IMG_3778राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होता. यह तीन भी हो सकता है तो कभी पांच भी. मसलन, जब दिल्ली की गद्दी से इस्तीफा देकर अरविन्द केजरीवाल ने बनारस का रुख किया तो खुद उन्हें भी यह उम्मीद नहीं थी कि दो और दो तीन हो जाएगा और इसके बाद जब उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव न ल़डने का फैसला लिया, तब यह लगा कि वो और उनकी पार्टी दो और दो को मिला कर पांच बनाने का साहस खो चुकी है. बहरहाल, इस राजनीति के फार्मूले से निकल कर बात करें तो लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल का सबसे महत्वपूर्ण काम होता है चुनाव ल़डना. लेकिन आम आदमी पार्टी ने अपने आप को अभी सिर्फ दिल्ली पर फोकस कर लिया है. अरविंद केजरीवाल ने साफ कर दिया था कि आम आदमी पार्टी हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव नहीं ल़डेगी. उन्होंने सभी से केवल दिल्ली पर ध्यान देने को कहा है.
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव से पहले तक पार्टी हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव लड़ने की बात कर रही थी. यहां तक कि योगेन्द्र यादव के नाम की चर्चा हरियाणा के मुख्यमंत्री पद के लिए भी सामने निकल कर आ गई. लेकिन, लोक सभा चुनाव के बाद जाने ऐसा क्या हो गया कि महाराष्ट्र तो महाराष्ट्र, आम आदमी पार्टी ने हरियाणा में भी चुनाव ल़डने से मना कर दिया. हालांकि, दिल्ली के बाद अगर इस पार्टी का जमीनी स्तर पर कहीं कोई संगठन तैयार हो रहा था तो वो हरियाणा ही है. नवीन जयहिन्द जैसे युवा और जुझारू कार्यकर्ताओं ने सूचना का अधिकार आन्दोलन के जमाने से ही अरविन्द केजरीवाल के साथ जु़डे रह कर हरियाणा के कुछ खास इलाकों में जमकर काम किया था. अन्ना आन्दोलन के समय भी हरियाणा के ही सबसे अधिक कार्यकर्ता दिल्ली के रामलीला मैदान में आन्दोलन की पूरी व्यवस्था में जुटे हुए थे. गौर करने वाली बात यह भी है कि हरियाणा खुद अरविन्द केजरीवाल का गृह राज्य है. अगर वो वहां चुनाव ल़डते तो सालों से यहां काम कर रहे कार्यकर्ताओं का कम से कम मनोबल ब़ढता. सीटें कितनी मिलती, वोट कितना मिलता इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती लेकिन एक राजनीतिक दल के नाते हरियाणा के जनता के बीच में इसकी प्रासंगिकता बनी रहती.
जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है तो पार्टी से वहां के कई प्रमुख चेहरोँ ने अपना नाता जा़ेडा था. कॉरपोरेट जगत से ले कर फिल्म कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता तक आम आदमी पार्टी से शुरुआत में जु़डे थे. मेधा पाटेकर, अंजली दमानिया और मयंक गांधी जैसे लोग महाराष्ट्र में पार्टी का चेहरा थे. इन सब ने वहां लोक सभा का चुनाव भी ल़डा. लेकिन नतीका काफी निराशाजनक रहा. बावजूद इसके, मुंबई, पुणे समेत कुछ और जगहों पर भी पार्टी की उपस्थिति तो थी ही. फिर भी पार्टी ने चुनाव ल़डने से मना कर दिया. अब हालत यह है कि दिल्ली के बाद, महाराष्ट्र में भी इससे शुरुआती दौर में जुडे नेता एक-एक कर अलग होने लगे हैं. हाल ही में अंजली दमानिया ने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. अब, यहां पर पार्टी के मुखर चेहरे के रूप में ले दे कर सिर्फ मयंक गांधी रह गए हैं.
दरअसल, ऐसे फैसलों के पीछे जो प्रमुख कारण समझ में आते है उसमें फंड की कमी, मजबूत संगठन का अभाव, लोकसभा चुनाव के दौरान हुई रणनीतिक गलतियां और कुछ हद तक हरियाणा में स्थानीय बनाम राष्ट्री नेताओं के बीच गुटबाजी आदि शामिल है. इसके अलावा, लोकसभा चुनाव के बाद भी पार्टी के कई राष्ट्रीय नेताओं मसलन, योगेन्द्र यादव, मनीष सिसोदिया आदि के बीच इतनी ज्यादा सीटों पर चुनाव ल़डने को ले कर नोंक-झोक भी हुई. लोक सभा की 400 से अधिक सीटों पर चुनाव ल़डने के निर्णय पर पार्टी के बीच गहरे मतभेद सामने आए थे. योगेन्द्र यादव को इस निर्णय के लिए जिम्मेदार बताया गया था. दिल्ली और हरियाणा में एक भी सीट न मिलने की वजह से यहां के कार्यकर्ताओं में निराशा भी थी. फिर योगेन्द्र यादव का नाम हरियाणा के सीएम के लिए भी इसी बीच आ गया. नतीजतन, हरियाणा के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने भीतर ही भीतर इसक विरोध भी करना शुरू कर दिया. नवीन जयहिन्द और योगेन्द्र यादव के बीच जुबानी जंग भी हुई. इस सब का नतीजा यह हुआ कि पार्टी ने सीधे-सीधे चुनाव न ल़डने का फैसला कर लिया.
लेकिन इन सब के बीच इन सवालों पर भी विचार करना होगा कि क्या स्थानीय कार्यकर्ता या लीडर किसी पार्टी से सिर्फ समाजसेवा के लिए ज़ुडते हैं. क्या वो चुनाव ल़ड कर मुख्य धारा की राजनीति में शामिल नहीं होना चाहते? जाहिर है, राजनीतिक दल से जु़डे हरेक आदमी की इच्छा चुनाव ल़डने की होती है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है. लेकिन यह दुख की बात है कि पार्टी ने चुनाव न ल़डने का फैसला करके न सिर्फ अपने राजनीतिक विकास के पहिए को थाम दिया बल्कि स्थानीय कर्यकर्ताओं को भी निराश कर दिया है. इसका असर, जाहिर तौर पर, आम आदमी पार्टी के लिए सकारात्मक तो नहीं ही माना जा सकता है.

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