modi-kerry_0_0_0_0जिस देश में भूख से मौत होती हो, खाने की कमी से बच्चे कुपोषण का शिकार होते हों और जहां सरकार को खाद्य सुरक्षा जैसा क़ानून बनाना पड़ता हो, क्या वह देश कभी विश्‍व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ की उस संधि पर दस्तखत करेगा, जो उसे खाद्य भंडारण से रोके या कृषि सब्सिडी कम करने के लिए बाध्य करे? बिल्कुल नहीं. और, भारत जैसे देश को तो कभी भी इस तरह के करार के लिए तैयार नहीं होना चाहिए. यह अच्छी बात है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने डब्ल्यूटीओ की अनाप-शनाप शर्तें मानने से इंकार किया है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि हमारी सरकार कब तक अमेरिकी दबाव मानने से इंकार करती रहेगी? सवाल यह भी कि आख़िर अमेरिका क्यों चाहता है कि भारत डब्ल्यूटीओ की बातें मान ले?

सितंबर में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा प्रस्तावित है. जाहिर है, यह यात्रा बहु-प्रचारित और
बहु-प्रतीक्षित है. संभव है कि इस यात्रा में भी डब्ल्यूटीओ का मुद्दा सामने आए. ऐसे में यह देखना ज़रूरी है कि मोदी इस मुद्दे पर अमेरिका को क्या जवाब देते हैं?

सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि आख़िर यह मसला है क्या? विश्‍व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ चाहता है कि कृषि सब्सिडी कुल खाद्यान्न उत्पादन की 10 फ़ीसद क़ीमत से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए और खाद्यान की क़ीमत लगाई जा रही है 1986-88 के आधार पर. लेकिन, भारत डब्ल्यूटीओ के इस नियम से इत्तेफाक नहीं रखता है. भारत चाहता है कि खाद्य सब्सिडी के लिए इसकी क़ीमत के निर्धारण के लिए जो साल 1986-88 निर्धारित है, उसमें बदलाव किया जाए. यह मांग जायज भी है, क्योंकि 1986-88 के मुकाबले आज महंगाई और मुद्रा के मूल्य में काफी बदलाव हो चुका है. यह अच्छी बात है कि भारत ने डब्ल्यूटीओ के इस समझौते का विरोध किया है और अभी तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किए. ग़ौरतलब है कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों के बीच आम सहमति के बाद ही यह डील लागू की जा सकती है. इस पूरे विवाद के केंद्र में है भारत का खाद्य सुरक्षा क़ानून और किसानों को मिलने वाली सब्सिडी. भारत इस मुद्दे पर स्थायी समाधान चाहता है. इस मुद्दे पर डब्ल्यूटीओ के 160 सदस्य देशों में से मात्र क्यूबा, वेनेजुएला और बोलिविया भारत के पक्ष में हैं. बाकी देशों के विरोध के बावजूद भारत अपने निर्णय पर अडिग है. भारत का यह निर्णय पूरे विश्‍व के बीच के अंतरराष्ट्रीय संबंध और व्यापार को प्रभावित करेगा. डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों ने 31 जुलाई, 2014 तक खाद्य उत्पादों पर सीमा शुल्क तय करने के मसौदे पर अंतिम सहमति बनाने का समझौता किया था, लेकिन भारत ने साफ़ कर दिया है कि इस रजामंदी के साथ ही खाद्य भंडारण और सब्सिडी के मुद्दे पर भी अंतिम सहमति हो जानी चाहिए. भारत इस समझौते में कुछ और भी संशोधन करना चाहता है, जैसे खाद्य सब्सिडी तय करने के लिए आधार वर्ष में बदलाव. भारत की ओर से विरोध होने की वजह से डब्ल्यूटीओ के खाद्य समझौते के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है.


