैं तथा भारत की स्वाधीनता के लिए बहुत कुर्बानियां दी हैं लेकिन आप लोगों ने हमें मंझधार में छोड़ दिया और भेड़ियों के हवाले कर दिया ।खान अब्दुल गफ्फार खान के दिल का दर्द उस समय जुबान पर आ गया जब उन्होंने कहा कि हमने तो कांग्रेस को नहीं छोड़ा लेकिन कांग्रेसियों ने हमें छोड़ दिया।अगर हम कांग्रेस को छोड़ देते तो अंग्रेज़ हमें सब कुछ देने को तैयार था । शायद अफगानिस्तान के साथ मिलाने के भी, क्योंकि हम दोनों के सामाजिक और सांस्कृतिक तौर-तरीकों में खासी एकरूपता है,भाषा और रीति-रिवाजों में भी ।
हक़ीक़त को समझते हुए आपने तो भारत और पकिस्तान को अलग देश के तौर पर स्वीकार कर लिया था लेकिन पाकिस्तान की हुकूमत क्यों आपको शक़ की नज़र से देखती रही, खान अब्दुल गफ्फार खान ने उदासी भरे लहजे में कहा कि इसे हम अपनी बदकिस्मती ही कहेंगे।हम ने तो हुकूमत से कहा था कि जिस तरह से आपके पंजाब, सिंध,पूर्वी पाकिस्तान बलूचिस्तान सूबे हैं वैसे ही पुश्तूनिस्तन भी रहेगा ।मुझे लगता है उनका मकसद दीगर था।जब हम ने हुकूमत को भरोसा दिलाया कि हम मुल्क में कोई हिस्सा नहीं मांगेंगे बल्कि मुल्क के वफादार शहरी होने के नाते उसकी तरक्की और बहबूती के लिए कदम से कदम मिलाकर चलेंगे ।पाकिस्तान की सरकार पर मेरे इन विचारों का कोई असर नहीं हुआ और मुझ पर निर्माण की आड़ में ध्वंस का इल्जाम लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया ।मुझ पर कबाईलियों से मिलकर मुल्क के खिलाफ साजिश रचने का भी आरोप लगा ।मेरे बेटे वली खान और गनी खान को भी हिरासत में ले लिया गया। हमारे बिना किसी अपराध और सबूत के । हम पर बेइन्तहा ज़ुल्म ढाये गये ।इतने तो फिरंगियों ने भी अपने शासनकाल में अत्याचार नहीं किए थे, उन्होंने न तो हमारे घरों को लूटा था, न ही महिलाओं का अपमान किया था और न ही हमारी अखबारों पर रोक लगाई थी ।लेकिन हमारी अपनी इस्लामी सरकार ने सारी हदें पार कर दीं ।ऐसा ही जेलों में इस्लामी सरकार का बर्ताव था जो गोरों के मुकाबले दस गुना ज़्यादा बुरा था । 15 साल मैं अंग्रजों की जेल में रहा और
15 ही बरस इस्लामी शासन की जेलों में । इनके वक़्त मेरे गुर्दे में खराबी हो गयी और मेरे पैरों में सूजन आ गयी ।वहां की जेलों के जेलर गलतशलत दवाएं देकर मेरा रोग बढ़ाते रहे । जब रोग बहुत बढ़ गया तो इलाज कराने के लिए मुझे जुलाई, 1964 में रिहा कर दिया गया। सितम्बर में अपने इलाज के लिए लंदन चला गया और दिसंबर में वहां से लौट कर मैंने अफ़ग़ानिस्तान में रहते हुए पख्तुनिस्तान की प्राप्ति के लिए पुरअमन आन्दोलन की शुरुआत की जिसमें मुझे सभी कबीलों का समर्थन प्राप्त हुआ ।
क्या पाकिस्तान की हुकूमत और लीडरान को यह इल्म नहीं था कि आपकी लड़ाई अंग्रेज़ हुकूमत के खिलाफ थी जिस में हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई सभी शामिल थे।शुरू शुरू में मोहम्मद अली जिन्ना भी तो स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे,बाद में अंग्रजों की शह पर उन्होंने अलग मुल्क की आवाज़ बुलंद की थी? बादशाह खान का कहना था ‘इस्लामी सरकार हर चीज़ से वाकिफ थी लेकिन आज़ादी के बावजूद वहां के कारकून अंग्रजों के पिठू बने रहे जबकि भारत सरकार खुदमुख्तियर हो गयी थी। पाकिस्तानी लोग गोरों के तलवे सहलाते रहे ।जिन्ना जल्दी इंतकाल फरमा गये, उनके बाद वज़ीरेआज़म लियाकत अली भी ज़्यादा देर ज़िंदा नहीं रहे लिहाजा मुल्क में अफरातफरी का माहौल था ।दूसरी तरफ पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली मुसलमान पंजाबी मुसलमानों में अपने आपको अनफिट महसूस कर रहे थे ।नतीजतन पाकिस्तान की जम्हुरियत का जनाजा निकल गया और मुल्क में जनरल अय्यूब खान ने मार्शल लॉ लागू कर गद्दी संभाल ली
