2001की जनसंख्या के अनुसार, भारत में लगभग 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक (सरकारी मान्यता प्राप्त) हैं, जिनमें मुसलमान 13.4 प्रतिशत, ईसाई 2.3 प्रतिशत, सिख 1.9 प्रतिशत, बौद्ध 0.8 प्रतिशत, जैन 0.4 प्रतिशत एवं पारसी .006 प्रतिशत हैं. इस लिहाज़ से मुसलमान देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं, लेकिन विकास की दौड़ में सबसे पीछे हैं. यह बात सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से भी साबित होती है, जिसकी रोशनी में विभिन्न सरकारी योजनाएं बनाई गईं, लेकिन नतीजे अभी भी निराशाजनक हैं. प्रश्न उठता है कि यह निराशाजनक स्थिति है क्या? इसके लिए असल ज़िम्मेदार कौन है? हाल में अपना कार्यकाल समाप्त कर चुकी 15वीं लोकसभा के दौरान राष्ट्र के 543 संसदीय क्षेत्रों में से क़ाबिले ज़िक्र मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में विकास के काम क्या-क्या हुए एवं कितनी धनराशि किस सांसद द्वारा इस्तेमाल नहीं हो पाई? मुस्लिम सांसद संसद सत्र के दौरान कितने सक्रिय रहे और उन्होंने सदन में कितने मुद्दे उठाए?
ज़ाहिर है कि इस पूरे मामले में नौकरशाहों के साथ-साथ सांसद सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं. सरकारी वेबसाइट्स के आंकड़े बताते हैं कि 15वीं लोकसभा के दौरान क़ाबिले ज़िक्र मुस्लिम आबादी वाले लोकसभा क्षेत्रों में 13 फरवरी, 2014 तक विभिन्न सांसदों के 292.97 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं किए जा सके. इन क्षेत्रों के कांग्रेसी सांसदों द्वारा इस्तेमाल नहीं की गई धनराशि 93 करोड़ रुपये रही, जबकि भाजपा सांंसद के पास 79 करोड़ रुपये. स्मरण रहे कि सांसद निधि को इस्तेमाल न करने के मामले में दरभंगा (बिहार) के भाजपा सांसद कीर्ति आज़ाद पहले नंबर पर हैं. उन्होंने अपनी निधि के 7.43 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं किए, जो उन्हें मिली धनराशि का लगभग 60 प्रतिशत है. दूसरे एवं तीसरे नंबर पर हैं राजमहल (झारखंड) से भाजपा सांसद देवीधन बेश्रा और धुबड़ी (असम) से असम डेमोक्रेटिक फ्रंट के सांसद मौलाना बदरूद्दीन अजमल क़ासमी, जिनके पास अभी भी 50 प्रतिशत से अधिक फंड पड़ा हुआ है.
स्मरण रहे कि क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए प्रत्येक सांसद को मेंबर्स ऑफ पार्लियामेंट लोकल एरिया डेवलपमेंट (एमपीएलएडी) के अंतर्गत मिला फंंड सांसद निधि कहलाता है. 20 से 95 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या वाले क्षेत्र दरभंगा में भाजपा सांसद कीर्ति आज़ाद द्वारा सांसद निधि का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा इस्तेमाल न करके सूची में सबसे ऊपर होना आश्चर्यजनक है, क्योंकि दरभंगा वही क्षेत्र है, जहां राजद के पूर्व सांसद एवं पूर्व मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री मुहम्मद अली अशरफ़ फ़ातमी ने अपनी सांसद निधि के ज़्यादातर पैसों का इस्तेमाल करके रिकॉर्ड कायम किया था. उनसे पूर्व 1971 में कांग्रेस के स्वर्गीय ललित नारायण मिश्र ने भी यहां से निर्वाचित होकर इस क्षेत्र को विकास की दौड़ में शामिल किया था. दरभंगा की जनता को आशा थी कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त क्रिकेट खिलाड़ी कीर्ति आज़ाद के सांसद बनने से क्षेत्र और अधिक विकास करेगा, लेकिन उसे निराशा मिली. इसी तरह धुबड़ी से एयूडीएफ के मौलाना बदरूद्दीन अजमल क़ासमी द्वारा 56.8 प्रतिशत धनराशि का इस्तेमाल न करना भी बहुत निराशाजनक है. मौलाना क़ासमी एयूडीएफ के इकलौते सांसद हैं और उनकी पार्टी के 18 सदस्य असम विधानसभा में भी मौजूद हैं. धुबड़ी जैसे पिछड़े क्षेत्र की जनता ने भरोसा करके उन्हें लोकसभा भेजा था, लेकिन मायूसी ही उसके हाथ लगी. क़ासमी अपनी सांसद निधि का 50 फ़ीसद हिस्सा इस्तेमाल नहीं कर पाए और न संसद में क्षेत्र के विकास के लिए कोई आवाज़ उठा सके.
