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अमेरिका में आउटसोर्सिंग की विरोधी लॉबी अपने पक्ष में यह तर्क दे रही है कि भारतीय उस शैली में अंग्रेजी नहीं बोल पाते, जिससे कि वे अमेरिकी नागरिकों को इस बात का यकीन दिला सकें कि हां, उनकी बातचीत उनके ही देश के किसी नागरिक से हो रही है. साथ ही वह समय की कीमत को नहीं समझते.
पिछले वर्षों में अमेरिका में आई मंदी के दौरान यह मांग बड़ी जोर पर थी कि हमारा रोजगार बाहर जा रहा है, जबकि देश कमजोर अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है. इसी मांग के मद्देनजर अमेरिका में आउटसोर्सिंग पर पाबंदी लगाने पर बहस शुरू हुई. ओबामा के राष्ट्रपति चुनाव में यह बहस एक एजेंडे के तौर पर थी. यह बहस एक बार फिर जिंदा हुई, जब अगस्त के पहले सप्ताह में अमेरिकी संसद के दोनों दलों के छह सांसदों के एक समूह ने एक बिल संसद में पेश किया है, जिससे कंपनियों के लिए अपने कॉल सेंटर संबंधी काम भारत सहित अन्य देशों से करवाना, यानी आउटसोर्स करना मुश्किल होगा. जाहिर-सी बात है कि भारतीय युवाओं के एक बड़े तबके का रोजगार आउटसोर्सिंग से पैदा हुई अर्थव्यवस्था पर ही निर्भर है. मान लीजिए कि यह बिल पास हो जाता है, तो इस बात का खतरा आसन्न हो जाएगा कि हर साल 50 फीसद की दर से बढ़ रहे जिस आउटसोर्सिंग उद्योग की बदौलत हम अपनी इकोनॉमी के वैश्‍विक पटल पर बेहतरी की आस लगाए बैठे हैं, उसकी नींव डोल रही है,
इसे समझने की जरूरत है. पहला सवाल तो यही है कि यह बिल पास भी हो पाएगा या नहीं. पहले के अनुभव तो भारत के पक्ष में ही जाते हैं. अमेरिका में आउटसोर्सिंग के खिलाफ करीब सौ विधेयक पेश हो चुके हैं, लेकिन पास अभी तक एक भी नहीं हुआ है. पिछली बार जब यह बिल पेश हुआ था, तो रिपब्लिकन सांसदों ने रोड़ा अटका दिया था. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए यह ब़डा झटका माना जा रहा है.
आउटसोर्सिंग विरोधी विधेयक पर गौर करें, तो इस विधेयक में वह व्यवस्था है, जिसके तहत उन अमेरिकी कंपनियों के लिए कर रियायतें खत्म कर दी जाएंगी, जो विदेशों में ठेके पर काम कराती हैं और अमेरिका से बाहर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं. रिपब्लिकन इसके विरोध में हैं. उनका मत है कि यह एक राजनीतिक दांव-पेंच है, जिससे कंपनियों पर कर का बोझ बढ़ेगा. काफी कुछ यह स्थिति भारतीय राजनीति से ही मेल खाती दिख रही है, जिसमें जब विदेशी निवेश या अन्य ऐसे मुद्दों की बात होती है, तो वाम दल उसके विरोध में आ जाते हैं, लेकिन क्या हर बार रिपब्लिकन की इस मांग को संख्या बल मिल पाएगा, कहा नहीं जा सकता. इसका सबसे बड़ा खतरा अमेरिका के श्रम संघ और वामपंथी संगठन हैं. आउटसोर्सिंग के विरोध में उनका तर्क है कि कर तो स्थानीय जनता से लेते हैं, लेकिन रोजगार के अवसर विदेशी लोगों को देते हैं, लेकिन अमेरिका में श्रम संघों और वामपंथी दलों का सरकारी तंत्र में इतना दबाव नहीं है कि वे किसी नीति को लागू करने में बड़ी भूमिका निभा पाएं, क्योंकि पूंजीवादी देशों में ज्यादातर नीतियां कॉरपोरेट के माध्यम से तय हो रही हैं. आउटसोर्सिंग के विरोध को गलत साबित करती हुई बीच ग्लोबल रिसर्च एजेंसी की रिपोर्ट कहती है कि 2010 में यूरोप की लगभग 53 प्रतिशत कंपनियां एशियाई देशों से आउटसोर्सिंग करना चाहती हैं. भारत के ही संदर्भ में देखें, तो हमारे यहां की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों का 60 प्रतिशत कारोबार अमेरिका के साथ होता है.
