वर्ष 1998, 10 फरवरी का दिन था. पुरुलिया के अकरबाइद निवासी बूधन सबर पत्नी श्यामली के साथ अपने मामा श्वसुर के घर जा रहे थे. रास्ते में पान ख़रीदने के लिए वे दोनों एक दुकान पर रुके. उसी समय स्थानीय बड़ाबाज़ार थाने के कांस्टेबल अशोक राय ने बूधन को पक़ड लिया और मोटरसाइकिल पर बैठाकर थाने ले गया.

11 नवंबर, 2009 को पश्चिम बंगाल के झा़डग्राम में लगभग तीन हजार आदिवासियों ने अनुमंडल कार्यालय का घेराव किया. प्रशासन ने कहा कि पुलिस अत्याचार के ख़िला़फ बनी समिति के लोगों ने वहां पर अचानक हमला कर दिया और पुलिस को मजबूरन लाठीचार्ज करना प़डा. हालांकि आदिवासी राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाने के मामले में गिरफ़्तार किए गए लोगों की रिहाई की मांग कर रहे थे. लाठीचार्ज में दर्ज़नों लोग घायल हुए, जिनमें महिलाओं की संख्या ज्यादा थी. इसके विरोध में समिति ने 12 नवंबर से 72 घंटे के बंद का भी पालन किया.
पिछले साल भी नवंबर का ही महीना था, जब पुलिस ने मुख्यमंत्री के क़ा़फिले के पास हुए विस्फोट के बाद दो स्कूली छात्रों सहित कई निर्दोष लोगों को गिरफ़्तार किया और उन पर ज़ुल्म ढाया था. इसीलिए छत्रधर महतो को पुलिस अत्याचार के ख़िला़फ जन समिति के गठन के लिए मजबूर होना पड़ा. हम देख सकते हैं कि यह चिंगारी आज कितने भयानक लावे का रूप ले चुकी है. प्रशासन की धारणा बन गई है कि जंगल में रहने वाला हर आदिवासी माओवादियों का साथ दे रहा है. इसी चश्मे से प्रशासन को दिखा कि 11 नवंबर को झाड़ग्राम के आदिवासी हिंसा फेलाने आए थे. उन्हें एक तरह से हिंसक मान लिया गया है. पुलिस अत्याचार के सैकड़ों उदाहरण हैं.
वर्ष 1998, 10 फरवरी का दिन था. पुरुलिया के अकरबाइद निवासी बूधन सबर पत्नी श्यामली के साथ अपने मामा श्वसुर के घर जा रहे थे. रास्ते में पान ख़रीदने के लिए वे दोनों एक दुकान पर रुके. उसी समय स्थानीय बड़ाबाज़ार थाने के कांस्टेबल अशोक राय ने बूधन को पक़ड लिया और मोटरसाइकिल पर बैठाकर थाने ले गया. यही नहीं, पुरुलिया में हुई दो बस डकैतियों के सिलसिले में पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया. कई दिनों बाद पुलिस उसे उसके घर की तलाशी के लिए लाई, जहां पुलिस ने दो पैंट पीस और एक कंबल बरामद किया. तलाशी के बाद पुलिस उसे साथ ले गई. ठीक सात दिनों बाद यानी 17 फरवरी 1998 को बूधन पुलिस लॉकअप में मर गया. पुलिस ने कहानी बनाई कि बूधन ने गले में गमछे का फंदा लगाकर आत्महत्या की है. हालांकि पुलिस अदालत में इसे प्रमाणित नहीं कर पाई, क्योंकि गमछा नया था. गिरफ़्तारी के समय पुलिस ने उसके घर से जो सामान बरामद किया था, उसकी सूची अदालत में पेश की गई थी, उसमें गमछा भी था. अदालत में भी यह बात प्रमाणित हो गई. दरअसल, बूधन सबर जनजाति का था, जिसे कभी क्रिमिनल ट्राइब के नाम से पुकारा जाता था.
एक उदाहरण छत्तीसगढ़ का लें. छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर सरकार, पुलिस व प्रशासन के अत्याचार की कहानियां भी कम नहीं हैं. यहां तक कि बीमार आदिवासियों की सेवा करने वाले मानवाधिकारवादी डॉ. विनायक सेन भी पुलिस उत्पी़डन से बच नहीं पाए.  वर्ष 2006 में बीजापुर ज़िले के पोट्टूनूर गांव की 20 वर्षीय कूंबली, लीनगिरि गांव की 20 वर्षीय गंताल, दांतेवाड़ा ज़िले के भंडारपादार गांव की नाबालिग माधवी एवं 20 वर्षीय मकदम और सामसेटी गांव की मिदियम एवं सोदी आदि युवतियों के साथ सलवा जुडुम दल के सदस्यों ने बलात्कार किया था. लीनगिरि की एक संथाल महिला के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी गई. उक्त सारे मामले अदालत में विचाराधीन हैं.