इस मामले में भाजपा एवं कांग्रेस, दोनों के सदस्यों की स्थिति सोचनीय है. इन 70 से अधिक मुस्लिम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में प्रतिनिधि भाजपा या कांग्रेस से संबंध रखते हैं. इन क्षेत्रों में भाजपा के सदस्य कुल 28.5 प्रतिशत और कांग्रेस के सदस्य 24.8 प्रतिशत फंड इस्तेमाल नहीं कर सके, जबकि मौलाना क़ासमी (एयूडीएफ) द्वारा इस्तेमाल नहीं की गई धनराशि सांसद निधि का 56.8 प्रतिशत है. यही स्थिति कमोबेश दो स्वतंत्र सांसदों की है. जयनगर (पश्चिमी बंगाल) के सांसद तरुण मंडल 40 प्रतिशत और लद्दाख के सांसद हसन खान 30 प्रतिशत धनराशि इस्तेमाल नहीं कर पाए. वैसे यह बात भी कम चौंकाने वाली नहीं है कि मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र गोड्डा (झारखंड) के भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने 90 प्रतिशत से अधिक धनराशि का इस्तेमाल करके रिकॉर्ड बनाया है. अपनी-अपनी सांसद निधि का ठीक से इस्तेमाल करने वाले सांसदों में संभल (उत्तर प्रदेश) से बहुजन समाज पार्टी के शफीकुर्रहमान बर्क, हैदराबाद से ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लेमीन के असदुद्दीन ओवैसी, दिल्ली उत्तर-पूर्व से कांग्रेस के जयप्रकाश अग्रवाल और ़कैसरगंज (उत्तर प्रदेश) से समाजवादी पार्टी के बृजभूषण शरण सिंह के नाम शामिल हैं. अब आइए देखते हैं कि 15वीं लोकसभा में विभिन्न पार्टियों के प्रतिनिधि क्या करते रहे? उनकी इसके विभिन्न सत्रों में उपस्थिति क्या रही? उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों की समस्याओं के अलावा मुस्लिम अल्पसंख्यकों के मुद्दे कितने और किस तरह उठाए? 15वीं लोकसभा में कुल 30 मुस्लिम सांसद थे, जो उस सदन में निश्चय ही चर्चा के पात्र नहीं हैं, जहां 1980 में 49 सांसद निर्वाचित होकर पहुंचे हों. आंकड़े बताते हैं कि विभिन्न मुस्लिम प्रतिनिधियों में बहुजन समाज पार्टी के शफीकुर्रहमान ब़र्क 15वीं लोकसभा में 350 दिनों में 344 दिन उपस्थित होकर सूची में सबसे ऊपर रहे, जबकि ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लेमीन के असदुद्दीन ओवैसी ने 1046 प्रश्न उठाकर रिकॉर्ड बनाया. इसी प्रकार मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद सईदुल हक़ ने 95 और कांग्रेस सांसद एवं विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने 60 बहसों में भाग लेकर सुर्खियां हासिल कीं. वहीं खीरी (उत्तर प्रदेश) से कांग्रेस के सांसद ज़फ़र अली नकवी ने 280 दिन, बहुजन समाज पार्टी की कैराना (उत्तर प्रदेश) से सांसद बेगम तबस्सुम हसन ने 252 दिन, बहुजन समाज पार्टी के सांसद क़ादिर राणा ने 202 दिन, कांग्रेस के इस्माइल हुसैन ने 329 और कांग्रेस के अब्दुल मन्नान हुसैन ने 212 दिन उपस्थित रहकर भी किसी बहस में हिस्सा नहीं लिया. क़ाबिले जिक्र है कि लक्ष्यद्वीप के कांग्रेस सांसद मुहम्मद हमदुल्लाह सईद को छोड़कर किसी ने भी प्रधानमंत्री से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की. उन्होंने प्रधानमंत्री से 2 प्रश्न पूछे. भाजपा के इकलौते मुस्लिम सांसद सैयद शाहनवाज हुसैन ने 642 प्रश्न पूछे, लेकिन उनमें से मात्र 3 प्रश्न (0.5 प्रतिशत से भी कम) अल्पसंख्यकों की समस्याओं से संबंधित थे. श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) से नेशनल कांफ्रेंस के सांसद एवं केंद्रीय मंत्री डॉ. फारु़क अब्दुल्ला स़िर्फ एक प्रश्न उठा पाए. इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सर्वेसर्वा, मल्लपूरम (केरल) से सांसद एवं केंद्रीय राज्यमंत्री ई अहमद अपनी सांसद निधि के 3.09 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं कर सके और संसद में एक भी प्रश्न नहीं उठा पाए. किशनगंज (बिहार) से कांग्रेस के सांसद एवं ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के उपाध्यक्ष मौलाना असरारुल हक़ क़ासमी 331 दिन उपस्थित रहे और उन्होंने 56 प्रश्न भी पूछे, लेकिन अपनी सांसद निधि के 3.20 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं कर सके.
15वीं लोकसभा से संबंधित यह विवरण निश्चय ही निराशाजनक है. सवाल पैदा होता है कि धर्म एवं संप्रदाय से ऊपर उठकर क्या ये सांसद अपने-अपने क्षेत्र में कामकाज की बुनियाद पर प्रतिनिधित्व के योग्य हैं? क्या इलाकाई जनता 16वीं लोकसभा के लिए उन्हें एक बार फिर चुनेगी? दरअसल, मतदाता अब जाग उठे हैं और अपने प्रतिनिधियों से जवाब-तलब कर रहे हैं. विभिन्न संसदीय क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के लिए यह रिपोर्ट कार्ड ख़तरे की घंटी है और जो राजनीतिक पार्टियां उन्हें टिकट देती हैं, उनके लिए भी यह सोचने की बात है. ऐसे में स्वतंत्र उम्मीदवारों की ज़िम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती हैं, इसलिए उन्हें आगे बढ़ना चाहिए, क्षेत्र में अपने विकास कार्यों की बुनियाद पर जनता की आवाज़ बनना चाहिए और उनके प्रतिनिधि भी. इसी में सबकी भलाई है.
15वीं लोकसभा फिर खाली हाथ रह गए अल्पसंख्यक
Adv from Sponsors