काबिलेगौर तो यह है कि अमेरिका में मौजूद मजदूर संगठन और सरकारी विभाग भी इस बात से अनजान है कि आउटसोर्सिंग की वास्तविक स्थिति क्या है और कितनी नौकरियां बाहर स्थानांतरित हुई हैं. भारत के संदर्भ में देखें, तो यह काफी कुछ ऐसा ही है, जैसे वॉलमार्ट का विरोध करते हुए समाजवादी पार्टी के एक नेता ने कहा था कि उन्हें नहीं पता कि वॉलमार्ट क्या है और इसके आने से क्या नुकसान होगा. चूंकि यह पार्टी की लाइन है कि इसका विरोध करना है, इसलिए मैं कर रहा हूं. सरकारी तंत्र के बीच में चलने वाली रस्साकस्सी की ऐसी ही स्थितियां अगर अमेरिका में भी बनीं, तो यह तो पक्का है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में नकारात्मक स्थितियां बनती नहीं दिखाई दे रही हैं.
मजे की बात तो यह है कि आउटसोर्सिंग के मसले को अमेरिका जैसे देश में राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है, जहां व्यवस्था काफी हद तक प्रगतिवादी है. सूत्रों के मुताबिक, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभाने वाली आईबीएम, इंटेल, मोटोरोला, हैवेलेट पैकर्ड और डेल जैसी नामचीन कंपनियों का कहना है कि आउटसोर्सिंग पर राजनीति करने और उस पर बवाल करने से अच्छा है कि अमेरिकी औद्योगिक और व्यावसायिक मैनेजमेंट पर इस तरह जोर दे कि शिक्षा और प्रतिस्पर्द्धा का स्वस्थ माहौल बने, जिससे अमेरिकी रोजगार बाहर स्थानांतरित करने की नौबत ही न आए. इस विवाद के शुरुआती दिनों में खासकर राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान जब इसे हवा मिली थी, तो नासकॉम के प्रमुख रहे किरण कार्णिक ने एक बार कहा था कि आउटसोर्सिंग तब तक खतरे में नहीं है, जब तक कि हम बेहतर क्वालिटी की सर्विस देते रहेंगे, लेकिन इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि अगर इस हवा ने और जोर पकड़ा, तो भारतीय अर्थव्यवस्था में तकरीबन 150 अरब डॉलर का योगदान देने वाले बीपीओ उद्योग पर हमारे वर्चस्व का बना रहना कुछ प्रभावित हो सकता है और इस पर प्रभाव प़डने के लिए जिम्मेदार अमेरिका नहीं, हम स्वयं होंगे.
आपको याद होगा, जब पुणे स्थित इंफोसिस कंपनी के तीन पूर्व कर्मचारियों की धोखाधड़ी ने समूची आउटसोर्सिंग इंडस्ट्री को मुश्किल में खड़ा कर दिया था. इन कर्मचारियों ने न्यूयॉर्क के चार सिटी बैंक खाताधारियों के गोपनीय आंकड़े चुराकर उन्हें करीब तीन लाख डॉलर की चपत लगा दी. अभी कुछ महीने पहले ही नोएडा स्थित एक कंपनी, जो कि अमेरिका के फुल्लन वेल्लोस नाम की कंपनी से कच्चा माल आयात करती है, अमेरिकी कंपनी ने मेल के माध्यम से अपना अकाउंट नंबर भेजकर पेमेंट मांगा, लेकिन भारत में मेल हैक कर दूसरे अकाउंट का उल्लेख कर उसमें 52 लाख रुपये मंगा लिए गए. ऐसा नहीं है कि यह घटनाएं केवल भारत में ही होती हैं. ये कहीं भी हो सकती हैं, लेकिन ऐसी घटनाएं अमेरिका की उस लॉबी को बल जरूर देती है, जो कि आउटसोर्सिंग के विरोध में आवाज लगा रही है.
दूसरी शिकायत, जो अमेरिका में आउटसोर्सिंग की विरोधी लॉबी अपने पक्ष में दे रही है, वह यह कि भारतीय उस शैली में अंग्रेजी नहीं बोल पाते, जिससे कि वे अमेरिकी नागरिकों को इस बात का यकीन दिला सकें कि हां, उनकी बातचीत उनके ही देश के किसी नागरिक से हो रही है. साथ ही वह समय की कीमत को नहीं समझते और उनकी कॉल को बिना वजह इधर-उधर टालते रहते हैं. हालांकि यह सभी शिकायतें नजरअंदाज की जा सकती हैं, क्योंकि एक देश के नागरिक हमेशा ही खुद को दूसरे देश के नागरिकों से बेहतर समझते रहे हैं, इसलिए इन शिकायकों को उतना तूल मिलना मुश्किल है, लेकिन जो आरोप आउटसोर्सिंग इंडस्ट्री की स्थिरता के लिए संकट पैदा करने वाली स्थिति ला सकता है, वह है, यहां बाहरी कंज्यूमर का डेटा सुरक्षित न रह पाना. रिजर्व बैंक ऑफ डलास के मुताबिक, वहां करीब सौ अरब रुपये की रकम सिर्फ उपभोक्ताओं के डेटा की प्राइवेसी और सुरक्षा पर खर्च होती है. कंपनियां भी अपने कुल आईटी बजट का पांच से पंद्रह फीसद हिस्सा सिर्फ इसी मद में खर्च करती हैं. भारत में लोग इसे बेहद हल्के में लेते हैं, लेकिन अमेरिका में यह एक गंभीर अपराध है. ई-कॉमर्स के जमाने में किसी का निजी डेटा हासिल कर आप उसे ब़डे पैमाने पर नुकसान पहुंचा सकते हैं, लेकिन भारत में जैसा मैंने पहले ही कहा कि डेटा सुरक्षा के सवाल पर कभी गौर नहीं किया जाता.
