मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के बीच नूरा-कुश्ती जारी है. दोनों एक-दूसरे की मजबूरियां और कमज़ोरियां अच्छी तरह जानते-समझते हैं. शायद यही वजह है कि गरज हर कोई रहा है, लेकिन हक़ीक़त में बरस कोई नहीं रहा है.
page-6सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का न तो कांग्रेस और न ही यूपीए सरकार से मोहभंग हुआ है. आडवाणी की तारीफ़ के बहाने भाजपा की तरफ़ उनका झुकाव पूरी तरह दिखावटी है. वह सिर्फ़ मतलब की राजनीति कर रहे हैं. उन्हें समाजवादी पार्टी के हित और अपने लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी के अलावा, कुछ सूझ नहीं रहा है. इसीलिए वह कांगे्रस को आंखें दिखा रहे हैं, जबकि सब जानते हैं कि पिछले चार वर्षों से कथित रूप से यूपीए के संकट मोचक बनकर मुलायम ने अपने समर्थन की भरपूर क़ीमत वसूली है. दरअसल, ऐसा करके उन्होंने एक ओर जहां अपनी व्यक्तिगत राजनीति चमकाई, वहीं दूसरी ओर केंद्र के पक्ष में खड़े होकर सीबीआई और अपनी धुर विरोधी मायावती की दबंगई से भी लगातार बचते रहे. यह वह समय था (मार्च 2012 से पूर्व), जब उत्तर प्रदेश में उनकी प्रबल प्रतिद्वंद्वी बसपा की सरकार थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती सपा प्रमुख को लगातार डरा-धमका रही थीं. तब मुलायम को बसपा के प्रकोप से बचाने में केंद्र सरकार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. केंद्र के साथ रहकर उन्होंने सत्ता रूपी अमृत का ख़ूब रसपान किया, लेकिन जब चुनावी बेला आई, तो वह हलाहल का प्याला कांग्रेस के लिए छोड़कर चलते बनना चाहते हैं.
मुलायम की दोहरी राजनीति से आमजन भले ही हैरान हों, लेकिन राजनीतिक पंडितों का दो टूक यही कहना है कि नेता जी केंद्र सरकार के पाप का घड़ा अपने सिर नहीं फोड़ना चाहते, इसीलिए वह यूपीए सरकार के साथ रहकर भी उससे बेगानों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि अगर वह चुनाव आने से कुछ माह पहले अपने व्यवहार से कांग्रेस को विरोधियों की कतार में खड़ा कर देंगे, तो ऐसे में मतदाता उनका अतीत भूलकर उन्हें गले लगा लेगा. इस दौरान मतदाता यह बिल्कुल नहीं पूछेगा कि महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ाने वाली यूपीए सरकार को वह क्यों अपने कंधों पर ढोते रहे. दरअसल, उन्हें इस बात का एहसास अच्छी तरह है कि अगर कांग्रेस के साथ खड़े रहते हुए वह चुनाव मैदान में उतरे, तो जनता के सवालों का जवाब देना उनके लिए आसान नहीं होगा, बल्कि उन्हें भी कांग्रेस के कर्मों की सज़ा मिल सकती है.

मुलायम की दोहरी राजनीति से आमजन भले ही हैरान हों, लेकिन राजनीतिक पंडितों का दो टूक यही कहना है कि नेता जी केंद्र सरकार के पाप का घड़ा अपने सिर नहीं फोड़ना चाहते, इसीलिए वह यूपीए सरकार के साथ रहकर भी उससे बेगानों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि अगर वह चुनाव आने से कुछ माह पहले अपने व्यवहार से कांग्रेस को विरोधियों की कतार में खड़ा कर देंगे, तो ऐसे में मतदाता उनका अतीत भूलकर उन्हें गले लगा लेगा.

