इस कहानी को प़ढने की जरूरत नहीं है. सिर्फ तस्वीर देखिए. एक-एक तस्वीर हजार शब्दों की कहानी को खुद में समेटे हुए है. इन तस्वीरों को देखने के बाद अगर आपकी आत्मा आपको नहीं झकझोरती, तो दो मिनट के लिए रुकिए. इसकी जांच कीजिए कि आपका ज़मीर अभी जिन्दा है भी या नहीं. ये तस्वीरें हमारे समाज का ही एक सच हैं. हमारे लिए एक चेतावनी भी. हम आज न चेते, तो ये सिस्टम कल हमें भी नग्न होने पर मजबूर कर सकता है. अपने साथ हुए अन्याय के ़िखलाफ आ़िखर हम कर भी क्या सकते हैं? सीएम, पीएम, डीएम से शिकायत कर सकते हैं. गुहार लगा सकते हैं. देश की अदालत स्वत: संज्ञान ले सकती है. लेकिन फिर भी न्याय न मिले, हक न मिले, तो फिर क्या करेंगे? बन्दूक उठाएंगे तो नक्सली कहलाएंगे. कानून की नज़र में कसूरवार ठहराए जाएंगे. तो फिर रास्ता क्या बचता है? झारखंड के घटवार आदिवासियों ने खुद को नग्न कर विरोध जताने का तरीका शायद इसीलिए चुना कि कम से कम इससे भी उनकी आंखों से कुछ तो शर्म टपके, जिनकी बेशर्मी और बेहयाई ने इनकी जिन्दगी को जीते-जी खत्म कर दिया है. पढ़िए, चौथी दुनिया की खास रिपोर्ट:
अपनी जमीन से उज़डने का दर्द क्या होता है, ये देखना और महसूस करना हो तो एक बार झारखंड के धनबाद चले जाइए. सिर्फ झारखंड ही क्यों, आप इसके साथ ही जामतारा और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और वर्द्धमान जिले के करीब 250 गांवों के हजारों विस्थापित परिवारों से भी मिल आइए, जो 50 साल बाद भी अपने हक के लिए ल़ड रहे हैं. स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि अब उन्होंने खुद को नंगा कर लिया है, ताकि सरकार और दामोदर घाटी कॉरपोरेशन (डीवीसी) के अधिकारियों की आंखों में शर्म आए.
लेकिन उनकी आंखों में शर्म बची ही होती, तो फिर इन गरीब आदिवासियों को खुद को नंगा करने की जरूरत ही क्यों पड़ती? अगर उनकी आंखों में शर्म होती, तो अपने पूर्वजों की जमीन से उजड़ने के 50 साल बाद भी इन गरीबों को दर-दर की ठोकरे क्यों खानी पड़ती? केन्द्र से ले कर झारखंड तक में सबका साथ-सबका विकास की बात करने वाली सरकार अभी सत्ता में है. फिर भी, इनको शर्म नहीं आती.
सवाल सिर्फ एक सरकार का भी नहीं है. दामोदर घाटी कॉरपोरेशन की स्थापना प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समय हुई थी. तब ऐसे प्रोजेक्ट को आधुनिक भारत का मंदिर कहा गया था. आखिर ये कैसा मंदिर था, जिसने अपने ही लोगों को अपनी ही जमीन से उजाड़ दिया और आज 50 साल बाद नंगा होने पर मजबूर कर दिया? आजादी के बाद 1953 में दामोदर घाटी कॉरपोरेशन की शुरुआत हुई. सिंचाई के साधन बढ़ाने और बिजली परियोजना के लिए इस परियोजना को लाया गया था.
जनहित के लिए लाई जा रही इस परियोजना के लिए झारखण्ड के धनबाद, जामतारा और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और वर्धमान जिलों के लगभग 41 हज़ार एकड़ ज़मीन के साथ ही चार हजार से ज्यादा घरों का अधिग्रहण किया गया. इतने बड़े पैमाने पर हुए अधिग्रहण से करीब 70 हज़ार लोग प्रभावित हुए. ये लोग अपनी जमीन से उजड़ गए. जिन लोगों की जमीन इस परियोजना के लिए ली गई, आज उनकी तीसरी पीढ़ी न्याय पाने के लिए संघर्ष कर रही है.
