क्या इस देश के सांसदों का यह काम है कि वे अमेरिकी प्रशासन को याचिका भेजें? आप अपना अवमूल्यन कर रहे हैं. आप इस देश की संसद का अवमूल्यन कर रहे हैं. मैं यह नहीं जानता कि प्रधानमंत्री इस मसले पर क्या सोचते हैं, लेकिन जैसा कि मैं पहले भी कहता रहा हूं कि प्रधानमंत्री को अब जरूर कोई कदम उठाना चाहिए. यह वह मौका है, जब वह देश के प्रधानमंत्री की तरह कोई फैसला लें.
पिछले सप्ताह दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं. हालांकि उन घटनाओं की प्रकृति एक-दूसरे से अलग हैं, लेकिन दोनों ही चिंता का कारण हैं. पहली घटना है, बिहार में मिड-डे-मील कार्यक्रम के तहत परोसे गए ख़राब भोजन के कारण 23 स्कूली बच्चों की मौत. प्रथम दृष्टतया ऐसा लगा कि यह महज एक दुर्घटना थी, जो परोसे गए भोजन में कीटनाशक मिले होने के कारण घटी, लेकिन जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ रही है, नए-नए ख़ुलासे हो रहे हैं. स्कूल प्रभारी की गिरफ्तारी के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह कहा है कि ये मौतें महज दुर्घटनावश नहीं हुई हैं. इसका मतलब, यह मामला कहीं ज़्यादा गंभीर है.
इससे जाहिर होता है कि इस कार्यक्रम में जानबूझ कर अनियमितताएं बरती जा रही हैं. कुछ लोग इन योजनाओं को लोगों की, विशेषकर बच्चों की ज़िंदगियों को ख़तरे में डाल कर पैसा बनाने का माध्यम बता रहे हैं. बिहार की इस घटना के बाद दूसरे अलग-अलग राज्यों से मिड-डे-मील कार्यक्रम को लेकर ऐसी ही घटनाओं की ख़बरों का आना यह साबित करता है कि पिछले कई वर्षों से मिड-डे-मील कार्यक्रम संगठित रूप से कुप्रबंधन का शिकार है. देश में जिस तरह से घोटालों और भ्रष्टाचार का माहौल बना हुआ है, करोड़ों की लागत से चलाया जा रहा यह मिड-डे-मील प्रोग्राम भी उसी भ्रष्टाचार का शिकार बन गया है. यहां सवाल यह उठता है कि अब इसे बेहतर बनाने के लिए क्या क़दम उठाए जा सकते हैं. क्या इसे बंद कर कोई अलग कार्यक्रम शुरू किया जाए या इसी कार्यक्रम को जारी रखते हुए भोजन न देकर सख्त विनियमन के तहत सीधा नक़द लाभ दिया जाए. इस तरह के सुझाव आ रहे हैं. बावजूद इसके, एक बात तो स्पष्ट है कि ऐसा कुछ ज़रूर होना चाहिए, जिससे यह घटना फिर से दोहराई न जा सके, क्योंकि आप तो पैसे ख़र्च कर रहे हैं, लेकिन उसका परिणाम बच्चों की मौत के रूप में सामने आ रहा है. यह निश्चित रूप से अस्वीकार्य है.
कुछ राज्यों में बेहतर आधारभूत सुविधाए हैं. सबसे पहले यह कार्यक्रम तमिलनाडु में शुरू हुआ, लेकिन कुछ राज्यों में आज भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और उन राज्यों ने बुनियादी सुविधाओं को बेहतर किए बिना इस कार्यक्रम की शुरुआत कर दी. भले ही इस कार्यक्रम के लिए केंद्र पूंजी दे रहा है, लेकिन सभी राज्य एक ही मॉडल के साथ नहीं चल सकते. यह मॉडल हर राज्य में अलग-अलग होना चाहिए, जो इस बात पर निर्भर करता है कि उस राज्य की क्षमता कितनी है और वहां का प्रशासनिक स्तर क्या है?
