भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर जिस तरह की कश्मकश जारी है, उससे देश की इस प्रमुख विपक्षी पार्टी की आंतरिक कमज़ोरियां जगज़ाहिर हो रही हैं, ऐसी स्थिति में जनता को आगामी लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ दलों का विकल्प तलाशने में मुश्किल पेश आ रही है. कहने को तो अपने करिश्माई व्यक्तित्व के बल पर नरेंद्र मोदी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार के रूप में सामने आ रहे हैं, लेकिन भीतरखाने कई नेताओं की निगाहें इस पद पर टिकी हुई हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आख़िर कौन लोग हैं नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़? 
PAGE-1नरेंद्र मोदी गुजरात में चुनाव लड़े, चुनाव जीते और जीतने के बाद वह अब देश के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखे जा रहे हैं. उनकी जीत का विश्‍लेषण आज करने की ज़रूरत नहीं है, ज़रूरत है स़िर्फ हल्की-सी नज़र डालने की, क्योंकि एक बार फिर वह देश की सबसे बड़ी कुर्सी के सबसे प्रबल उम्मीदवार बनकर भारतीय जनता पार्टी में उभरे हैं. दरअसल, माहौल ऐसा बना है कि भारतीय जनता पार्टी में कोई भी दूसरा प्रत्यक्ष उम्मीदवार दिख ही नहीं रहा है. हम सबसे पहले नरेंद्र मोदी की जीत की सच्चाई का विश्‍लेषण करेंगे. चुनाव से पहले उन्होंने कहा था कि मैंने जितनी सीटें जीती हैं, उससे बहुत ज़्यादा सीटें लेकर आऊंगा. चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी की छवि ऐसी बनाई गई, जैसे सिर्फ़ वही गुजरात में आख़िरी सत्य हैं और वहीं से वह देश का आख़िरी सत्य बनने का रास्ता भी तय करने वाले हैं, क्योंकि और कोई दूसरा है ही नहीं. लेकिन सच कुछ और ही है. हक़ीक़त यह है कि नरेंद्र मोदी ने जितनी सीटें आने का दावा किया था, उनकी उससे कम सीटें आईं. ऐसे में अगर नरेंद्र मोदी द्वारा स्थापित सिद्धांतों एवं तय किए हुए मानदंडों पर उन्हें मापें, तो हम देखेंगे कि वह अपनी उस माप में सफल नहीं हो पाए. ठीक वैसे ही, जैसे अगर कोई चीज सौ पैसे में आती है और आपके पास 85 पैसे हैं, तो आप वह चीज नहीं ख़रीद सकते. उसी तरह नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री पद के लिए जिन मानदंडों का इस्तेमाल करने की घोषणा कर चुके हैं, उन मानदंडों को वह नहीं पकड़ पाए, लेकिन इसके बावजूद देश के मीडिया ने पहले उन्हें गुजरात का आख़िरी सत्य बताया और अब वही मीडिया उन्हें देश का आख़िरी सत्य बताने की क़वायद में लगा हुआ है.
यूं तो नरेंद्र मोदी के लिए तीन एजेंसियां उनकी छवि बनाने का काम कर रही हैं और यह छवि बनाने की ही क़वायद थी कि अमेरिका से सांसदों का एक दल आया. उन सांसदों से यह कहा गया कि आप गुजरात चलें, नरेंद्र मोदी से मिलें और गुजरात को भी देखें. योजना यह थी कि नरेंद्र मोदी से उन्हें मिलाकर पहले उनसे उनकी तारीफ़ कराई जाए और इसकी एवज़ में उन्हें कुछ न कुछ दिया जाए. अमेरिकी अख़बारों ने ख़बर छापी कि अमेरिकी सांसद नरेंद्र मोदी से मिलने आए और उन्हें इसके लिए कई लाख डॉलर भी दिए गए. इस ख़बर में कितनी सच्चाई है, यह पता नहीं, क्योंकि हिंदुस्तान के अख़बार इस मसले में कोई भी तथ्य पता नहीं कर पाए. हैरानी की बात तो यह है कि टेलीविजनों ने पता करना ही नहीं चाहा और नरेंद्र मोदी के दफ्तर ने इस पर ख़ामोशी साध ली. हां, अमेरिकी अख़बारों ने यह ज़रूर लिखा कि नरेंद्र मोदी के मित्र, जो अमेरिका में बड़े पैसे वाले हैं और जिनका नरेंद्र मोदी के लिए लॉबी बनाने का एक घोषित सिलसिला अमेरिका में चला आ रहा है, उन लोगों ने ही इस ट्रिप का आयोजन किया था.

भारतीय जनता पार्टी के पार्लियामेंट्री बोर्ड ने उन टिकटों में कोई भी रद्दोबदल करने की हिम्मत ही नहीं की, यानी सब कुछ नरेंद्र मोदी ने अपने हिसाब से ही किया और उन्हें इसीलिए गुजरात में सफलता भी मिली. केशुभाई पटेल गुजरात की राजनीति में अप्रासंगिक हो गए, क्योंकि पटेल समुदाय ने भी उनका साथ नहीं दिया.