परियोजना के लिए ली गई जमीन के बदले इन लोगों को दामोदर घाटी कॉरपोरेशन की तरफ से मुआवजा और नौकरी मिलनी थी. जाहिर है, ऐसा नहीं हुआ और इस वजह से विस्थापित परिवारों की तीसरी पीढ़ी आज नौकरी और न्याय पाने के लिए जंग लड़ रही है. मुआवजे के नाम पर दामोदर घाटी कॉरपोरेशन ने साल 1976 तक महज 350 लोगों को जमीन के साथ-साथ नौकरी दी.
कुछ परिवारों को मुआवजा मिला. लेकिन नियम के मुताबिक हर परिवार को जमीन के साथ-साथ मुआवजा और एक सदस्य को रोजगार मिलना चाहिए था. जिन परिवारों को आज तक रोजगार नहीं मिला, उनमें से अधिकतर घटवार आदिवासी समुदाय से आते हैं. ऐसा ही एक परिवार है, कन्हाई मांझी का. कन्हाई मांझी की 46 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित की गई थी. आज तक उन्हें मुआवजा नहीं मिला.
यहां एक और पेंच है. डीवीसी पर ये आरोप है कि इसने नौकरी देने के नाम पर एक बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा किया है. चौथी दुनिया से बात करते हुए घटवार आदिवासी महासभा के रामाश्रय सिंह बताते हैं कि डीवीसी ने विस्थापितों के साथ अन्याय तो किया ही, लेकिन इससे भी बड़ा कारनामा ये किया कि इसने हजारों (वे ये संख्या 9 हजार बताते हैं) अन्य लोगों को फर्जी विस्थापित बता कर नौकरी दे दी और जो नौकरी के असली हकदार हैं, वास्तव में जिनकी जमीन इस परियोजना में गई है, उन्हें आज तक नौकरी नहीं मिली है. ये हालत सैकड़ों परिवारों की है. रामाश्रय सिंह बताते हैं कि नौकरी और मुआवजे के नाम पर अब तक कई घोटाले किए जा चुके हैं. वे कहते हैं कि गैर विस्थापित लोगों ने नौकरियां और ज़मीन हासिल कर ली. रामाश्रय सिंह के मुताबिक, अवैध तरीके से नौकरी पाए 11 लोगों को बर्खास्त करने का आदेश भी न्यायालय ने दिया है.
विस्थापित लोगों ने अपने हक के लिए साल 2006 में घटवार आदिवासी महासभा का गठन किया और इसके बैनर तले आंदोलन शुरू किया. इन लोगों ने भूख हड़ताल और सत्याग्रह भी किए. जामताड़ा जिला मुख्यालय के सामने कई बार आन्दोलन किए. मैथन बांध से प्रभावित लोगों ने भी आधा दर्जन बार भूख हड़ताल किया. साल 2010 में तकरीबन 20 हजार लोगों ने रैली निकाली.
पंचेत बांध के लोग भी भूख हड़ताल पर बैठे. गिरिडीह में रेल चक्का जाम किया. साल 2010 में पुरुलिया जिले की परियोजना से प्रभावित लोगों ने होली के दिन भूख हड़ताल किया. यानी, पिछले 10 सालों से ये लोग अपने अधिकार को पाने के लिए सतत संघर्ष करते आ रहे है. जो भी तरीका इन्हें सही लगा उसे अपनाया, लेकिन हर विरोध के बाद इन्हें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी.
घटवार आदिवासी महासभा की अगुआई रामाश्रय सिंह कर रहे हैं. वे इस मामले को मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट तक ले जा चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट में जब बात पहुंची, तो ये खुलासा हुआ कि विस्थापित आदिवासियों को धोखा दे कर अन्य दूसरे लोगों को नौकरी दे दी गई है. पिछले तीन साल के दौरान केन्द्र और झारखंड में भाजपा की सरकार है. घटवार आदिवासियों को उम्मीद थी कि नई सरकार से उन्हें न्याय मिलेगा. लेकिन इन सरकारों ने अब तक उनके लिए भी कुछ नहीं किया है.
दामोदर घाटी परियोजना केन्द्र सरकार के अधीन है. पावर मिनिस्ट्री इसके लिए नोडल मिनिस्ट्री है. रामाश्रय सिंह ने प्रधानमंत्री को कई खत लिखे और इस मामले की जानकारी देते हुए सीबीआई जांच की मांग की. लेकिन हर बार, तकरीबन 18 बार प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से झारखंड के मुख्य सचिव और ऊर्जा मंत्रालय को इस जवाब का पत्र भेजा गया कि कार्रवाई के लिए पत्र को अग्रसरित कर दिया गया है.