 
करार की आड़ में व्यापार
डब्ल्यूटीओ के इस करार के पीछे एक बड़ा राज छिपा हुआ है. अमेरिका और कई विकसित देश इस समझौते से अपने लिए विकासशील देशों में खाद्यान के रूप में एक नया बाज़ार देख रहे हैं. अगर यह समझौता हो जाता है और पूरी दुनिया इसे मान लेती है, तो इससे खाद्य उत्पाद के वैश्‍विक व्यापार में 60 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि का अनुमान है. जाहिर है, इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा विकसित देशों को होगा. अंतरराष्ट्रीय संबंधों-समझौतों का एक मुख्य उद्देश्य कारोबार होता है, चाहे वह समझौता न्यूक्लियर एनर्जी से जुड़ा हुआ हो या कृषि उत्पाद से. ऐसे में भारत को भी अपना हित पहले देखना होगा. वैश्‍विक कारोबार में एक बड़ा भाग खाद्यान्न का भी है और भारत एक बड़ा बाज़ार है. ऐसे में अमेरिका समेत कई विकसित देश भारत जैसे विशाल बाज़ार पर कब्जा करना चाहेंगे. इसके लिए यह ज़रूरी है कि भारत डब्ल्यूटीओ के इस करार को मान ले और खाद्यान्न भंडारण समेत कृषि सब्सिडी कम करे. कृषि सब्सिडी कम करने का अर्थ है भारतीय किसानों की कमर तोड़ना.


 
जाहिर है, भारत को पहले अपने देश के किसानों और ग़रीबों के हितों को देखना होगा. ऐसे समझौते पर दस्तखत करने का सीधा अर्थ है ग़रीबों और किसानों के हितों की अनदेखी. भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है. इसके लिए खाद्य सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है. 31 जुलाई तक इस पर फैसला किया जाना था. अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी का दौरा भी इस समझौते की आख़िरी तारीख के आस-पास ही हुआ था. जाहिर है, कैरी इस समझौते को मानने के लिए भारत पर दबाव बनाना चाहते थे, लेकिन सरकार ने इससे इंकार करते हुए साफ़ कर दिया कि भारत खाद्य सुरक्षा क़ानून के लिए बड़े स्तर के भंडारण में कमी नहीं करेगा और सब्सिडी के जो प्रावधान डब्ल्यूटीओ के तहत रखे जा रहे हैं, वे विकसित देशों के हितों को ही बढ़ावा देते हैं. अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने उम्मीद जताई है कि भारत इस बारे में दोबारा विचार करेगा. यह दिख रहा है कि अमेरिका विश्‍व व्यापार संगठन में खाद्य सब्सिडी के मुद्दे पर भारत के रवैये से असंतुष्ट है. अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी और वाणिज्य मंत्री पेनी प्रिटजकर ने डब्ल्यूटीओ में भारत के रुख को बेहद निराशाजनक करार दिया. दोनों ने यह तो उम्मीद जताई कि भारत के रुख में बदलाव होगा, लेकिन साथ ही छिपे स्वर में यह धमकी भी दी है कि अगर ऐसा नहीं होता है, तो उसे कुछ दुष्परिणाम भी देखने पड़ सकते हैं.
डब्ल्यूटीओ का यह विवाद कोई नया नहीं है. जबसे यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा क़ानून लाने की बात शुरू की, तभी से भारत का डब्ल्यूटीओ से इस मसले पर मतभेद शुरू हो गया. डब्ल्यूटीओ ने पहले ही खाद्य सुरक्षा क़ानून को लेकर चिंता जताई थी. बाली में हुई मंत्रिस्तरीय बैठक से पहले ही डब्ल्यूटीओ प्रमुख रोबर्तो एजेवीदो ने कहा था कि भारत के खाद्य सुरक्षा क़ानून से सब्सिडी का स्तर बढ़ेगा. असल में, खाद्य सुरक्षा योजना में ग़रीबों को बहुत ज़्यादा सब्सिडी पर अनाज प्राप्त करने का क़ानूनी अधिकार दिया गया है. इस योजना के तहत दी जाने वाली यह बहुत ज़्यादा सब्सिडी ही डब्ल्यूटीओ की चिंता का विषय है. डब्ल्यूटीओ प्रमुख एजेवीदो ने खाद्य सुरक्षा योजना को बेहद जटिल मुद्दा करार दिया था. खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत 82 करोड़ लोगों को महीने में प्रति व्यक्ति एक से तीन रुपये प्रति किलो की दर से पांच किलो अनाज दिया जाना है. इसके लिए 6.2 करोड़ टन अनाज की ज़रूरत है. भारत अपने रुख पर कायम है और उसे उम्मीद है कि डब्ल्यूटीओ में सदस्य मित्रों से समर्थन मिलेगा. सरकार के मुताबिक, देश के किसानों के हितों के साथ समझौता नहीं किया जा सकता. भारत ने खाद्य सुरक्षा से जुड़े मुद्दों के समाधान के लिए विशेष सत्रों का सुझाव दिया है. इसके लिए 31 दिसंबर की समय सीमा का प्रस्ताव किया गया है. वैसे डब्ल्यूटीओ प्रमुख रोबर्तो एजेवीदो ने भी वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमण से भारत से जुड़े मुद्दों पर बातचीत करके एक प्रस्ताव दिया है. 28 जुलाई को मिले इस प्रस्ताव में खाद्य सुरक्षा मुद्दों के स्थायी समाधान की बात कही गई थी. इसमें कार्यक्रम का पूरा ब्योरा था, लेकिन सूत्रों के मुताबिक, इसमें यह स्पष्ट नहीं था कि मामले का स्थायी समाधान दिसंबर तक तलाशा जा सकता है या नहीं.
बहरहाल, सितंबर में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा प्रस्तावित है. जाहिर है, यह यात्रा बहु-प्रचारित और बहु-प्रतीक्षित है. संभव है कि इस यात्रा में भी डब्ल्यूटीओ का मुद्दा सामने आए. ऐसे में यह देखना ज़रूरी है कि मोदी इस मुद्दे पर अमेरिका को क्या जवाब देते हैं? वैसे उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत अमेरिकी हित के आगे अपने करोड़ों किसानों और ग़रीबों के हितों की कुर्बानी नहीं देगा? वैसे भी यह करार उन विकसित देशों के लिए है, जो अपने यहां सड़ रहे अनाज के लिए एक विशाल बाज़ार की तलाश कर रहे हैं. ये ऐसे देश हैं, जिनके लिए भारत एक बाज़ार भर है. ऐसे में भारत सरकार को सबसे पहले अपने हितों को देखना होगा.