यह सब इसी आज़ाद भारत में हुआ है और हो रहा है. ब्रिटिश राज में तो अंग्रेजों ने इन्हें अपराधी जाति ही करार दिया था. इधर हिंदू भी इन्हें हेय नज़र से ही देखते थे. 1947 में आज़ादी मिलने के साथ ही जब पाकिस्तान बना तो हिंदुओं की ऩफरत आदिवासियों से हटकर मुसलमानों पर केंद्रित हो गई. ज़्यादातर हिंदुओं ने एक अलग संस्कृति वाले समुदाय के रूप में आदिवासियों को कभी स्वीकृति नहीं दी. छोटे-छोटे समुदायों में बंटे इन आदिवासियों के प्रति सवर्ण हिंदुओं की धारणा नकारात्मक कैसे और कब बनी, यह देखने की ज़रूरत है.
जब अंग्रेज भारत में आकर जम गए तो उन्होंने अपनी सुविधा के लिए कुछ ख़ास क़ानून बनाए. 1871 में ऐसे जो क़ानून बने, उनमें से एक था क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट. 12 अक्टूबर 1871 को बने इस क़ानून के तहत भारत की 150 जनजातियों को अपराधी जनजाति घोषित किया गया. 1865 के बाद भारत के वन क्षेत्रों को संरक्षित करने की प्रक्रिया शुरू हुई और वर्ष 1871 से 1900 के बीच भारत के ज़्यादातर वन संरक्षित घोषित कर दिए गए. इसके साथ ही आदिवासियों से वनों पर उनके प्राकृतिक अधिकारों को छीनने की प्रक्रिया शुरू हुई. जैसे ओडिशा के कंधमाल अंचल के जनशून्य हिस्से को छोड़कर 1600 वर्ग मील के उस इलाक़े को संरक्षित घोषित किया गया, जिसमें शबर आदिवासी रहते थे.
साम्राज्यवादी शासकों की ओर से आदिवासी जनजातियों को अपराधी मानने का रिवाज 19वीं सदी के प्रारंभ से ही शुरू हो गया था. शासकों को भी मालूम था कि सवर्ण हिंदू आदिवासियों एवं अनुसूचित जाति के लोगों को हेय, निकृष्ट और अपराधी मानते हैं. समझा जा सकता है कि शासकों को इन आदिवासियों को और शोषित करने तथा उन्हें सीमांत पर ठेलने में कोई विशेष बाधा नहीं दिखी. 1839 में लेफ्टीनेंट सी.ई. मिल्स ने एक बाउरी आदिवासी से पूछताछ के बाद अपने नोट में लिखा था कि बाउरी जाति के आदिवासी भारत के सबसे ख़तरनाक अपराधी प्रवृत्ति वाले समुदाय से हैं. एक अन्य आदिवासी जनजाति रोमेसिस को बांबे प्रेसिडेंसी गजट में अपराधी समुदाय का बताया गया. अंग्रेजों के दस्तावेजों में इस तरह के हज़ारों उदाहरण भरे पड़े हैं.
19वीं सदी के औपनिवेशिक भारत में ज़मींदारों एवं भू-स्वामियों का एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ, जो अंग्रेज शासकों के जैसे-जैसे क़रीब हो रहा था, वैसे-वैसे उसमें ज़्यादा सुख-सुविधाएं उपभोग करने की अदम्य लालसा बढ़ती जा रही थी. निष्कंटक शासन के लिए अंग्रेज चाहते थे कि इस कुलीन वर्ग को हमेशा आदिवासियों के ख़िला़फ खड़ा रखा जाए. जहां तक दबदबे का सवाल था, अंग्रेजों के लिए शहरी भारतीयों पर नियंत्रण रखना आदिवासियों की तुलना में ज़्यादा आसान था. देश का क़ानून पूरी तरह मानने की आदत इस आज़ादी पसंद समुदाय में बहुत कम थी और यह समुदाय अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह शासक वर्ग पर निर्भर नहीं था. इस तरह अंग्रेज शासकों के लिए 150 जनजातियों की पीठ पर अपराधी होने का ठप्पा लगाना का़फी आसान था. हालांकि आंकड़े बता रहे थे कि जितने अपराध शहरों में हो रहे थे, उतने आदिवासी बहुल इलाक़ों मे नहीं होते थे. हक़ीक़त में शहरों में आदिवासियों की आबादी एक प्रतिशत से भी कम होती थी. जन्म से ही अपराधी होने की बदनामी को इसी तरह धीरे-धीरे मज़बूत आधार दिया गया.