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए देश में एक वातावरण गुजरात के चुनाव से पहले ही बना लिया था. उन्होंने सब जगह यह संदेश भेजा कि वह ज़्यादा सीटें जीतेंगे और प्रधानमंत्री पद के लिए पहली कतार के उम्मीदवार होंगे. इसके लिए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में अपने साथियों को बुल्डोज किया, संघ के लोगों को खामोश किया और गुजरात में सारे टिकट अपनी मनमर्जी से बांटे. आश्‍चर्य की बात तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी के पार्लियामेंट्री बोर्ड ने उन टिकटों में कोई भी रद्दोबदल करने की हिम्मत ही नहीं की, यानी सब कुछ नरेंद्र मोदी ने अपने हिसाब से ही किया और उन्हें इसीलिए गुजरात में सफलता भी मिली. केशुभाई पटेल गुजरात की राजनीति में अप्रासंगिक हो गए, क्योंकि पटेल समुदाय ने भी उनका साथ नहीं दिया.
नरेंद्र मोदी गुजरात में क्यों चुनाव जीतते रहे हैं और क्यों चुनाव जीतते रहेंगे, इसकी वजह हैं वे मतदाता, जो मुस्लिम नहीं हैं और जिनका यही मानना है कि नरेंद्र मोदी के रहते गुजरात में मुसलमान अपने दायरे के भीतर ही रहेंगे. उन्हें उन पार्टियों से बहुत डर लगता है, जो सेक्युलर मानी जाती हैं. गुजरात के बहुसंख्यक समाज या ग़ैर मुसलमानों को लगता है कि अगर नरेंद्र मोदी हार गए और कोई दूसरा जीत गया, तो गुजरात में नरोदा पाटिया जैसे दंगे फिर शुरू हो जाएंगे और दोबारा उन्हें दंगों के माहौल में ही जीना पड़ेगा. बहुसंख्यक समाज इस बात से बहुत आशवस्त है कि पिछले दस साल में गुजरात में दंगे लगभग नहीं के बराबर हुए या बहुत कम हुए. दरअसल, गुजरात का बहुसंख्यक समाज केंद्र में शासन करने वाली पार्टियों से थोड़ा सा बिदका और थोड़ा सा सहमा हुआ है. उसे लगता है कि कांग्रेस, लालू प्रसाद की आरजेडी, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी या मायावती की बहुजन समाज पार्टी जैसे दल जब धर्म निरपेक्षता की बात करते हैं, तो उनका मतलब मुसलमानों को खुली छूट देने से होता है. वे मुस्लिम समाज को नियंत्रण में नहीं रख सकते और उनकी जीत का मतलब है कि मुस्लिम समाज को यह संदेश जाना कि वह अब जो चाहे, कर सकता है. इन कारणों से गुजरात का बहुसंख्यक समाज या ग़ैर मुस्लिम समाज नरेंद्र मोदी को हमेशा चुनाव जिताता रहेगा. ऐसा अभी के विश्लेषण में लगता है. गुजरात का बहुसंख्यक समाज नरेंद्र मोदी नाम के ब्रांड को इसलिए भी वोट दे रहा है, क्योंकि नरेंद्र मोदी के रहते उसे इन परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा, लेकिन गुजरात में जीतना एक बात है और देश में जीतना दूसरी बात है.
देश में जीत के लिए नरेंद्र मोदी ने न केवल अपना सुर बदल दिया है, बल्कि नारा भी बदल दिया है. वह कहते हैं कि देश में बैड गवर्नेंस से अच्छा शासन नहीं चल रहा है, इसलिए गुड गवर्नेंस से अच्छे शासन की बहुत ज़रूरत है. हालांकि नरेंद्र मोदी इसकी सफलतापूर्वक मार्केटिंग भी कर रहे हैं, चाहे वह दिल्ली का कोई कॉलेज हो या अमेरिका के लिए दिया गया वीडियो कांफ्रेंसिंग का संदेश. यहां सवाल यह उठता है कि क्या नरेंद्र मोदी के साथी भी ऐसा ही कह रहे हैं? नरेंद्र मोदी के आसपास के लोगों का कहना है कि वे राम मंदिर वहीं बनाएंगे और धारा 370 ख़त्म करेंगे, यानी नरेंद्र मोदी के साथी भारतीय जनता पार्टी की पुरानी भाषा फिर से बोलने लगे. यह उस समय की भाषा है, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री नहीं बने थे.
हिंदुत्व के एजेंडे को मुख्य एजेंडा बताने वाले मोदी के साथियों की बात अगर छोड़ दें, तो जरा भारतीय जनता पार्टी के सहयोगियों पर एक नज़र डाली जाए. अभी यह माना जा रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस एक पक्ष होगी और भारतीय जनता पार्टी दूसरा पक्ष. वैसे, भारतीय जनता पार्टी का साथ ममता बनर्जी भी दे सकती हैं. प्रदेशों के अंतर्विरोधों की वजह से परस्पर विरोधी एक ग्रुप भारतीय जनता पार्टी का साथ दे सकता है, जैसे उत्तर प्रदेश में मायावती या मुलायम सिंह, जिनमें से कोई एक भारतीय जनता पार्टी के साथ जा भी सकता है. तमिलनाडु में जयललिता या करुणानिधि में से कोई एक भाजपा के साथ जा सकता है. उसी तरह आंध्र में चंद्रबाबू या जगनमोहन रेड्डी में से कोई एक भाजपा के साथ जा सकता है.
