नया भूमि अधिग्रहण,पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम 2011
नए भूमि अधिग्रहण विधेयक पर केंद्र सरकार की मंशा ठीक नहीं है. वह न सिर्फ मुल्क के करोड़ों किसानों को भ्रमित कर रही है, बल्कि संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों और सिविल सोसायटी के सुझावों को भी नहीं मान रही है. सरकार के इस रवैये से साबित होता है कि वह कॉरपोरेट्स को किसी भी क़ीमत पर नाराज़ नहीं करना चाहती, चाहे इसके एवज़ में चिथड़ों में लिपटे किसानों के हितों को दांव पर क्यों न लगा दिया जाए. इस मामले पर सरकार का इरादा क्या है और सिविल सोसायटी किस तरह का विधेयक चाहती है, पेश है चौथी दुनिया की यह ख़ास रिपोर्ट…
ग्रेटर नोएडा के भट्टा पारसौल में भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों की लाशें गिरने के बाद भूमि अधिग्रहण विरोधी संगठनों ने केंद्र सरकार पर दबाव बनाया कि वह अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे क़ानून को ख़त्म कर एक ऐसा विधेयक पारित करे, जिससे किसानों के चेहरे पर मुस्कराहट बनी रहे. भट्टा पारसौल की घटना के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई नेताओं ने पीड़ित परिवारों से मिलकर एक सशक्त क़ानून बनाने की बात ज़रूर कही, लेकिन अभी तक यूपीए सरकार नया भूमि अधिग्रहण क़ानून नहीं पेश कर सकी है. फिलहाल यूपीए सरकार अपनी कारगुजारियों से जिस क़दर उलझी हुई है, उसे देखकर नहीं लगता कि वह यह विधेयक पारित कर पाएगी. संसद के कई सत्र बीत चुके हैं, लेकिन नया भूमि अधिग्रहण क़ानून तारीख़ों में ही उलझ कर रह गया है. वैसे भी मौजूदा यूपीए सरकार से किसी जनहित की बात करना बेमानी है, क्योंकि वह ख़ुद जीवनरक्षक उपकरणों के सहारे जीवित है और किसी भी पल दम तोड़ सकती है.
बहरहाल, पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में नए भूमि अधिग्रहण विधेयक पर नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) ने एक विमर्श आयोजित करके इस बाबत लोगों की राय जानने की कोशिश की. भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम सितंबर 2011 में संसद में पेश किया गया और उसे संसद की स्थायी समिति (स्टैंडिंग कमेटी) के पास भेज दिया गया. स्थायी समिति ने ज़ल्द ही अपनी स़िफारिशें सरकार के पास भेज दीं, लेकिन सरकार ने भूमि अधिग्रहण के मामले में स्थायी समिति की मूल स़िफारिशों को बार-बार ख़ारिज किया. सरकार का यह रवैया न स़िर्फ असंवैधानिक है, बल्कि मुल्क के करोड़ों किसानों और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ भी है. एक तऱफ सरकार संसद की स्थायी समिति द्वारा की गईं मुख्य स़िफारिशें नहीं मान रही, वहीं दूसरी तऱफ ग्रामीण विकास मंत्रालय के मसौदे पर उसकी सहमति दिख रही है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब सरकार को अपनी मर्जी ही चलानी है, तो वह स्थायी समिति गठित करके जनता को धोखा क्यों देती है.
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जो मसौदा पेश किया है, वह सिविल सोसायटी को कतई मंजूर नहीं है, क्योंकि वह खुले तौर पर निजी कंपनियों के लिए जनहित में भूमि अधिग्रहण करने की बात करता है. नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट से जुड़ीं सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर प्रस्तावित नए भूमि अधिग्रहण विधेयक पर कहती हैं कि इस विधेयक पर केंद्र सरकार का जो रवैया है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उसे किसानों के हितों की तनिक भी चिंता नहीं है. उन्होंने कहा कि किसी भी तरह की निजी परियोजना और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के तहत सरकार को किसानों की ज़मीन अधिग्रहीत नहीं करनी चाहिए. यह सुझाव संसद की स्थायी समिति ने भी सरकार को दिया था, लेकिन उनके सुझावों की अनदेखी करते हुए 80 और 70 फीसद भू-स्वामियों की मंजूरी के साथ सरकार ने निजी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण का प्रावधान इस विधेयक में किया है. उनके मुताबिक़, ज़मीन मालिक और उस पर आश्रित लोगों की सहमति सरकारी परियोजनाओं के लिए भी ज़रूरी है. पुराने क़ानून से सरकारी परियोजनाओं के नाम पर किसानों से जबरन ज़मीनें छीनी गई हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद एवं स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य प्रबोध पांडा ने चौथी दुनिया को बताया कि जब तक नया भूमि अधिग्रहण क़ानून पारित नहीं हो जाता, तब तक भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया रोक देनी चाहिए. इसके अलावा, उन्होंने यह मांग की कि इस क़ानून को पुराने सभी भूमि अधिग्रहणों पर लागू होना चाहिए. उनके अनुसार, आदिवासी इलाक़ों में समान गुणवत्ता की ज़मीन के बदले ज़मीन का प्रावधान होना चाहिए. वन संरक्षण क़ानून की तरह कृषि भूमि के संरक्षण के लिए एक अलग क़ानून होना चाहिए. साथ ही, ज़मीन की क़ीमत तय करने के लिए एक प्राइस कमीशन हर राज्य में बनना चाहिए.
