Santosh-Sirबात भारतीय जनता पार्टी की आज की स्थिति की करनी चाहिए, नरेंद्र मोदी की नहीं. आज हिंदुस्तान में 35 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं. इनमें से कुछ राज्यों के आज लोकसभा में कितने सांसद हैं, इस बारे में बात करते हैं. आंध्र प्रदेश से 42, केरल से 20, ओडिशा से 21, तमिलनाडु से 39, दिल्ली से 7 और जम्मू-कश्मीर से 6 लोकसभा के सांसद चुने जाते हैं. इन सारे प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी शून्य है. उसे एक भी सीट इन राज्यों में, मौजूदा लोकसभा में जो भंग हो चुकी है, नहीं मिल पाई. जबकि यहां पर भारतीय जनता पार्टी ने जीतने और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जी-जान से कोशिश की थी.
अब कुछ छोटे प्रदेशों के बारे में बात कर ली जाए. मणिपुर से दो, मेघालय से दो, मिजोरम से एक, त्रिपुरा से दो, लक्ष्यद्वीप से एक, अरुणाचल प्रदेश से दो, पुडुचेरी से एक, सिक्किम से एक, चंडीगढ़ से एक सीटें आती हैं और इन सभी छोटे राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का कोई खाता ही नहीं है. यहां पर भी लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या शून्य है. 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 15 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का खाता नहीं खुला है. कुल मिलाकर इन 15 प्रदेशों में 148 सीटें है, जबकि लोकसभा की कुल सीटें 543 हैं. अगर इन 543 सीटों में से 148 सीटें घटा दें, तो बचे हुए 20 राज्यों में लोकसभा की 395 सीटें बचती हैं.
अगर पंद्रह राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के पास एक भी सीट नहीं है, तब आज भारतीय जनता पार्टी के पास जितनी सीटें हैं, वे बचे हुए बीस राज्यों में हैं. उनमें भी पश्‍चिमी बंगाल जैसे राज्य में भारतीय जनता पार्टी को स़िर्फ एक सीट मिली और यहीं से इतिहास बदलेगा या नहीं बदलेगा, इसकी कहानी शुरू होती है. अगर भारतीय जनता पार्टी इन पंद्रह राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाती है और बचे हुए बीस राज्यों में अपने सीटों की संख्या बढ़ा पाती है, तभी भारतीय जनता पार्टी के लिए दिल्ली में सरकार बनाना संभव हो पाएगा. पर एक फर्क है, मौजूदा लोकसभा जो भंग हो चुकी है, इसका चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने लड़ा था और आने वाली लोकसभा का चुनाव भारतीय जनता पार्टी नहीं लड़ रही है, नरेंद्र मोदी लड़ रहे हैं. क्या नरेंद्र मोदी की छवि भाजपा से बड़ी हो गई है? इस सवाल का जवाब पहली नज़र में देखें, तो इसमें सत्यता है.
नरेंद्र मोदी जैसा चाहते हैं, वैसा उनकी पार्टी कर रही है और इसीलिए किसी भी टेलीविजन चैनल में, चाहे वह खेल का चैनल हो, चाहे समाचारों का चैनल हो, चाहे फिल्म का चैनल हो, यानी हर एक में एक ही विज्ञापन आ रहा है, अबकी बार मोदी सरकार. नरेंद्र मोदी का इतना बड़ा कद बनाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहमति है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नरेंद्र मोदी पर जानबूझ कर दांव नहीं लगाया है, मजबूरी में दांव लगाया है. मुंबई में जब भारतीय जनता पार्टी का अधिवेशन हो रहा था, तब नरेंद्र मोदी उस अधिवेशन में नहीं आ रहे थे. उनकी शर्त थी कि संजय जोशी को पार्टी से निकाला जाए या ज़िम्मेदारियों से मुक्त किया जाए. संघ इसे मानने के लिए तैयार नहीं था, लेकिन जब उसने देखा कि नरेंद्र मोदी नहीं आ रहे हैं, तब उसने अचानक संजय जोशी को सभी पदों से इस्तीफ़ा देने के लिए कहा.