अगर नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करती है, तो ऐसे में उसे सबसे पहला नुकसान अपने घोषित सहयोगी जनता दल-यू का उठाना पड़ेगा. दरअसल, जनता दल-यू ने कई बार भारतीय जनता पार्टी से यह कहा है कि अगर वह नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानती है, तो उसे कोई दूसरा रास्ता तलाशना पड़ेगा. इसीलिए नीतीश कुमार ने बिहार को विशेष दर्जा देने की बात रखी है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करते ही, जहां प्रत्यक्ष तौर पर जनता दल-यू उसका साथ छोड़ देगा, वहीं ममता बनर्जी और राज्यों के जितने भी पक्ष हैं, चाहे उत्तर प्रदेश हो, तमिलनाडु हो या आंध्र प्रदेश, सभी भारतीय जनता पार्टी से दूर खड़े नज़र आएंगे. यहां तक कि उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी अपने दल के साथ नरेंद्र मोदी का समर्थन नहीं करेंगे. इन सबने समय-समय पर यह बात भारतीय जनता पार्टी को बता दी है. ऐसी स्थिति में भारतीय जनता पार्टी के साथ केवल शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल रह जाते हैं.
अब देखें कि अगर भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाती है, तो क्या होता है. मोदी ग्रोथ, गवर्नेंस और सेक्युलरिज्म का नारा देते हैं, तो ऐसे में भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी का वह कट्टर समर्थक वर्ग, जो हिंदुत्व में भरोसा करता है, भारतीय जनता पार्टी से फौरन छिटक जाएगा. मुसलमान भारतीय जनता पार्टी के साथ आएं या न आएं, लेकिन यह कट्टर हिंदू भारतीय जनता पार्टी से फौरन दूर चला जाएगा और यह नरेंद्र मोदी के लिए सबसे बड़ी परेशानी है. प्रधानमंत्री पद का कोई भी उम्मीदवार 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को अनदेखा नहीं कर सकता. और अगर नरेंद्र मोदी मुसलमानों के प्रति मुलायम भाषा का इस्तेमाल करेंगे, तो उनका हश्र भी ठीक वैसा ही होगा, जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी का जिन्ना को सेक्युलर बताने के बाद हुआ था. हक़ीक़त में हार्ड लाइनर हिंदू उसी समय के बाद से आडवाणी के ख़िलाफ़ है, जिसकी वजह से संघ और आडवाणी के बीच लड़ाई शुरू हो गई. गौरतलब है कि  ठीक वही स्थिति नरेंद्र मोदी को भी झेलनी पड़ सकती है.
संघ ने मोदी का समर्थन इसलिए किया है, क्योंकि उसे यही लगता है कि मोदी हिंदुत्व का चेहरा हैं और इसीलिए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि वह भव्य राम मंदिर बनाएंगे और हिंदू आस्थाओं के हिसाब से ही बनाएंगे. इसका सीधा मतलब यही है कि संघ इस चुनाव को मंदिर-मस्जिद यानी हिंदू-मुस्लिम के सवाल की तरफ़ ले जाएगा और नरेंद्र मोदी संघ से विपरीत शैली अपनाकर ग्रोथ, डेवलपमेंट एवं गवर्नेंस की भाषा बोलेंगे. मोदी के विकास की रणनीति और संघ की राम मंदिर बनाने की रणनीति में एक कॉन्ट्राडिक्शन है. और वह यह है कि भाजपा, शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल को छोड़कर बाक़ी सभी दल मुस्लिम अपीज़मेंट के नाम पर, जिसका कि भाजपा जोर-शोर से प्रचार करती है, कांग्रेस की तरफ़ खड़े हो जाएंगे. ठीक वैसे ही, जैसे उत्तर प्रदेश के चुनाव में जब यह प्रचार भारतीय जनता पार्टी ने ज़ोर-शोर से किया कि चुनाव के बाद उसकी और मायावती की मिली-जुली सरकार बनेगी, तो ऐसी स्थिति में मुसलमानों ने एकजुट होकर अपना सारा वोट मुलायम सिंह को ही दे दिया था.