सामाजिक कार्यकर्ता वी के सक्सेना के अनुसार, नए भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर केंद्र सरकार की नीयत सा़फ नहीं है. वह औद्योगिक घरानों के दबाव में आकर अपने मनमाफिक क़ानून बनाना चाहती है. पूरे देश में भू-माफिया सक्रिय हैं, साथ ही सरकार, नौकरशाहों और कॉरपोरेट घरानों के बीच गठजोड़ है, जो छल-बल से किसानों की ज़मीनें हथियाना चाहते हैं. उनके अनुसार, कॉरपोरेट घरानों को सीधे किसानों से ज़मीन ख़रीदने की मंजूरी देना भी ख़तरे से खाली नहीं है. इसीलिए सरकार को चाहिए कि वह इस बात को गंभीरता से समझे. उन्होंने कहा कि इस बिल में भले ही देरी हो, लेकिन हमें ऐसा कोई विधेयक मंजूर नहीं है, जो किसानों को तबाही की क़गार पर पहुंचा दे. किसान संघर्ष समिति के नेता डॉ. सुनीलम के अनुसार, नए भूमि अधिग्रहण विधेयक को इस तरह बनाया जाना चाहिए कि उससे किसानों और भूमिहीनों को नुक़सान न पहुंचे. दिल्ली उच्च न्यायालय में अधिवक्ता शाहिद अली ने कहा कि क़ानून ऐसा बने, जो मुल्क के करोड़ों काश्तकारों के लिए फायदेमंद साबित हो. नया क़ानून बनने में हो रही देरी पर अ़फसोस ज़ाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण के नाम पर किसानों की हत्याएं की जा रही हैं. दरअसल, केंद्र एवं राज्य सरकारें प्रॉपर्टी डीलर की भूमिका में नज़र आती हैं, जो देश के लिए सही नहीं है.
एनएपीएम की मुख्य मांगें
- नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में सार्वजनिक मक़सद की परिभाषा के साथ कुछ मुद्दे 1894 के मौजूदा क़ानून से भी बदतर हैं. सार्वजनिक मक़सद की परियोजनाओं में निजी उद्योग और प्रोजेक्ट लाने की बात नाइंसा़फी है.
- ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामसभा/बस्ती सभा का अधिकार है, लिहाज़ा उसकी मंजूरी के बग़ैर कोई अधिग्रहण नहीं होना चाहिए.
- कृषि योग्य ज़मीन ग़ैर-कृषि कार्य के लिए हस्तांतरित न की जाए.
- केंद्र सरकार नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में सार्वजनिक मक़सद की परिभाषा स्पष्ट करे और पुनर्वास को नगदी मुआवज़ा समझने की भूल न करे.
- अधिग्रहीत ज़मीन पर किसानों का मालिकाना हक़ बरक़रार रहे और उनके रोज़गार की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए.
- निजी परियोजनाओं और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण न किया जाए.
- शहरी इलाक़ों के लिए सरकार एक अलग क़ानून बनाए.
- पुनर्स्थापन और पुनर्वास के तहत प्रत्येक परिवार के सदस्य को वैकल्पिक जीविका का स्रोत भी मुहैया कराया जाना चाहिए.
- आज़ादी के बाद भूमि अधिग्रहण की वजह से 10 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं. उनमें से स़िर्फ 17 फीसद लोगों को ही न्याय मिल पाया है. इसीलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि वह राष्ट्रीय पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास आयोग का गठन करे.
- सरकार संसदीय स्थायी समिति की सिफारिशों को माने, औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण क़ानून 1894 और कृषि विरोधी विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) 2005 रद्द हों.
- आज़ादी से लेकर अभी तक हुए सभी भूमि अधिग्रहणों, विस्थापन के कारणों और पुनर्वास का पूरा लेखा-जोखा सरकार एक श्वेत-पत्र के ज़रिए जारी करे.
- भारत सरकार और सभी राज्य सरकारें निजी कंपनियों के साथ किए गए मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) को सार्वजनिक करें.