जीएम फसलों का फील्ड ट्रायल
आरएसएस से जुड़े संगठनों ने यह दावा किया था कि जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल पर रोक लगा दी गई है, लेकिन सरकार ने इस दावे को खारिज कर दिया है. सरकार ने कहा है कि अभी इस पर कोई फैसला नहीं लिया गया है. पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि अभी मंत्रालय को इस मुद्दे पर फैसला लेना बाकी है. स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ ने चावल, बैंगन और कपास की जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों के खेतों में परीक्षण पर रोक लगाने की मांग की थी. फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है. दरअसल, विदेशी कंपनियों द्वारा यह प्रचारित किया जाता रहा है कि भविष्य के खाद्य संकट से मुकाबला करने के लिए हमें जीएम यानी जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों को अपनाना होगा. भविष्य की खाद्य सुरक्षा के लिए यह ज़रूरी है. लेकिन, भारत में इसका असर उल्टा भी हो सकता है. मसलन, जीएम बीजों के उपयोग से एक तो देश के किसान बीज के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर हो जाएंगे और दूसरा यह कि हम खेती के अपने प्राचीन तरीकों को खो देंगे. खाद्य सुरक्षा के लिए उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है, लेकिन इसके लिए विदेशी कंपनियों पर निर्भर होना एक अलग तरह के ख़तरे को आमंत्रित करने जैसा है.


 

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