भारतीय जनता पार्टी के लिए ख़तरा यह है कि अगर देश के लोगों को लगा कि नरेंद्र मोदी द्वारा विकास की आंधी का दिखाया गया सपना दरअसल, संघ की रणनीति का एक हिस्सा है, तो इस चुनाव में भी अप्रत्याशित नतीजे ही आएंगे और 20 प्रतिशत वोट एकतरफ़ा, संभवत: कांग्रेस के पक्ष में चले जाएंगे और उस स्थिति में भारतीय जनता पार्टी की तीन अंकों वाली संख्या दो अंकों में सिमट कर रह जाएगी. मान लीजिए, तीन अंकों में बनी भी रही, तो भी कांग्रेस की सरकार बनाने की संभावनाएं ज़्यादा प्रबल हो जाएंगी. वैसे, यह चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए वाटर लू भी साबित हो सकता है, लेकिन अभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नरेंद्र मोदी ने नहीं कराई है. अभी उन्होंने एक तरह से संगठन पर केवल क़ब्ज़ा ही किया है. जब प्रधानमंत्री पद का सवाल आएगा, तब एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को इतिहास याद करना चाहिए. जब लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने की बात आई, तो राजनाथ सिंह ने अपना दावा किया कि मैं प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता. अभी राजनाथ सिंह नरेंद्र मोदी को साथ लेकर चल रहे हैं और शायद इसीलिए हर समारोह में नरेंद्र मोदी राजनाथ सिंह को माला पहनाते देखे जा रहे हैं. इन दोनों को देखकर ऐसा लगता है, मानो राम-लक्ष्मण का मिलन हो रहा हो, लेकिन जब प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में गोलियां चलेंगी, तो राजनाथ सिंह आगे खड़े होंगे या वह नरेंद्र मोदी को आगे खड़ा कर देंगे, ताकि नरेंद्र मोदी धराशायी हो जाएं, इसे कौन जानता है?
नरेंद्र मोदी के बारे में संघ के एक प्रमुख वरिष्ठ कार्यकर्ता ने मुझसे एक बहुत बड़ी और गंभीर बात कही. उन्होंने कहा कि मोदी संघ और भारतीय जनता पार्टी में आतंकवादी की तरह व्यवहार कर रहे हैं. उन्होंने नरेंद्र मोदी के आतंकवाद के कई उदाहरण गिनाए. पहला उदाहरण संजय जोशी को लेकर दिया कि उन्हें कोई रोल न दिया जाए. दूसरा, पार्टी में किसे कौन सी ज़िम्मेदारी दी जाए, इसमें नरेंद्र मोदी ने अपना रोल निभाया. भारतीय जनता पार्टी की हर छोटी से छोटी चीज़ में इस समय एक तरी़के से नरेंद्र मोदी ही आदेश और निर्देश दे रहे हैं. भाजपा में इस समय किसी को कुछ सूझ नहीं रहा. सभी समझ नहीं पा रहे हैं कि आख़िर उन्हें किस तरह के गठजोड़ बनाने हैं. इसलिए नरेंद्र मोदी जो कह रहे हैं, वही भारतीय जनता पार्टी में होता जा रहा है. संघ के ही कुछ लोगों ने मुझे यह भी बताया कि नरेंद्र मोदी बात कहकर बदल जाने में महारथ हासिल कर चुके हैं. उन्होंने बताया कि अभी हाल में जब नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह को नाइट वॉचमैन कहा, तो भारतीय जनता पार्टी में उनकी बहुत तारीफ़ हुई, लेकिन जब किसी वकील ने उन पर मुक़दमा कर दिया, तो वह फ़ौरन अपने बयान से पलट गए. बोले कि ऐसा उन्होंने कहा ही नहीं, जबकि नरेंद्र मोदी द्वारा कहा गया यह वाक्य टेलीविज़न चैनलों ने कई बार दिखाया.
संघ के इस निष्ठावान कार्यकर्ता का कहना है कि नरेंद्र मोदी द्वारा छोटी-मोटी राजनीति में उठा-पटक करना एक अलग चीज़ है, लेकिन जब वह देश के प्रधानमंत्री पद पर काबिज़ होने की बात करते हैं और अपनी बातों से जिस तरह मुकरते हैं, उससे तो यही लगता है कि वह प्रधानमंत्री पद के बहुत योग्य उम्मीदवार नहीं हैं. सवाल यह उठता है कि संसदीय बोर्ड में नरेंद्र मोदी तो आ गए, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के दो चर्चित व्यक्ति शिवराज सिंह चौहान और डॉ. रमन सिंह क्यों नहीं आ पाए, इसका जवाब तलाशना आवश्यक है. आइए हम इसका जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं.
अमित शाह को ही क्यों चुना गया?
नरेंद्र मोदी अमित शाह को भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय रोल में लाना चाहते थे, क्योंकि अमित शाह उनके सबसे भरोसे के साथियों में से एक हैं. ग़ौरतलब है कि अमित शाह पर गुजरात के दंगों के साथ-साथ कुछ फर्जी मुठभेड़ें कराने के आरोप में मुक़दमे चल रहे हैं. इसका मतलब यह कि हिंदू कट्टरवादी उन्हें अपना नेता मानते हैं. ज़ाहिर है, जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ कुछ भी बोलेगा और करेगा, वह हिंदू कट्टरवादियों का स्वाभाविक नेता मान लिया जाता है. नरेंद्र मोदी ने अमित शाह को एक तो इस कारण संसदीय बोर्ड में लाने की शर्त रखी. दूसरी बात यह कि अमित शाह बहुत बड़े पोल मैनेजर और फंड मैनेजर हैं. अमित शाह की अगर किसी से तुलना हो सकती है, तो वह स्वर्गीय प्रमोद महाजन से हो सकती है. अमित शाह के दाहिने हाथ महेश जेठमलानी हैं, जो प्रसिद्ध वकील राम जेठमलानी के बेटे हैं. महेश जेठमलानी पहले आदमी हैं, जिन्होंने गडकरी के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा था. महेश जेठमलानी ने यह अभियान नरेंद्र मोदी के इशारे पर छेड़ा था और सच तो यह है कि सारी बिसात अमित शाह ने ही बिछाई थी. महेश जेठमलानी ने उनके लिए केवल माउथ पीस का काम किया था. यानी भाषा अमित शाह की थी और बोली महेश जेठमलानी की.
नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी को अमित शाह के रूप में नया प्रमोद महाजन दे दिया है, जिन्होंने देश के संपूर्ण पूंजीपतियों से संपर्क साधना भी शुरू कर दिया है. नरेंद्र मोदी की बात भाजपा को इसलिए भी माननी पड़ रही है, क्योंकि वह उसके संभावित प्रधानमंत्री पद के न केवल उम्मीदवार हैं, बल्कि सबसे प्रबल उम्मीदवार हैं. इसलिए नरेंद्र मोदी का कहा हुआ भारतीय जनता पार्टी में इस समय कोई भी काट नहीं रहा. ग़ौरतलब है कि संसदीय बोर्ड लोकसभा के टिकटों का वितरण करता है. नरेंद्र मोदी के दिमाग में यह बात थी कि भले ही आज उन्हें भाजपा का उम्मीदवार बनाने की बात हो रही हो, लेकिन अगर लोकसभा चुनाव में उनके लोगों को टिकट अंतत: नहीं मिला, तो वह किसी भी क़ीमत पर प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे. इसलिए उन्होंने अमित शाह के रूप में एक नए प्रमोद महाजन को संसदीय बोर्ड का सदस्य बनवाया, ताकि उनके अपने लोगों को सारे देश में बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी के टिकट मिल सकें.

 अमित शाह की अगर किसी से तुलना हो सकती है, तो वह स्वर्गीय प्रमोद महाजन से हो सकती है. अमित शाह के दाहिने हाथ महेश जेठमलानी हैं, जो प्रसिद्ध वकील राम जेठमलानी के बेटे हैं. महेश जेठमलानी पहले आदमी हैं, जिन्होंने गडकरी के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा था.

नरेंद्र मोदी चूंकि समझदार या चालाक राजनीतिज्ञ हैं, इसलिए उन्हें मालूम है कि अगर भारतीय जनता पार्टी को 160 या 175 सीटें मिलती हैं और उसके सहयोगी कहते हैं कि वे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं चाहते, तब उस समय भारतीय जनता पार्टी के सांसदों की आवाज़ बहुत प्रमुख होगी और यह ज़ाहिर-सी बात है कि जिसके पास ज़्यादा सांसद होंगे, वह बाजी मार लेगा. दरअसल, यही सोचकर नरेंद्र मोदी ने अभी से शतरंज की बिसात पर अमित शाह के रूप में एक वजीर बैठा दिया है, जो चारों तरफ़ मार कर सकता है. अब नरेंद्र मोदी इस बात का ध्यान रखेंगे कि राजनाथ सिंह, आडवाणी जी, अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के समर्थकों को कितनी टिकटें मिलती हैं. उनके समर्थकों को अपनी ओर तोड़ना और जो न टूटें, उन्हें टिकट न देना अमित शाह का मुख्य काम होगा.
अगर नरेंद्र मोदी संसदीय बोर्ड से बाहर होते और अमित शाह को अपने साथ न ले आ पाते, तो यह कहा जा सकता है कि वह कहने को तो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होते, लेकिन उनके सारे फायर हवाई ही होते. इस सारे खेल में संघ की सोच काफी महत्वपूर्ण है. दरअसल, उसने भारतीय जनता पार्टी को पूरी ढील दे रखी है. संघ उसके किसी भी अंदरूनी विवाद में बोलना नहीं चाहता. संघ के नेताओं, ख़ासकर मोहन भागवत का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी का शुद्धिकरण ज़रूरी है. इसलिए वे नेता, जिनके मन में प्रधानमंत्री पद की चाह है और जो संघ के उद्देश्यों की जगह ख़ुद को रखकर आगे बढ़ना चाहते हैं, वे सब आपस में लड़ें, कटें और मरें.
अगर इस आपसी लड़ाई में भारतीय जनता पार्टी दोबारा दो सीटों पर पहुंच जाए, तो उसकी भी कोई चिंता संघ को नहीं है. संघ का मानना है कि उस स्थिति में उसके विचारों का भारतीय जनता पार्टी पर वर्चस्व होगा और वह उसके बाद पूरी तरह से उसके कहने पर ही चलेगी. दरअसल, संघ की योजना सीआईए की तरह बनती है. जिस तरह सीआईए दुनिया में अपने ऑपरेशन का एक बड़ा रोडमैप बनाती है, उसी तरह संघ भी अपने ऑपरेशन का एक बड़ा और लंबा रोडमैप बनाता है और वह उसी के हिसाब से चलता भी है, चाहे सरसंघचालक कोई भी हो. कुछ साधारण परिवर्तन ज़रूर योजना में होते हैं, पर बड़े परिवर्तन नहीं होते. भारतीय जनता पार्टी में पैदा हुए इस नए सत्ता संघर्ष को लेकर एक कहावत याद आती है कि सौ गीदड़ मिलकर शेर का शिकार कर लेते हैं. अगर कहीं यह कहावत सही हुई, तो बाकी सभी लोग मिल जाएंगे और नरेंद्र मोदी का शिकार कर लेंगे. राजनाथ सिंह ने एक तरफ़ नरेंद्र मोदी को कर रखा है और दूसरी तरफ़ गडकरी हैं. गडकरी को संघ पहले ही आश्‍वासन दे चुका है कि वह नवंबर आते-आते, लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें दोबारा भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाएगा और तब तक गडकरी ख़ुद पर लगे आरोपों से मुक्ति पा लेंगे. वैसे, गडकरी इसके लिए जी-जान से कोशिश भी कर रहे हैं.
