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आज सस्ते कच्चे माल और महंगे पक्के माल से ग्रामीणों का कैसा शोषण हो रहा है! एक किलो रुई की क़ीमत 10 रुपये है. इससे बनने वाली मिल की चार धोतियों या कपड़ों की क़ीमत 100-125 रुपये होती है, यानी 10 रुपये गांव के किसान-मज़दूर को और 100 से अधिक रुपये शहर के संगठित मज़दूर, व्यवस्थापक वर्ग और टाटा-बिड़ला जैसे पूंजीपति को. गेहूं का दाम दो रुपये किलो है और उससे बने पारले बिस्कुट का दाम 22 रुपये. कितना भयंकर मुनाफा है यह! शहर के कारखाने का मालिक बिस्कुट या कपड़े का लागत-खर्च निकालते समय ऊंची दर पर अपनी मज़दूरी और वेतन तो लगाता ही है, साथ ही साथ प्रथम श्रेणी या वातानुकूलित डिब्बे में सफर, पंचतारा होटलों-महानगरों में रहने और टेलीविजन आदि विलास के खर्चे भी पक्के माल के लागत-खर्च में जोड़े जाते हैं. इसके अलावा, कई वस्तुओं में बेतहाशा मुनाफा लिया जाता है. कई दवाएं लागत-खर्च पर हज़ार-दो हज़ार प्रतिशत मुनाफा जोड़कर बाज़ार में बेची जाती हैं. इसलिए इस बहिष्कार-आंदोलन से न केवल शोषण रुकेगा, बल्कि साथ-साथ गांवों में काम की मात्रा बढ़ने से पूर्ण रोज़गार की दिशा में गांव ठोस क़दम भी उठाएंगे. इस प्रकार शोषणयुक्त गलत अर्थव्यवस्था से न केवल असहयोग होगा, बल्कि साथ-साथ गांवों में इन चीजों के उत्पादन से वैकल्पिक रचना का निर्माण भी होगा. अत: गलत रचना का ध्वंस और वैकल्पिक रचना का निर्माण, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू साथ-साथ चलेंगे. गांधी जी ने रचनात्मक कार्यक्रम और सत्याग्रह, ये जो अमोघ अस्त्र जनता को दिए, उनका उपयोग कर यह आंदोलन चलाया जाना चाहिए.
आंदोलन का स्वरूप निर्दलीय होगा और शांतिपूर्ण भी. इस न्यायसंगत मांग को मानने वाला कोई भी नागरिक, भले ही वह किसी राजनीतिक दल का सदस्य हो या न हो, एक नागरिक की हैसियत से इस आंदोलन में शामिल हो सकेगा. अपने-अपने दल की नीतियां बढ़ाने या गुटबाजी करने के लिए दलों के सदस्य इस आंदोलन में शामिल न हों. मंदिर में जाते समय हम अपने जूते, चप्पल और सैंडिल बाहर खोलकर मंदिर में प्रवेश करते हैं. ठीक वैसे ही अपने दल के विचारों को छोड़कर इस आंदोलन में नागरिक के नाते कोई भी शामिल हो. आज भी सारे राजनीतिक दलों के सदस्यों की संख्या मतदाताओं की संख्या के अनुपात में 10 प्रतिशत से अधिक नहीं है. दूसरे शब्दों में, 90 प्रतिशत नागरिक निर्दलीय हैं. दलों के सदस्यों में भी ग्राम-स्तर के सदस्य आंदोलन शुरू होते ही इसमें शामिल हो जाएंगे, क्योंकि उनकी दलीय निष्ठा बहुत गहरी नहीं होती है. वास्तव में यह आंदोलन किसी के ख़िलाफ़ है भी नहीं. अत: 90 प्रतिशत निर्दलीय नागरिक अपनी शक्ति को पहचान कर इस आंदोलन में अग्रिम पंक्ति में दाखिल हों. यह आंदोलन देश भर या देश के अधिक से अधिक हिस्सों में एक ही समय किया जाए, तो इसका असर जल्द हो सकता है, अन्यथा आंदोलन की स्थायी सफलता कठिन होगी. अत: देश भर में एक ही समय आंदोलन शुरू होना चाहिए.
यह आंदोलन संपूर्ण रूप से शांतिपूर्ण होना चाहिए. इस बारे में अगर कोई ढिलाई बरती गई या लाठी, ईंट-पत्थर का प्रयोग जनता की ओर से हुआ, तो सरकार को दमन, यानी गोली-चालन का मौक़ा या निमित्त मिल सकता है. ऐसा हुआ, तो जनता की हार होगी. किसी प्रकार की तोड़-फोड़ या संपत्ति नष्ट करना इस आंदोलन में नहीं होना चाहिए. वैसा हुआ भी नहीं है. ग्रामीण समाज इस देश का मालिक है. वह अपनी ही संपत्ति नष्ट कैसे करेगा? इसलिए सत्याग्रहियों को शांतिपूर्णता की शपथ लेकर इस आंदोलन में उतरना होगा. रणनीति की दृष्टि से भी शांतिपूर्णता की शर्त अनिवार्य है. 70-80 प्रतिशत जनता जिस आंदोलन में हिस्सा लेती है, उसे दंगा-फसाद या अशांति करने की ज़रूरत ही क्या है? इसलिए हमारी संख्या को शक्ति मानकर और शांतिपूर्णता शक्ति की निशानी है, यह विचार करके बहादुरी से इस आंदोलन में हर एक को हिस्सा लेना चाहिए और कष्ट सहन करने चाहिए. इन कष्टों के कारण ग्रामीणों की तपस्या होगी, उनकी आत्म-शुद्धि होगी और उनका संगठन सुदृढ़ होगा. आत्म-शुद्धि और संगठन, ये दो सफलता की कसौटियां हैं. इसलिए निर्दलीयता और शांतिमयता की कसौटियों से आंदोलन को एक क्षण के लिए विचलित नहीं होना चाहिए.

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