आदिवासियों की आपराधिक मानसिकता को वैज्ञानिक आधार देने के लिए छानबीन हेतु अंग्रेजों ने इटली के डॉक्टर सिजर लोमब्रोसो के नेतृत्व में एक टीम गठित की. आदिवासी समुदाय के एक कुख्यात अपराधी के माथे की रूसी की परीक्षा कर इस चिकित्सक दल ने एक भयंकर निष्कर्ष निकाला कि आदिवासी जन्म से ही अपराधी मनोवृत्ति के हैं. इस नकारात्मक निष्कर्ष को धीरे-धीरे ऐसा प्रचारित किया गया कि पूरा आदिवासी समुदाय बदनाम हो गया. आदिवासियों  पर का़फी लेखन कर चुकीं बांग्ला लेखिका अहिल्या बसुगुप्त ने बताया कि अवधारणा यह बनी कि डकैती रोकने के लिए केवल एक डकैत को सजा देने से काम नहीं होगा, बल्कि उसके पूरे परिवार, यहां तक कि पूरे समुदाय को दंडित करना होगा या सुधारना होगा.
क़ानून बनाते समय भी जो तथ्य पेश किए गए थे, उन्हें देखने पर प्रमाणित हो जाता है कि अंग्रेजों के अत्याचार की मिसालें गिनाना संभव नहीं है. आज के सबसे क्रूर क़ानून टाडा में भी किसी एक समुदाय को अपराधी करार देने का कोई प्रावधान नहीं है. इस तरह 1871 के इस क़ानून के पारित होने के बाद 1911 में इसमें संशोधन हुआ. इसमें कहा गया कि स्थानीय सरकार को यह रिपोर्ट करनी होगी कि कौन सी जनजाति अपराधी प्रवृत्ति की है. सरकार को यदि लगता है कि किसी जनजाति में अपराध करने का नशा है तो उसे अपराधी जनजाति घोषित कर दिया जाए. उन दिनों नशे के तौर पर अपराध करने वाले इन समुदायों के ख़िला़फ कार्रवाई के लिए सरकारी अ़फसरों को असीम अधिकार दिए गए थे और सुधार के लिए अलग-अलग जगहों पर बस्तियां बसाई गई थीं. उनकी संतानों को उनसे अलग कर किसी दूसरी बस्ती में रखा जाता था.
सरकार इन अभागे आदिवासियों को सुधारने के प्रति इतनी गंभीर व जागरूक थी कि उसने इनके लिए अलग बस्तियां बसाईं. इनके बच्चे अपराधी न बन जाएं, इसलिए उन्हें मां-बाप से अलग किया गया. यह भी प्रावधान था कि इस समुदाय के लोग जब क़ानून का उल्लंघन करें तो क्या सजा दी जाए. पहली बार क़ानून तोड़ने के लिए एक साल का सश्रम कारावास था. दूसरी बार के लिए दो साल की जेल और तीसरी बार या उससे भी ज़्यादा के लिए तीन साल के सश्रम कारावास की सजा थी. सरकारी नियम के बाहर अपराध करने पर सात साल कारावास की सजा थी और इस तरह का अपराध तीन बार करने पर देश निकाला देने का प्रावधान था. वर्ष 1871 के बाद एक और उल्लेखनीय घटना यह हुई कि अंग्रेज शासकों एवं मिशनरियों के संचालकों ने सुधार के नाम पर दया दिखाने का नाटक किया, ताकि इन आदिवासियों का चुपचाप धर्म परिवर्तन किया जा सके. यह सिलसिला आज भी चल रहा है, जिसका नतीजा कंधमाल हिंसा के रूप में हम देख सकते हैं.
आदिवासियों को सुधारने के लिए बनीं अलग बस्तियों को एकाग्रता शिविर कहा जाता था. अगर कोई आदिवासी जेल जाता था तो उसे सजा काटकर घर वापस आना नसीब होता था, पर एक बार इस सुधार बस्ती में आने के बाद यहां से वापसी संभव नहीं होती थी. बाक़ी जीवन इन्हें अंग्रेज शासित किसी दूसरे देश में भेज दिया जाता था. इसके अलावा इन्हें कोई ज़मींदार बेगार के लिए अपने यहां रख लेता था.
आंध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले की एक बस्ती में रखे गए येकुला जनजाति के लोगों के संबंध में लेखिका मीना राधाकृष्ण ने एक सरकारी दस्तावेज़ के हवाले से लिखा है कि वर्ष 1925 में इंडियन लीफ टोबैको कंपनी ने अपने कारखाने के लिए 50 फीसदी श्रमिकों का इंतज़ाम इसी बस्ती से किया था. कारखाने के मैनेजर से क़ानून में ढिलाई देने के लिए कहा गया था, ताकि इन लोगों को श्रमिक के रूप में लगाया जा सके. तर्क दिया गया था कि इन श्रमिकों को लेने से काम ज़्यादा होगा और इनमें अपराध की भावना भी धीरे-धीरे कम हो जाएगी.