राजनाथ सिंह का यह प्रयास अभी तक बिना दरार के चलता दिखाई दे रहा है, लेकिन ओवर डोमिनेटिंग पर्सनेलिटी को अपने साथ रखकर बहुत दिनों तक नहीं चला जा सकता. नरेंद्र मोदी ओवर डोमिनेटिंग हैं. वह राजनाथ सिंह को भी डोमिनेट कर रहे हैं और गडकरी को भी. अरुण जेटली एवं सुषमा स्वराज इस श्रेणी में कहीं आते ही नहीं और लालकृष्ण आडवाणी अपनी इज्जत को लेकर चुप हैं. क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा या ओवर डोमिनेटिंग पर्सनेलिटी के अंतर्विरोध जल्दी सामने आएंगे. अगर ये अंतर्विरोध सामने आए, तो भारतीय जनता पार्टी का पावर गेम ही बदल जाएगा. जब मैंने इस सवाल में झांकने का प्रयास किया कि मोदी ने ख़ुद अपना कद इतना बढ़ा लिया है और पूरी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के मन में है कि बिना मोदी के पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती है, तो इसके जवाब मुझे बहुत मज़ेदार मिले. मुझे बताया गया कि उदाहरण स्वरूप ज़्यादातर उपचुनाव विपक्षी दल जीतते हैं और मुख्य चुनाव कांग्रेस जीतती है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उपचुनाव में विपक्षी दल अपनी सारी ताकत झोंक देते हैं और कांग्रेस ख़ामोश बैठी रहती है. और जब आम चुनाव या मुख्य चुनाव आता है, तो विपक्षी दलों के पास न मुद्दे बचते हैं और न ही साधन बचते हैं और दरअसल, उसी समय कांग्रेस हाथ मार ले जाती है. अभी मोदी प्रधानमंत्री पद की रागिनी गा रहे हैं, अपने दरबारियों से राग-रागिनियां छिड़वा रहे हैं और राजनाथ सिंह चुप बैठे हैं. जब फाइनल बैठक की बात आएगी, तो शायद मोदी तब तक देश के सामने चूक गए होंगे और एक नया चेहरा राजनाथ सिंह के रूप में प्रधानमंत्री पद के लिए स्वाभाविक उम्मीदवार के रूप में भारतीय जनता पार्टी में उभर कर सामने आएगा.
इसका एक उदाहरण मुझे और बताया गया कि चुनाव तो होने हैं दिल्ली के नवंबर में. अरविंद केजरीवाल चारों तरफ़ घूम-घूमकर शोर कर रहे हैं, लेकिन शीला दीक्षित ख़ामोश बैठी हैं. जवाब देने वालों ने बताया कि तब तक हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल अपनी सारी क्षमता लोगों के सामने ला चुके हों और उनके पास आगे कहने के लिए कुछ भी न हो और उसी समय जब शीला दीक्षित पलटवार करेंगी, तो दिल्ली का नतीजा अरविंद केजरीवाल के पक्ष में नहीं, बल्कि शीला के पक्ष में जाएगा. संघ के वरिष्ठ नेता ने आख़िर में एक मज़ेदार बात कही कि आज राजनाथ सिंह पार्लियामेंट्री बोर्ड में नरेंद्र मोदी को प्रमोट कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए जितना चाहें, उतना शोर देश के सामने करें, लेकिन जब वह चुप हो जाएंगे, तो बिल्ली झपट्टा मार देगी. मेरे यह पूछने पर कि बिल्ली कौन, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि राजनाथ सिंह, और कौन! यह कहकर कि राजनाथ सिंह बिल्ली हैं, संघ के उक्त नेता काफी देर तक खिलखिला कर अट्ठाहास मारकर हंसते रहे.
अब देश के बाकी हिस्सों के बारे में. शिवराज सिंह मध्य प्रदेश पर क़ाबिज रहेंगे, रमन सिंह छत्तीसगढ़ पकड़े रहेंगे, येदियुरप्पा न खाएंगे न खाने देंगे और कर्नाटक भारतीय जनता पार्टी के हाथ से निकल जाएगा. इसके बाद भारतीय जनता पार्टी के पास फिर बचता ही क्या है? आने वाले राज्यों के चुनाव में मोदी ने पहले ही समझदारी दिखाई है. मोदी राज्यों में कैम्पेन करने नहीं जा रहे, क्योंकि वह जानते हैं कि अगर उन्होंने यह बेवकूफी या महा-समझदारी का काम किया, तो इन्हीं राज्यों के चुनाव में उनका प्रधानमंत्री पद का दावा समाप्त हो जाएगा.