जनरल अय्यूब खान तो पठान था उन्होंने आपके प्रति कोई हमदर्दी का रुख नहीं अपनाया ?बाचा खान का जवाब था कि मुहं जुबानी वह बहुत कुछ कहता था और मुझे ‘चचा ‘ भी बुलाता था लेकिन लगता है उसे भी हुकूमत का या तो गरूर हो गया था या व्यवस्था ने उसे कुछ उल्टा सीधा पाठ पढ़ा दिया था ।अगर पठान दूसरे पठान या पूरी पठान जाति का दर्द न समझे तो वह हाकिम हमारे किस काम का ।अय्यूब खान का कुछ ऐसा ही बेरुखी का रवैया हो गया था ।
वहां के हुक्मरानों को आपसे चिढ़ किस बात को लेकर थी, के सवाल के जवाब में बादशाह खान ने बताया था कि उन्हें सब से बड़ी तकलीफ मेरे कांग्रेस में जाने की थी। वह कहते थे कि मैं मुस्लिम लीग में शामिल क्यों नहीं हुआ । इसके जवाब में जब उन्हें बताया कि मैं सबसे पहले शामिल होने के लिए तो मुस्लिम लीग के पास ही गया था लेकिन उन्होंने जब कोई तवज्जो नहीं दी तो मायूस होकर मैं कांग्रेस के पास गया और उन्होंने मुझे सिर आँखों पर बिठा लिया और जितनी इज़्ज़त मुझे वहां बख्शी गयी और आज भी बख्शी जा रही है ,वह मुझे मुस्लिम लीग में हरगिज़ न मिलती । मुझे मुस्लिमलीगी ‘देशद्रोही’ मानते हैं जब कि मैं खुदाई खिदमतगार हूं जिस का मकसद है इंसानियत की खिदमत करना और भाईचारे का पैगाम पहुँचाना । क्योंकि पाकिस्तान की नीवं नफरत पर रखी गयी थी इसलिए उसे घुट्टी में ही नफरत, इर्ष्या, द्वेष,दुश्मनी, दुर्भावना मिली थी। अंग्रजों ने पाकिस्तान का निर्माण इसलिए किया ताकि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे फसाद हमेशा होते रहें ।अगर उनकी ऐसी सोच न होती तो महज़ मज़हब के नाम पर दूरदराज़ के बंगाल को पंजाब की तरह दोफाड़ क्यों करते जो सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर पश्चिमी पंजाब से मेल नहीं खाता था ।यही हाल सिंध, बलूचिस्तान और हम पख्तुनों का है ।सिंध भारत के ज़्यादा करीब है और हम लोग अफ़ग़ानिस्तान के ।अंग्रजों की तोड़ो और राज करो की नीति ही एक मात्र वजह है कि जम्हुरियत पाकिस्तान को फल नहीं आयी और पूर्वी पाकिस्तान अब बंगलादेश बन गया है । बाकी के सूबे भी उससे पिंड छुड़ाने के लिए छटपटा रहे लगते हैं लेकिन इन सूबों पर कुछ तो आबादी की अदला-बदली करके और कुछ फौज की बंदूकों के बल पर अपने कब्जे में रखे हुए है ।आखिर कब तक ।
बादशाह खान के मुताबिक ज़ुल्फिकरअली भुट्टो की ‘बदतरीन तानाशाही ‘और उनके बाद ज़िया उल हक़ द्वारा पठानों की आबादी को दूसरे सूबों में बसाने का काम हम पर कम ज़ुल्म नहीं था । इसके पीछे उनका मकसद क्या था ।अब फिर बादशाह खान उदास हो गये ।बोले,सब से ज़्यादा कहर तो ज़िया उल हक़ ने ढाया ।उन्होंने बड़ी भारी तादाद में पठानों को सिंध भेज दिया और सिन्धीयों को पेशावर और उसके आसपास के इलाकों में ।कई घर और परिवार इन हुक्मरानों ने तबाह कर दिये।