हम भले ही डिजिटल युग में प्रवेश कर चुके हों, लेकिन साइबर सुरक्षा को लेकर जो कानून बनने चाहिए और उन पर जिस कठोरता के साथ अमल होना चाहिए, उसमें अभी हम काफी पीछे हैं. हालांकि भारतीय कंपनियां और बैंकिंग व पैसों के लेनदेन से जुड़ी कंपनियां उपभोक्ताओं के डेटा सुरक्षा के कुछ प्रचलित मानकों पर अमल करने का भरोसा उपभोक्ताओं को देती हैं, लेकिन उन उपायों के बावजूद भारत में सुरक्षात्मक दुर्घटनाएं हो ही जाती हैं. दूसरे, उपभोक्ताओं की उदासीनता और चलता है, की सोच डेटा की गोपनीयता और सुरक्षा की गारंटी देने वाले प्रामाणिक कदम की राह में बड़ी मुश्किल है. यही वजह है कि आउटसोर्सिंग में एक दशक लगाने के बाद भी हम अपने आपको विश्‍वसनीय सिद्ध नहीं कर पाए हैं.
इन सब खामियों के बाद भी अमेरिका यह भली-भांति समझता है कि आउटसोर्सिंग सतत प्रक्रिया है और व्यावसायीकरण के दौर में इसे रोका नहीं जा सकता. खासतौर से जैसे-जैसे दुनिया में नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिंग की मांग तेजी से बढ़ी है, वैसे-वैसे इस उद्योग में भारत के कारोबार की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं. यह इंडस्ट्री अब लीगल प्रोसेस आउटसोर्सिंग और क्लीनिकल ट्रायल मैनेजमेंट जैसी सेवाओं को भी अपने दायरे में ले रही है. मेडिकल सेक्टर से जुड़ी कंपनियों को शोध व विकास की बढ़ी हुई लागत से जूझना पड़ रहा है. इसे कम करना उनके लिए प्राथमिक चुनौती है. ऐसे में इस उद्योग की ज्यादातर कंपनियां अपनी लागत को कम करने के लिए अब आउटसोर्सिंग का सहारा ले रही हैं.
नि:संदेह विश्‍व व्यापार संगठन के नियमों का उल्लंघन करते हुए अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन सहित दुनिया के कई देशों की सरकारों द्वारा आउटसोर्सिंग को हतोत्साहित करने के कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन विकसित देशों में आउटसोर्सिंग के पक्षधरों का यह तर्क है कि वैश्‍विक यथार्थ एवं प्रतिस्पर्धा को देखते हुए आउटसोर्सिंग जैसी ताकत के बल पर व्यापारिक एवं औद्योगिक चुनौतियों का सामना करने में सरलता होती है. नास्कॉम की एक रिपोर्ट इस संदर्भ में भारतीय परिप्रेक्ष्य को और मजबूत करते हुए कहती है कि भारत में आउटसोर्सिंग पर कोई खतरा नहीं है. दुनिया का कोई भी देश अपने उद्योग-व्यवसाय को किफायती रूप से चलाने के लिए भारत की आउटसोर्सिंग इंडस्ट्रीज को नजरअंदाज नहीं कर सकता है. समूचा विश्‍व भारत को आउटसोर्सिंग के लिए सबसे सस्ता, सुरक्षित और गुणवत्ता वाला देश मानता है और विवादों के बाद भी आईटी के विश्‍व बाजार में भारत की साख बनी हुई है. साथ ही यह समझना होगा कि यह दौर ज्ञान की अर्थव्यवस्था का दौर है, जिसे देश की सीमाओं के भीतर नहीं बांधा जा सकता. इस दौर में वही सफल है और उसी के पास रोजगार है, जो अपने कौशल से खुद को सही साबित कर पाए, भले ही वह कौशल भारत की सीमा में बैठकर किसी अमेरिकी के लिए हो.

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