उस समय संजय जोशी के साथ भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता थे और अगर संजय जोशी नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ घूम जाते, तो नरेंद्र मोदी का गुजरात में तीसरी बार चुनकर आना संभव नहीं रह जाता. नरेंद्र मोदी ने यहीं से अपनी रणनीति बनाई और उन्होंने सबसे पहला काम ऐसे लोगों को पिंजरे में बंद करने का किया, जो उनके लिए भविष्य में कभी ख़तरा हो सकते थे. संजय जोशी उनमें से एक हैं. उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस तरह घेरा कि चाहे भैया जी जोशी हों या मोहन भागवत हों और चाहे भारतीय जनता पार्टी के भीतर रामलाल जी हों, ये सब नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव के लिए अवश्यंभावी मानने लगे. यहां से मोहन भागवत ने शायद यह सोचा कि इसी हथियार से वह भारतीय जनता पार्टी के तमाम उन नेताओं का राजनीतिक वध कर सकते हैं, जो उनसे उम्र में और अनुभव में बड़े हैं.
पूरी कोशिश लालकृष्ण आडवाणी को चुनाव के  परिदृश्य से हटाने की हुई, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने स्वयं को इस पूरे परिदृश्य में अंगद की तरह खड़ा कर दिया और उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह सलाह नहीं मानी कि वह इस बार का चुनाव न लड़ें. ठीक यही काम मुरली मनोहर जोशी ने किया. हालांकि, अभी भारतीय जनता पार्टी के संघ से जुड़े लोग कहते हैं कि अगर मुरली मनोहर जोशी पहली ही मीटिंग में यह सलाह मान जाते, तो देश में यह संदेश नहीं जाता कि मुरली मनोहर जोशी संघ का ़फैसला नहीं मान रहे हैं या आडवाणी जी संघ का ़फैसला नहीं मान रहे हैं. जानबूझ कर आडवाणी जी ने भोपाल सीट पर अपने लड़ने की अफवाह को बढ़ने दिया. इसके पीछे कोई बड़ा रहस्य नहीं है, बल्कि बहुत छोटा रहस्य है कि आडवाणी जी के शिष्य शिवराज सिंह एक तरफ़ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, पर अगर कोई ऐसा भी वक्त आता है, जब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार रहते सरकार नहीं बन पाती है, उस स्थिति में राजनाथ सिंह की जगह शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया जा सके.
यही पर संघ ने सोच-समझ कर एक ़फैसला लिया कि अगर यह चीज होती है, सीटें 160-180 या 200 आती हैं, लेकिन सरकार साफ़ तौर पर एनडीए की नहीं बन पाती है और उसमें रोड़ा नरेंद्र मोदी का नाम है, तब उन सारे लोगों की पार्टी में चलेगी, जिन्हें संघ हटाना चाहता है और इस फेहरिस्त में ज़्यादा नहीं, चार-पांच नाम हैं. आडवाणी जी हैं, मुरली मनोहर जोशी हैं, जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल ही दिया गया है, यशवंत सिन्हा हैं. इनके जैसे लोग अपने को संघ से अलग भाजपा का मानने लगे हैं और आडवाणी जी तो स्वयं अपना कद इतना बड़ा मानते हैं कि संघ उन्हें निर्देश नहीं दे सकता. संघ अब चाहता है कि नरेंद्र मोदी को किसी भी क़ीमत पर नहीं हटने देना है और सरकार नहीं बनती है, तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में बैठे  और उन सारे लोगों को संन्यास लेने का निर्देश दिया जाए, जिनकी वजह से पार्टी इस हालत में पहुंची है.