वर्ष 1871 के क़ानून में किसी ख़ास समुदाय के किसी भी व्यक्ति को स़िर्फ इसलिए अपराधी मान लिया जाता था कि वह उस समुदाय का था. इसके लिए किसी साक्ष्य या प्रमाण की ज़रूरत नहीं थी. वर्ष 1902-03 में 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के संबंध में एक नई अवधारणा का सूत्रपात हुआ. इस क़ानून की ख़ामियों एवं इसके प्रयोग के संबंध में सरकार ने एक पुलिस कमीशन गठित किया. कमीशन ने 1911 में 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट में संशोधन कर क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1911 बनाने को मजबूर किया. इस कमीशन ने
ट्राइब्स शब्द को नए रूप में परिभाषित किया, जिसका मतलब गिरोह या अंग्रेजी के गैंग के रूप में लिया गया. आयोग ने बताया कि इस आदिवासी समूह में जिन जनजातियों को शामिल किया गया है, वह तार्किक नहीं है, इसलिए इसे एक नया नाम देना ज़रूरी है. आयोग की स़िफारिश पर ही 1911 में एक नया क़ानून बनाया गया और तीन आदिवासी समुदायों को कथित रूप से अपराधी घोषित करने की जगह एक तार्किक मनोभाव अपनाया गया. जैसे इसमें यह भी कहा गया कि एक ख़ास जाति के लोग जो पहले अपराधी प्रवृत्ति के थे, अब सुधर गए हैं. इसमें यह भी कहा गया कि कई जातियां खेती के काम में पूरी तरह लग गई हैं.
कहा गया कि कुछ जनजातियां स्थायी रूप से एक जगह तो रहती हैं, पर दूर के इलाक़ों में जाकर अपराध को अंजाम देती हैं. तीसरे ख़ेमे में हैं यायावर आदिवासी, जो अभी भी अपराध में शामिल हैं, क्योंकि वे अपराध करने के बाद दूसरी जगह चले जाते हैं और कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहते. 1911 के संशोधन के बाद इस क़ानून और इसके फलितार्थ को देखते हुए आदिवासियों के प्रति एक नई सोच पैदा हुई. इसी का परिणाम था कि 1919 में इसे लेकर एक नए आयोग का गठन हुआ. आयोग ने कहा कि जेल जैसी होने के बावजूद  आदिवासियों को सुधारने वाली बस्तियों का मक़सद इन लोगों से अपराध की भावना को दूर करना ही था. इस आयोग की स़िफारिश के बाद 1911 के क़ानून में भी संशोधन किया गया और क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1924 बनाया गया. 1924 के क़ानून के बाद आदिवासियों के प्रति शासकों के नज़रिए में थोड़ी नरमी आई.
वर्ष 1936 में जवाहरलाल नेहरू ने नेल्लोर में दिए गए अपने भाषण में कहा था, आम नागरिकों की स्वाधीनता का हनन करने वाले क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट की धाराओं को देखा है मैंने ….. क़ानून की किताब से इस पूरे क़ानून को हटाने के लिए हमें सचेष्ट होना चाहिए. किसी एक जाति या समुदाय को कभी भी अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता. यह नीति समग्र सभ्य समाज के लिए असंगत है.
मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम वी सुब्बाराव ने 1938 में कहा था कि हमारे क़ानून की किताब को कलुषित करने वाला एक ही क़ानून है और वह है क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, जो प्रगतिशील भारत के विवेकबोध व नीतिबोध को आहत करता है. 1939 में तिरुनलवेली में क्रिमिनल ट्राइब्स कांफ्रेंस का आयोजन हुआ. इस समारोह में इस क़ानून को ख़त्म करने की मांग की गई.
15 अगस्त 1947 को दो जातियों के आधार पर भारत का विभाजन हो गया और दो स्वतंत्र देश अस्तित्व में आए. प्रादेशिक सरकारें भारत सरकार के अधीन आईं. उस समय प्रशासन को यह महसूस हुआ कि अब क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट को बरक़रार रखने का कोई औचित्य नहीं है. इस तरह मद्रास सरकार ने वर्ष 1948 में इस क़ानून को रद्द कर दिया. इसी साल जनजातियों की जेल के रूप में बसाई गईं छह बस्तियों में से दो को रद्द कर दिया गया. बंबई सरकार ने तो शुरू से ही इस क़ानून को शिथिल रखा था. उसने भी कई जातियों पर से अपराधी होने का कलंक धो दिया.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here