इसमें कोई दो राय नहीं कि मुलायम के पैतरों ने यूपीए सरकार की धड़कनें बढ़ा रखी हैं. हालांकि यह और बात है कि कांग्रेस जिसे सत्ता में बने रहने का अपार अनुभव है, वह सपा के सामने घुटने टेकने की बजाय उसे घुड़की दे रही है. वैसे, यह बात मुलायम के बयान से भी साफ़ हो जाती है, जिसमें वह काफी दुखी मन से कहते हैं, साथ छोड़ने पर सीबीआई से डराती है कांग्रेस. सपा प्रमुख की मजबूरी यह है कि उनकी छवि बेदाग़ नहीं है, इसीलिए वह कांगे्रस की घुड़की से हिल जाते हैं. यही वजह है कि बेनी प्रसाद वर्मा जैसे नेता मुलायम के ख़िलाफ़ अपशब्द बोलने की हिम्मत जुटा लेते हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा ब्रिक सम्मेलन से लौटते समय सपा पर दो टूक टिप्पणी करते ही मुलायम के तेवर नरम पड़ गए. पिछले कई दिनों से यूपीए सरकार पर बरस रहे मुलायम ने होली की खुमारी उतरते ही आनन-फानन में यह घोषणा कर दी कि फ़िलहाल समर्थन वापसी का उनका कोई इरादा ही नहीं है. हैरानी की बात तो यह है कि वह अपने उस बयान से भी पलट गए, जिसमें उन्होंने कहा था, आडवाणी जी कभी झूठ नहीं बोलते. भाजपा से किसी तरह के तालमेल की संभावना से भी उन्होंने इंकार कर दिया. मुलायम जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं, उससे इस तरह के सवाल भी उठने लगे हैं कि कहीं वह ऐसा उत्तर प्रदेश की लचर क़ानून व्यवस्था से जनता का ध्यान हटाने के लिए तो नहीं कर रहे हैं. प्रदेश में जो हालात हैं, वे किसी से छिपे नहीं हैं. अराजकता बढ़ती जा रही है, जातिवाद की राजनीति ने प्रदेश को बर्बाद कर रखा है और जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र कहते हैं कि मुलायम केवल जनता का ध्यान बांटने के लिए ऐसी बातें कर रहे हैं, ताकि प्रदेश में उनकी सरकार की असफलता पर कोई टीका-टिप्पणी न कर सके. वह कांग्रेस और बेनी पर हमलावर होने के अलावा, समय-समय पर तीसरे मोर्चे का भी राग अलापते रहते हैं, ताकि प्रदेश की जनता तीसरे और चौथे मोर्चे में ही उलझी रहे. मिश्र कहते हैं कि प्रदेश की क़ानून व्यवस्था जर्जर हो गई है. सपा सरकार प्रदेश को सांप्रदायिक आधार पर बांट रही है. उन्होंने मुलायम के तीसरे मोर्चे की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि वह किसका है और कहां है? बसपा भी सपा प्रमुख द्वारा केंद्र सरकार को दी जा रही धमकी को गंभीरता से नहीं ले रही है. बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य मुलायम पर तीखे प्रहार करते हुए कहते हैं कि वह गरजने वाले बादल हैं, बरसने वाले नहीं. वह तर्क देते हैं कि यदि आज चुनाव हो जाए, तो सपा के खाते में 12-15 से अधिक सीटें नहीं जाएंगी. उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष निर्मल खत्री कहते हैं कि सपा कांग्रेस से समर्थन वापस नहीं लेगी, वह सिर्फ़ दबाव बना रही है, क्योंकि राज्य में सपा सरकार की विश्वसनीयता में दिन-ब-दिन गिरावट आ रही है, जो आने वाले दिनों में और बढ़ेगी, इसीलिए सपा प्रमुख जल्दी चुनाव की हड़बड़ाहट में हैं. खत्री कहते हैं कि मुलायम सियासी पैतरेबाज़ी के ज़रिए केंद्र से कुछ और काम कराना चाहते होंगे. बेनी प्रसाद भी लगातार समाजवादी पार्टी और मुलायम पर हमला बोल रहे हैं. ताजा हमले में उन्होंने समाजवादी पार्टी की राजनीतिक ताक़त का ही आकलन कर डाला. उन्हें सपा के खाते में मात्र चार सीटें जाती दिख रही हैं, जो कि इटावा के आसपास की होंगी. उनकी भविष्यवाणी यह भी है कि बसपा को 26 और भाजपा को 10 सीटें मिलेंगी, जबकि कांग्रेस को वह 40 सीटें ही दिला रहे हैं.