इतना ही नहीं सभी सरहदों पर मरने के लिए पठानों को भेजा जाता है चाहे कश्मीर हो या रण कच्छ या दूसरे दूरगामी इलाके हों ।इस बात की पुष्टि तो कराची में मेरे टैक्सी ड्राईवर ने भी की। जब मैं कराची एअरपोर्ट से अवारी होटल जा रहा तो ड्राइवर से मैंने पूछा कि आप कहां के हो?उसने बताया,पेशावर । यहां कैसे आये के जवाब में उसने बताया था कि ज़िया साहब ने बड़ी तादाद में पठानों को सिंध और सिन्धीयों को फ़्रंटियर भेजा है ।आबादी की अदला- बदली उनके राज में खूब हुई है ।शहर के सुकून के बारे में जब पूछा तो उसने बताया कि अनिश्चित रहता है , न जाने अमन कब बेअमनी में बदल जाये । उस ड्राइवर ने यह भी बताया था कि यहां से कुछ सिंधी परिवार पेशावर भेजे गये हैं ।वहां वह दुखी हैं और यहां हम ।
आज खान अब्दुल गफ्फार खान दिलखोल कर बात करने के मूड में थे ।मुझे लगा कि एक बार वह अपने मन का दर्द उड़ेल देना चाहते हैं ।इतनी बातें करते देख बादशाह खान की देखरेख करने वालों को भी लगता है ताज्जुब हुआ था ।मैंने खान साहब का शुक्रिया अदा किया और जब रुख्स्त होने लगा तो मेरी पीठ पर हाथ फेर कर आशीर्वाद देते हुए कहा कि ‘आपसे मिलकर ऐसे लगा जैसे मैं अपने मुल्क के किसी बंदे से मिल रहा हूं वैसे रावलपिंडी पेशावर से ज़्यादा दूर नहीं है ।’ चलते चलते मैंने पूछ ही लिया,यहां से कहां जायेंगे ।पूरी तरह से सेहतमंद होने के बाद ही मैं हिंदुस्तान छोड़ूंगा और इरादा अफगानिस्तान जाने का ही है ।वहां पहुंच कर लोगों से सलाह मशविरा कर के ही पाकिस्तान जाऊंगा ।मुझे मालूम है कि वहां मेरी आज़ादी खतरे में है ।अगर जेल नहीं तो नजरबंदी शर्तिया है ।हाथ ऊपर करते हुए बोले इन्शाल्लाह ।
खान अब्दुल गफ्फार खान से इतनी लंबी और विविध मुद्दों पर की गयी मुलाकात ‘दिनमान’का एक स्कूप था ।इसे कवर स्टोरी बनाया गया और शायद कवर भी बादशाह खान का था ।मुझे याद पड़ता है कि पूरी की पूरी बातचीत छापी गयी थी । 1990
में अपने पाकिस्तान के दौरे के दौरान पेशावर के पास चारसदा में जब मैंने उनके पुत्र वली खान से बादशाह खान से इस लंबी बातचीत का ज़िक्र किया तो वह बहुत खुश हुए । उन दिनों मैं ‘संडे मेल ‘ में कार्यकारी संपादक था और एक मिशन पर पाकिस्तान गया था ।वह मिशन था गैरराजनीतिक तरीके से भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच दोस्ती और भाईचारे को बढ़ाने के लिए एक सम्मेलन आयोजित करना ।प्रमुख समाजसेवी उद्योगपति और ‘संडे मेल ‘ के मालिक संजय डालमिया का यह मानना कि राजनीतिक तौर पर तो दोनों देशों के मसले तो हल होने से रहे, क्यों न गैरराजनीतिक तौर पर इस दिशा में प्रयास किये जायें।उनका मानना था कि भारत में तो ऐसे सकारात्मक विचार वाले लोगों की कमी नहीं है, हमें पाकिस्तान में ऐसे सोच वाले लोगों को तलाशने की ज़रूरत है । उनके इस मकसद को लेकर मैं पाकिस्तान की टोही यात्रा पर गया था ।लाहौर , इस्लामाबाद, रावलपिंडी और मुज़फ्फराबाद के बाद जब मैं पेशावर पहुंचा तो सौ से अधिक अतिविशिष्ट लोगों की मुझे सहमति मिल चुकी थी जिसमें