संघ का यह ़फैसला और भारतीय जनता पार्टी की आज की स्थिति कम से कम यह साबित करते हैं कि भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के सामने अब बौनी हो गई है. नरेंद्र मोदी इतिहास बदलने की दिशा में जा सकते हैं. अगर वह उन 15 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का पौधा रोप दें, जहां पर भाजपा के पास एक भी सीट नहीं है और उन 20 राज्यों में जहां भाजपा के पास एक से लेकर 20 तक सदस्य हैं, वहां भाजपा की सीटें बढ़ाएं. यही सोचकर नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार की व्यूह रचना 3 साल पहले रच ली थी, जिसकी शुरुआत उन्होंने मुंबई अधिवेशन के बाद कर दी. उन्होंने स्वयं को रहस्यमय भी रखा, उन्होंने स्वयं को आतंक का चेहरा भी बनाकर रखा, ताकि देश में यह संदेश जाए कि मुसलमानों को अगर कोई ठीक कर सकता है, तो मोदी कर सकते हैं. फिर नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर का मुद्दा छोड़कर रामदेव के आश्रम से सर्वे भवंतु सुखिन: का नारा भी दिया, ताकि उन्हें भरमाया जा सके, जो नरेंद्र मोदी को आज भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. और, आख़िर में नरेंद्र मोदी मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने के लिए जी-जान से लग गए हैं. इसके लिए उन्होंने कई बड़ी दरगाहों के धार्मिक नेताओं को अपने पक्ष में तोड़ा. उन्होंने मुसलमानों के उन नेताओं को भी पक्ष में तोड़ा, जिनके जलसों में लाखों लोग आते हैं और जिनके कहने पर वोट नहीं मिलते. मुस्लिम पत्रकारों को उनके लोग यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि इस बार मुस्लिम नौजवान नरेंद्र मोदी को ही वोट देंगे, क्योंकि वे उन बाकी नौजवानों से अलग नहीं हैं, जो देश में मोदी- मोदी चिल्ला रहे हैं.
मानना यह चाहिए कि चाहे मुसलमान हों या दूसरे कमजोर वर्गों के लोग, आज जो मोदी-मोदी का नारा लगा रहे हैं, कल उन्हें इतनी निराशा न मिले कि वे नरेंद्र मोदी के सामने गिद्ध बनकर खड़े हो जाएं और यहीं पर मोदी की कुशलता की परीक्षा होने वाली है कि क्या वह एम जे अकबर जैसे लोगों से कोई सलाह लेंगे या उन्होंने एम जे अकबर को भी शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी की तरह एक शो पीस की तरह पार्टी में शामिल किया है. सवाल देश का है. सवाल और भी बड़ा है कि क्या नरेंद्र मोदी के आने से यह देश और तनाव में जाएगा या नरेंद्र मोदी के आने से यह देश तनाव से उबरेगा?
नरेंद्र मोदी को सबसे ज़्यादा धन्यवाद राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को देना चाहिए,जो यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि तीन सालों से नरेंद्र मोदी द्वारा चलाए हुए प्रचार अभियान का मुकाबला किस तरह से करें. नरेंद्र मोदी भी कोई संभावना देश को नहीं दिखा पा रहे हैं और न राहुल गांधी दिखा पा रहे हैं, लेकिन इस स्थिति में भी नरेंद्र मोदी का कद बड़ा दिखाई दे रहा है और राहुल गांधी का कद छोटा. यह चुनाव कुछ ़फैसले अवश्य करेगा. हालांकि हर चुनाव कुछ न कुछ ़फैसले करता है, पर इस चुनाव में देश की जनता की भी परीक्षा है कि क्या वह अभी चुनाव के नाम पर सड़क पर चल रहे मदारी और बंदर के तमाशे को देखना चाहती है या सचमुच गंभीरता से उन सवालों के जवाब चाहती है, जो महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और सांप्रदायिकता के रूप में हमारे सामने खड़े हैं.

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