कांग्रेस  हमलावर होकर सपा प्रमुख उसी रणनीति को अमलीजामा पहनाना चाहते हैं, जो उन्होंने विधानसभा चुनाव के समय अपनाई थी. तब मुलायम एवं अखिलेश के साथ-साथ सपा की पूरी टीम ने कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में प्रचार की कमान संभाल रहे राहुल गांधी के ख़िलाफ़ जमकर ज़हर उगला था, जबकि दिल्ली में यूपीए सरकार को उनका समर्थन जारी था. सपा प्रमुख को अब लगता यही है कि एक बार चुनाव हो जाएंगे, तो उन्हें फिर से अगले पांच वर्षों तक मनमानी करने का लाइसेंस मिल जाएगा और ऐसे में वह फिर कांग्रेस गोद में बैठ सकते हैं. सपा और कांगे्रस के बीच आज भले ही तीखी नोक-झोंक हो रही हो, लेकिन जानकार इसे नूरा-कुश्ती से अधिक मानने के लिए तैयार नहीं हैं. कहा जा रहा है कि मुलायम यूपीए को चंद महीनों की मोहलत और देंगे. इस दौरान वह केंद्र सरकार से अधिक से अधिक मदद हासिल करने की कोशिश करेंगे. ग़ौरतलब है कि इस समय केंद्र के पास उत्तर प्रदेश के विकास से संबंधित क़रीब 24 प्रस्ताव लंबित हैं और उनमें से कोई भी प्रस्ताव 150 करोड़ रुपये से कम का नहीं है. उक्त सारे प्रस्ताव 8500 करोड़ रुपये के आसपास बैठते हैं और पेट्रोलियम, पावर, सड़क, ट्रांसपोर्ट, रेलवे और कई अन्य क्षेत्रों से जुड़े हैं. केंद्र से अभी तक अखिलेश सरकार को 11 हज़ार 253 करोड़ रुपये मिल चुके हैं. यही नहीं, केंद्र उत्तर प्रदेश का वार्षिक आवंटन भी 47 हज़ार करोड़ से बढ़ाकर 57 हज़ार करोड़ रुपये कर चुका है. राज्य सरकार सिंचाई व्यवस्था और शहरों में आधारभूत ढांचा तैयार करने आदि में भी केंद्र से मदद चाहती है.
समाजवादी पार्टी को केंद्र में मज़बूत करने के लिए मुलायम एक तरफ़ तो कांग्रेस और यूपीए सरकार पर हमलावर हैं, वहीं दूसरी तरफ़ वह अखिलेश सरकार पर भी रणनीति के तहत हमला बोल रहे हैं, ताकि विरोधियों के मुंह पर ताला लगाया जा सके. कांग्रेस सपा को लेकर दोहरी रणनीति अपनाते हुए मुलायम की सियासत से निपटने के मूड में है. कुछ दिनों पूर्व एक तरफ़ कांग्रेस ने सपा प्रमुख पर निशाना साधा, तो  दूसरी ओर लखनऊ में केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के विकास कार्यों की तारीफ़ करते दिखे. सपा प्रमुख की नाराज़गी दूर करने के लिए उन्होंने सीधे नाम लेकर कहा, मैं नेता जी को विश्वास दिलाता हूं कि केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश के विकास के लिए प्रतिबद्ध है और हरसंभव मदद करती रहेगी. इसके विपरीत ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो यह मानकर चलते हैं कि बेनी प्रसाद कांग्रेस के इशारे पर उसका गुप्त एजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि, कांग्रेस बेनी के बयानों से ख़ुद को अलग बता रही है. बेनी के बयानों से सपा प्रमुख का सीना वैसे ही कम छलनी नहीं था, रही-सही कसर राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजित सिंह ने पूरी कर दी. कांग्रेस गठबंधन सरकार के मंत्री चौधरी अजित सिंह ने सपा प्रमुख पर निशाना साधते हुए कहा कि उन्हें मालूम नहीं रहता है कि वह क्या कर रहे हैं. वह सुबह कुछ कहते हैं, शाम को कुछ और. अजित सिंह ने मेरठ में कांग्रेस का बचाव करते हुए कहा कि मुलायम को कुछ भी बोलने से पहले कई बार सोच लेना चाहिए. वह बार-बार कांग्रेस और केंद्र सरकार पर अवांछित टिप्पणी करके मास्टर से छात्र बन रहे हैं. उन्हें स्वार्थ की राजनीति छोड़कर लोकतंत्र के हित में काम करना चाहिए. उधर, कांग्रेस को इस बात का पूरा भरोसा है कि मुलायम यूपीए सरकार से दूर नहीं जा सकते. अगर वह ऐसा करते हैं, तो केंद्र उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है. केंद्र की तरफ़ से मिलने वाली आर्थिक मदद रोकी जा सकती है. कांग्रेस यह कारनामा उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती बसपा सरकार के साथ कर भी चुकी है. केंद्र से मदद न मिलने के कारण बसपा प्रमुख एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा था.

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