संस्कृतिकर्मी, पूर्व राजनयिक, पूर्व न्यायधीश,पूर्व मंत्री,शिक्षाविद, उपकुलपति,पत्रकार आदि शामिल थे । वली खान को भी यह विचार बहुत पसंद आया ।उन्होंने तुरंत अपनी सहमति देते हुए कहा कि अगर मेरी सेहत ने मुझे इज़ाजत दी तो अपने बिछुडे हुए भाइयों से मिलने के लिए मैं खुद ही हाज़िर हो जाऊंगा वर्ना अवामी नेशनल पार्टी का कोई सीनियर पदाधिकरी उस सम्मेलन में शिरकत करेगा ।वली खान ने अपना कौल रखा और उन्होंने अजमल खटक को अपनी पार्टी की तरफ से भेजा जो खुद बाहैसियत पश्तो के लेखक, शायर और खुदाई खिदमतगार थे और वली खान के अवकाश ग्रहण करने के बाद अवामी नेशनल पार्टी के प्रेसीडेंट और पकिस्तान नेशनल असेंबली के सांसद भी थे। यह दो द्विवसियअंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन नवंबर, 1991 में दिल्ली के अशोक होटल में हुआ जिसमें पाकिस्तान से दर्जन भर लोगों ने जस्टिस दोराब पटेल के नेतृत्व में शिरकत की ।अजमल खटक से शायद वली खान ने मेरे खान अब्दुल गफ्फार खान से मुलाकात की चर्चा की थी ।दिल्ली एअरपोर्ट पर मैंने ही उनकी अगवानी की ।मुझे देखते ही उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा कि आपने हमारे बादशाह खान से बहुत लंबी गुफ्तगू की थी ।आपको इस खुदाई खिदमतगार का सलाम ।खान वली खान ने आपके मुतालिक़ बताया था ।उनकी सेहत नासाज़ थी लिहाजा आप सब लोगों से मिलने की खुशकिस्माती इस नाचीज़ को नसीब हुई ।सम्मेलन के पहले और बाद में भी अजमल खटक से मेरी बातचीत होती रही । संजय डालमिया का यह बहुत ही नेक काम है ।हमारे दोनों मुल्कों की त्वारीख एक,खना पीना, ओढ़ना-पहनना एक जैसी बोली एक और दुख दर्द सांझे फिर यह नफरत क्यों ।बंटवारा अपनी जगह है लेकिन हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक,शैक्षिक और आध्यात्मिक सम्बंध तो क़ायम हो ही सकते हैं ।मेरा इन्हीं मुद्दों पर ज़ोर रहेगा ।सम्मेलन में उन्होंने पुरज़ोर आवाज़ में इस मुद्दे को उठाया भी ।एक निजी भेंट में उन्होंने अपनी नज्में भी सुनायीं ।एक तो पंजाबी से मिलती जुलती थी जिसे पठान ‘हिंदको’ कहते हैं ।इस सम्मेलन के बारे में कभी अलग से ।
खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फरवरी,1890 को उत्त्नमान जई गांव में एक समृध और सम्पन्न गौरवशाली जमींदार पठान खान बहराम खान के घर हुआ जो अपनी विनम्रता, पाक-साफ छवि और खुदा के सच्चे बंदे के तौर पर मशहूर थे । वे अपनी उदारता, दया, दयानतदारी और मेहमाननवाजी के लिये भी दूर दूर तक जाने जाते थे । यह भी माना जाता है कि गफ्फार खान के दादा, परदादा ने गाज़ी, दुर्रानी और मुगलों जैसे हमलावरों का डट कर मुकाबला किया था और गफ्फार खान ने पहले अंग्रजों और बाद में अपने मुल्क की इस्लामी हुकूमत से लोहा लिया था ।वह इंसाफ पसंद स्वतंत्रता सेनानी थे ।महात्मा गांधी के साथ कंधे से कंधा मिला कर देश की आज़ादी के लिए सभी कुछ कुर्बान कर दिया। यह हिम्मत, बहादुरी, सच्चाई और अनुशासन का पाठ खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने दूरदर्शी और वीर पुरखों से सीखा था।उन दिनों बच्चे आम तौर मस्जिदों में पढ़ा करते थे ,क्योंकि अंग्रेज़ वहां स्कूल या मदरसे खोलने की इज़ाजत नहीं देते थे ।लेकिन गफ्फार खान के पिता ने उन्हें शिक्षित बनाने के लिए मिशनरी स्कूल में शिक्षित कराया ।स्कूली पढ़ाई समाप्त करने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय से स्नातक की डिग्री ली ।उनके पिता गफ्फार खान को भी ऊंची पढ़ाई के लिए लंदन भेजना चाहते थे जैसे कि उन्होंने अपने बड़े बेटे अब्दुल जब्बार खान को डॉक्टरी पढ़ने के लिए भेजा था लेकिन माँ ने यह कह कर विरोध किया कि बड़ा भाई पहले ही वहां है इसे हम अपने से अलग नहीं करेंगे ।