उसके बाद न तो झारखंड के मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री और न ही केंद्रीय ऊर्जा विभाग की तरफ से उस आदेश पर कोई कार्रवाई की जाती है. दूसरे शब्दों में कहें, तो इन अधिकारियों के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के पत्र का भी कोई महत्व नहीं है. ये कहानी प्रधानमंत्री कार्यालय की महत्ता को भी दिखाती है. रामाश्रय सिंह बताते हैं, ‘निगम के भ्रष्ट अधिकारी पुनर्वास के नाम पर हुए फर्जीवाड़े की सीबीआई जांच नहीं होने दे रहे हैं.
क्या कारण है कि डीवीसी ने आज तक उन फर्जी विस्थापितों का कोई विवरण नहीं दिया है, जिन्हें विस्थापित बता कर नौकरी और मुआवजा दिया गया. सरकारें आती रहीं, जाती रहीं पर घटवार आदिवासियों के साथ न्याय नहीं हो पाया.’ मुआवजे की बाट जोहते-जोहते तीसरी पीढ़ी आ चुकी है. लेकिन एक अच्छी बात ये है कि इन गरीबों के दिल और दिमाग से संघर्ष का जज्बा अभी तक खत्म नहीं हुआ है. वे लड़ रहे हैं और आगे भी लड़ने को तैयार हैं.
बहरहाल, सालों से चली आ रही लंबी लड़ाई के बाद घटवार आदिवासियों ने अंत में विरोध का एक ऐसा तरीका चुना, जिसे देख तो क्या, सुन कर भी इंसानियत शर्मसार हो जाए. साल 2016 के अंत में विस्थापित परिवारों ने नग्न हो कर धनबाद में प्रदर्शन करने का फैसला लिया. मर्द और औरतों ने अपने कपड़े उतार कर सरकार से इंसाफ की मांग की.
लेकिन सरकार तो सरकार, मुख्यधारा की कथित राष्ट्रीय मीडिया के लिए भी ये कोई खबर नहीं थी. शायद कथित राष्ट्रवादी और राष्ट्रीय मीडिया में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वे अपने ही समाज की एक नग्न तस्वीर को सत्ता और हुक्मरानों तक पहुंचा सकें. दिल्ली को धनबाद में नग्न हुए लोग नहीं दिखे. रांची में बैठे सत्ताधीश भी इस बदरंग तस्वीर को देख पाने की हिम्मत नहीं जुटा सके. अगर ये तस्वीर दिल्ली और रांची के सत्ताधीशों की नजर से गुजरी होती, तो शायद वे भी एक बार सोचने को मजबूर होते.
ये भी हो सकता है कि दम तोड़ती इंसानियत के इस दौर में इन लोगों ने इस तस्वीर को देख कर भी अनदेखा कर दिया हो. यही हुआ होगा. वरना एक अदद नौकरी और मुआवजे के लिए एक इंसान किसी इंसान को नंगा होने पर मजबूर तो नहीं ही कर सकता. खैर, घटवार समाज ने अभी भी हिम्मत नहीं हारी है. धनबाद के बाद उनका अगला ठिकाना दिल्ली ही है, जहां ये आदिवासी एक बार फिर नंगे बदन प्रदर्शन करने को तैयार हैं, अगर सरकारों की बेहयाई और बेशर्मी का पर्दा उनकी आंखों के आगे से जल्द नहीं हटा.
क्या है इनकी मांग
- दामोदर घाटी परियोजना से विस्थापित सभी परिवारों को ज़मीन के बदले ज़मीन और नौकरी दी जाए.
- भूमिहीन और आश्रित परिवारों को भी नौकरी और आजीविका मुहैया कराई जाए.
- दामोदर घाटी कॉरपोरेशन प्रबंधन द्वारा नौकरी के लिए पैनल बनाया जाना असंवैधानिक है, इसमें सभी विस्थापित परिवार शामिल नहीं हैं.
- जिन फर्जी विस्थापितों को नौकरी दी गई है, उन्हें नौकरी से निकाला जाए और इसके लिए दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए.
- नौकरी का अधिकार विस्थापित परिवारों की अगली पीढ़ी का भी है.
- भू-अधिग्रहण और पुनर्वास कानून 2011 के तहत सभी विस्थापितों को न्याय मिले.