दूसरा मसला, जो इतना गंभीर नहीं है, लेकिन विचलित ज़रूर करता है, वह है नरेंद्र मोदी का अमेरिकी वीजा से जुड़ा मुद्दा. इस बात को लेकर दो तरह की बहस हो सकती है. कोई भी यह तर्क दे सकता है कि भारत में किसी भी राज्य के एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को अमेरिका के लिए वीजा से इंकार नहीं किया जाना चाहिए, बिल्कुल उसी तरह जैसे अमेरिका के किसी राज्य के गवर्नर से आप भले ही सहमत हों या असहमत हों, लेकिन उन्हें भारत का वीजा देने से इंकार नहीं किया जा सकता. कई वर्ष पहले भी वीजा के लिए इंकार किया गया था, तब भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और उसने कोई विरोध नहीं किया था, जबकि केंद्र सरकार इस मसले पर अमेरिका का विरोध कर सकती थी. हम भी नरेंद्र मोदी से असहमति रखते हैं, लेकिन किसी का अमेरिका जाना बहुत ही छोटा मसला है और नरेंद्र मोदी उन लोगों में शामिल भी नहीं हैं कि जो अमेरिका जा रहे हैं और वहां के प्रशासन को उनकी यात्रा को लेकर इस क़दर सजग होना पड़े कि उनको वीजा देने से ही इंकार कर दिया जाए. हालांकि असल मुद्दा यह नहीं है. इसके अलावा, दो बातें ऐसी हैं, जो परेशान करने वाली हैं.
सबसे पहली बात तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह जब अमेरिका जाते हैं और प्रेस को यह बयान देते हैं कि मैं अमेरिकी प्रशासन से यह निवेदन कर रहा हूं कि वह नरेंद्र मोदी को अमेरिका का वीजा दे. क्षमा कीजिएगा, यह कहीं से किसी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष का दायित्व नहीं है. वीजा के लिए व्यक्तिगत रूप से आवेदन किया जाना चाहिए. हां, अगर इस विषय में किसी को अमेरिकी सरकार से बात करने की ज़रूरत भी पड़ती है, तो वह भारत सरकार है, न कि किसी राजनीतिक पार्टी का अध्यक्ष. इस तरह से तो आप अमेरिकी सरकार के सामने ख़ुद को नीचा दिखा रहे हैं. दूसरी बात यह है कि 65 सांसद इस आशय की याचिका लिख रहे हैं कि कृपया वीजा का मना करना जारी रखिए. ये सांसद कौन हैं? भाजपा का विरोध करने वाले अन्य दलों के लोग? उनमें से 19 लोगों ने तो यह कह दिया कि हमने ज्ञापन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. जिन्होंने हस्ताक्षर किए हैं, क्या उन्होंने इस बारे में सोचा कि वे क्या कर रहे हैं? क्या इस देश के सांसदों का यह काम है कि वे अमेरिकी प्रशासन को याचिका भेजें? आप अपना अवमूल्यन कर रहे हैं. आप इस देश की संसद का अवमूल्यन कर रहे हैं. मैं यह नहीं जानता कि प्रधानमंत्री इस मसले पर क्या सोचते हैं, लेकिन जैसा कि मैं पहले भी कहता रहा हूं कि प्रधानमंत्री को अब ज़रूर कोई क़दम उठाना चाहिए. यह वह मौक़ा है, जब वह देश के प्रधानमंत्री की तरह कोई फैसला लें. प्रधानमंत्री को अवश्य उन सासंदों को बताना चाहिए कि यह आपका दायित्व नहीं है. आपकी भूमिका यह है कि आप संसद में बहस करें, जहां से प्राय: वे गैरहाजिर रहते हैं. वे अपना वेतन ले रहे हैं, अन्य सुविधाएं ले रहे हैं, उनके पास संसद में मौजूद रहने का समय नहीं है, लेकिन अमेरिकी प्रशासन को याचिका लिखने का समय है. निश्चित तौर पर उन्हें तर्कसंगत व्यवहार करना होगा. चुनाव नजदीक आ रहा है और जैसा कि मैं समझता हूं कि राजनीतिक पार्टियों में ग़ुस्सा है. बहुत से मसलों पर मेरा भी मतभेद है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम अपने व्यवहार को भ्रमित करें. हमें संसदीय गरीमा के अनुकूल रहना होगा, साथ ही शिष्टता व सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका को बेहतर बनाए रखना होगा, जिसके लिए हमारा देश स्वतंत्रता के समय से ही जाना जाता है. मेरा मानना है कि हमें इसे नहीं खोना चाहिए.
बिहार का मिड डे मील हो या नरेंद्र मोदी का अमेरिकी वीजा से जुड़ा मुद्दा, दोनों ही घटनाएं चिंता का कारण हैं, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अपने व्यवहार को भ्रमित करें. हमें संसदीय गरीमा के अनुकूल रहना होगा, साथ ही शिष्टता व सावर्जनिक जीवन में अपनी भूमिका को बेहतर बनाए रखना होगा, क्योंकि हमारा देश इन्हीं आदर्शों के लिए जाना जाता है. हमें इसे नहीं खोना चाहिए.
मर्यादा में रहना ज़रूरी है
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