संघ के कुछ वरिष्ठ नेता भारतीय जनता पार्टी पर तल्ख हैं. उनका कहना है कि आगे आने वाले कुछ महीनों में महंगाई मुद्दा नहीं रह जाएगी. उदाहरण के रूप में वे बताते हैं कि पेट्रोल सस्ता हुआ है, चांदी भी सस्ती हो गई है. अगर पेट्रोल पांच रुपये और नीचे आ गया, जो कि उनका मानना है कि अगले दो महीनों में आ जाएगा, तो महंगाई कोई मुद्दा नहीं रहेगी. भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्रियों को यह समझ में नहीं आया कि कांग्रेस द्वारा पेट्रोल के दाम बढ़ाने के फैसले के ख़िलाफ़ अगर वे अपने राज्य का टैक्स घटा देते और उनके यहां पेट्रोल सस्ता बिकता, तो लोगों से वे कह सकते थे कि हम आपके हित में खड़े हैं, भले ही सरकार को दूसरे साधनों से पैसा कमाना पड़े, लेकिन पेट्रोल एवं डीजल की मूल्य बढ़ोत्तरी का प्रभाव जनता पर नहीं पड़ेगा. हालांकि, भारतीय जनता पार्टी के किसी भी मुख्यमंत्री ने ऐसा नहीं किया.
संघ के इन नेताओं का यह मानना है और शायद मैं इसे संघ की राय कह सकता हूं कि भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री बेवजह महंगाई का मुद्दा उछाल रहे हैं. वे ख़ुद अपने राज्य में महंगाई समाप्त करने के लिए न तो टैक्स में कमी कर रहे हैं और न ही कोई और क़दम उठा रहे हैं. जनता इन चीजों पर भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्रियों को कांग्रेस से अलग देखेगी, इसमें इन्हें संदेह है. भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी इस समय चुप हैं. शायद वह नरेंद्र मोदी के ख़ारिज होने का इंतज़ार कर रहे हैं. इसीलिए वह समय-समय पर एक बात बोल देते हैं, जैसे कि उन्होंने कहा कि लोग कांग्रेस की तरह भारतीय जनता पार्टी से भी निराश हैं. देश में बहुत सारे लोगों ने इसे आडवाणी जी का पॉजिटिव कमेंट माना. वैसे राजनाथ सिंह भी ख़ामोश हैं. अगर नवंबर के चुनाव में नरेंद्र मोदी की साख कम नहीं हुई, दूसरे शब्दों में कहें कि यदि नरेंद्र मोदी नहीं पिटे, तब इन दोनों की सही रणनीति हो सकती है कि सीटें तो मोदी के नाम पर आएं और प्रधानमंत्री पद पर दावा इन दोनों का भी पेश हो जाए.
दरअसल, वक्त का इंतज़ार कर रहे हैं आडवाणी जी. वह राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं और उन्हें मालूम है कि कुछ भी हो सकता है. भला किसे मालूम था कि नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बनेंगे? राजीव गांधी की हत्या हुई और उस समय तक देश के एक बड़े हिस्से में वोट नहीं पड़े थे. राजीव गांधी की हत्या के बाद स्थिति ऐसी आई कि कांग्रेस एक बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बन गए. आडवाणी जी ने आस नहीं छोड़ी है. वह न टायर्ड हैं और न रिटायर्ड. वह आर्ट ऑफ कैलकुलेशन में माहिर हैं.
भारतीय जनता पार्टी के एक महत्वपूर्ण फैक्टर को हम इन दिनों भूल रहे हैं और वह फैक्टर हैं संजय जोशी. हक़ीक़त में जिस किसी को मोदी से लड़ना होगा, उसे संजय जोशी की मदद चाहिए और उसकी यह मजबूरी होगी कि वह संजय जोशी को अपने साथ ले. नरेंद्र मोदी की कमज़ोरियों, ताक़त और रणनीति को संजय जोशी से बेहतर न तो कोई जानता है और न ही समझता है. भारतीय जनता पार्टी में संजय जोशी की ताक़त उनका सादापन है. कुर्ता-पाजामा पहन कर भारतीय जनता पार्टी या उसके अलावा, किसी भी दल में ऐसा कोई नेता नहीं है, जो बिना पैसे की राजनीति करता हो और जिसके घर पर रोज 200, 300, 400 लोगों की भीड़ मिलने आती हो. इतनी भीड़ न तो आडवाणी के घर आती है, न सुषमा स्वराज, अरुण जेटली के घर और न ख़ुद नरेंद्र मोदी के घर.