लिहाजा वह देश सेवा के काम में लग गये ।1919 में पेशावर में अंग्रजों ने जब फौजी कानून लागू किया तो गफ्फार खान ने
शांतिपूर्ण ढंग से उसका विरोध किया जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । अंग्रजों का अहिंसा से विरोध करने के लिये 1929 में उन्होंने खुदाई खिदमतगार नामक सामाजिक,राजनीतिक और आध्यात्मिक संस्था का गठन किया जिसे ‘सुर्ख पोश ‘ या ‘लाल कुरती ‘ के नाम से भी जाना जाता है ।
बादशाह खान धर्मनिरपेक्ष मुसलमान थे जो धार्मिक हदबंदियों के खिलाफ थे ।उन्होंने किनान्खेल कबीले के यार मोहम्मद खान की बेटी से 1912 में पहली शादी की जिस से उनके दो बेटे अब्दुल गनी खान और अब्दुल वली खान तथा एक बेटी सरदारो मेहरकन्दा पैदा हुई । 1918 में इन्फ्लूएंजा की महामारी में पहली बेगम के फौत हो जाने से 1920 में उसकी चचेरी बहन नामबाता से दूसरी शादी की ।उससे एक बेटी मेहर ताज और एक बेटा अब्दुल अली खान पैदा हुआ । बदकिस्मती से 1926 में येरुशलम में एक घर की सीढीयों से गिर कर उसकी भी मौत हो गयी । उनका बड़ा बेटा गनी खान शायर और कलाकार है तथा उसने पारसी औरत रोशन से शादी की है । दूसरा बेटा खान अब्दुल वली खान अवामी नेशनल पार्टी का संस्थापक है और पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली में विपक्ष का नेता है ।तीसरा बेटा अब्दुल अली खान गैर राजनीतिज्ञ शिक्षाविद है और पेशावर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रह चुके हैं । उनका पोता आसफंदयार वली खान अवामी नेशनल पार्टी का नेता है जो 2008 से 2013 तक फ़्रंटियर में सत्ता में रही । आधुनिक भारत में पश्तून नेता खान गफ्फार की विख्यात विरासत को बड़े आदर सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है जिन के कुछ पौध भारत में भी हैं । खान अब्दुल गफ्फार खान की गांधी जी के साथ बहुत गहरी, आध्यात्मिक और निस्संकोच मित्रता थी और दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम में हर क्षेत्र में एकजुटता का परिचय दिया था । अब्दुल गफ्फार खान की इन नि:स्वार्थ सेवाओं के लिए उन्हें 1967 में जवाहरलाल नेहरू सद्भावना पुरस्कार तथा 1987 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया ।
20 जनवरी, 1988 को पेशावर में 97 साल की उम्र में जब उनकी मौत हुई तो वह अपने देश में नजरबंद थे ।उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में जलालाबाद में उनके निजी घर में दफन किया गया ।उस समय अफगानिस्तान में गृहयुध्द चल रहा था लेकिन बादशाह खान के सम्मान में युद्घविराम किया गया ।उनका जनाजा पेशावर बरास्ता खैबर जलालाबाद गया जिस में दो लाख से ज़्यादा लोगों ने शिरकत की । अफगानिस्तान के प्रेसीडेंट मोहम्मद नजिबुल्लाह भी जनाजे में शामिल होने वाले नेताओं में थे ।भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी अपनी अकीकत पेश करने के लिए पेशावर पहुंचे थे हालांकि पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ ने सुरक्षा कारणों से उन्हें आने से मना किया था ।बेशक ‘शांति के इस मसिहा ‘ के काफिले में गमगीन चेहरों और उदास आंसूयाफ्ता आंखें भी बेशुमार थीं । अलविदा सीमांत गांधी ।सादर नमन ।