संजय जोशी भी अपना होमवर्क कर रहे हैं. उनके बारे में यही कहा जाता है कि वह न केवल निष्कपट कार्यकर्ता हैं, बल्कि हिंदुत्व के प्रति समर्पित भी हैं. इसलिए जिसे भी नरेंद्र मोदी से लड़ना होगा, उसे संजय जोशी को अपने साथ आने के लिए आमंत्रित करना ही पड़ेगा. संजय जोशी नरेंद्र मोदी को छोड़कर किसी के भी साथ जा सकते हैं. वह राजनाथ सिंह के साथ जा सकते हैं, अरुण जेटली के साथ जा सकते हैं, आडवाणी के साथ जा सकते हैं और उन्हें उमा भारती से भी कोई परेशानी नहीं है. यानी जो नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ हाथ में झंडा उठाएगा, संजय जोशी उसका साथ दे सकते हैं. ग़ौरतलब है कि संजय जोशी शिवराज सिंह के भी दोस्त हैं और डॉ. रमन सिंह के भी.
भारतीय जनता पार्टी में एक और कहानी उभर रही है. अरुण जेटली इन दिनों लो प्रोफाइल हो गए हैं. वह इस बात का इंतज़ार और आकलन कर रहे हैं कि कौन उन्हें लोकसभा में चुनाव जितवा कर ला सकता है. जोशी एवं भाजपा के अधिकांश नेता और अगर कहें कि हर दूसरा नेता राजनाथ सिंह के साज़िशी स्वभाव से आतंकित है, घबराया हुआ है, तो शायद ग़लत नहीं होगा. साज़िशी स्वभाव मेरा शब्द नहीं है, यह संघ के एक बड़े नेता का शब्द है. भारतीय जनता पार्टी के नेता इस बात की अपेक्षा कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को गोद में उठाकर ले चलने वाले राजनाथ सिंह कब उन्हें अपनी गोद से नीचे गिरा दें. और जिस चीज़ ने मुझे चकित किया, वह एक उदाहरण ने किया. कहानी बताई गई कि शिवाजी और अफज़ल खां दोनों अच्छे दोस्त थे. अफ़ज़ल खां ने शिवाजी को कैद करने और मारने का प्लान बनाया. शिवाजी ने अपने बघनखे से उसका पेट फाड़ दिया. नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह में कौन अफ़ज़ल खां का रोल प्ले करेगा और कौन शिवाजी का, किसी को नहीं पता, लेकिन लोगों को अब यह ज़रूर लग रहा है कि दोनों में से एक अफ़ज़ल खां बनेगा और दूसरा शिवाजी. राजनाथ सिंह के बारे में संघ का कहना है कि वह जिस सीढ़ी पर गए, उन्होंने उस सीढ़ी को ही समाप्त कर दिया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, पार्टी हार गई. केंद्र में मंत्री बने, केंद्र में पार्टी हार गई. एक गाज़ियाबाद सीट के लिए उन्होंने कम से कम आठ सीटें हरवा दीं और अजित सिंह को गाज़ियाबाद जीतने के लिए बहुत सारी सीटें तोह़फे में दे दीं, जिसका भारतीय जनता पार्टी में काफी विरोध भी हुआ.
बाबरी मस्जिद टूटने पर राजनाथ सिंह ने कहा था कि अटल जी को पार्टी से निकाल देना चाहिए. अटल जी की सरकार में राजनाथ सिंह बाद में मंत्री बने. उन्होंने कहा कि अटल जी हमारे नेता हैं. राजनाथ सिंह जब अध्यक्ष बने, तो संघ परिवार ने ही उन्हें अध्यक्ष बनाया और उन्हें हटाने के लिए भी संघ परिवार ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया था. आख़िर क्या कारण थे, जिनके चलते संघ परिवार उन्हें हटाना चाहता था. राजनाथ सिंह का विश्‍लेषण बताता है कि उनका कद जब-जब बढ़ा, तब-तब उनके नीचे की ज़मीन साफ़ होती चली गई. राजनाथ सिंह प्रधानमंत्री बनने के लिए क्या करेंगे और क्या नहीं, इसे कोई नहीं जानता.
भारतीय जनता पार्टी के अंदर एक आकलन और मज़ेदार हो रहा है. पार्टी के लोगों का मानना है कि देश की ऐसी साढ़े तीन सौ लोकसभा सीटें हैं, जहां पर उनका कभी न कभी, किसी न किसी लोकसभा में सदस्य रहा है. इसका मतलब वे यह मानते हैं कि साढ़े तीन सौ चुनाव क्षेत्रों में लोग भाजपा को जानते हैं और उसे जिताना भी चाहते हैं. इन साढ़े तीन सौ सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ताक़त के साथ चुनाव लड़ने की रणनीति बना रही है. उसका मानना है कि अगर वह इन साढ़े तीन सौ सीटों पर ही कंसनट्रेट करे, तो शायद उसे 192 या उससे ज़्यादा सीटें मिल जाएं. संघ इस सारी स्थिति में ख़ामोश है और यह ख़ामोशी विवशता की ख़ामोशी है, क्योंकि कोई भी न तो संघ की बात सुन रहा है और न ही उसे आमंत्रित कर रहा है. संघ विवशता के साथ सब कुछ देख रहा है और भारतीय जनता पार्टी के पुनर्मूषको भव के सिद्धांत पर चले आने की प्रतीक्षा कर रहा है.

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