akhileshसमाजवादी पार्टी की सरकार ने उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का मजाक बना कर रख दिया है. साढ़े चार साल के शासनकाल में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया. मुसलमानों को फर्जी बयानों, झूठे विज्ञापनों और खोखले प्रलोभनों से बहलाया जाता रहा. सत्ता संभालने के बाद समाजवादी पार्टी की सरकार ने मुसलमानों के कल्याण के लिए जिन योजनाओं और कार्यक्रमों की घोषणा की, वे सब इन साढ़े चार वर्षों में बेमानी साबित हुईं. जिस घोषणा पत्र के बूते समाजवादी पार्टी चुनाव जीत कर आई, उसमें अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए जो वायदे किए गए थे, उसके कार्यान्वयन पर सरकार ने कोई ध्यान ही नहीं दिया. सरकार का यह रवैया देखते हुए नौकरशाही ने भी मुसलमानों के साथ ऐसा बर्ताव किया कि जानकर आपको हंसी भी आएगी, दुख भी होगा और गुस्सा भी आएगा. अल्पसंख्यकों के कल्याण की विभिन्न योजनाओं को लेकर उत्तर प्रदेश की सरकार और नौकरशाही ने फूहड़ और अराजक व्यवहार दिखाया है. स्वाभाविक है कि यह सब लिखने के लिए मचौथी दुनियाफ के पास ठोस प्रामाणिक आधार होगा. यह आधार खबर के विस्तार में परत दर परत खुलता जाएगा और समाजवादी सरकार के अल्पसंख्यक-प्रेम की कलई भी छिलका दर छिलका खुलती जाएगी.
मुसलमानों के साथ किए गए फूहड़ मजाक की पहली परत यह है… अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार बाकायदा कैबिनेट के जरिए जिन योजनाओं को मत्वरित गति सेफ लागू करने का फैसला 14 अगस्त 2013 को लेती है, उन योजनाओं के कार्यान्वयन पर पहली बैठक तीन साल बाद 11 मई 2016 को होती है. उत्तर प्रदेश सरकार के 30 विभिन्न विभागों की तकरीबन सौ योजनाओं में अल्पसंख्यकों के कल्याण का क्या काम हुआ और इसे कैसेे कार्यान्वित करना है, इस विषद विषय को तत्कालीन मुख्य सचिव आलोक रंजन ने 30 मिनट में निपटा डाला. सरकार के फैसले के तीन साल बाद बुलाई गई बैठक सवा छह बजे शाम को शुरू हुई और पौने सात बजे समाप्त भी हो गई. इस बैठक में सम्बद्ध विभागों के अधिकांश अधिकारी शरीक नहीं हुए, लिहाजा उसे आधे घंटे में समाप्त हो ही जाना था. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, मंत्रिमंडल के निर्णय और मुख्य सचिव की बैठक को प्रदेश की नौकरशाही कितनी गंभीरता से लेती है, इससे जाहिर हो जाता है. अल्पसंख्यक-कल्याण की घोषित योजनाओं के कार्यान्वयन की प्रगति रिपोर्ट प्रत्येक महीने की 12 तारीख को सरकार के समक्ष पेश होनी थी. लेकिन किसी भी विभाग ने आज तक कोई प्रगति रिपोर्ट नहीं दी और न सरकार को ही इस तरफ झांकने की फुरसत मिली. सरकार ने जब फैसला लिया था, उस समय प्रदेश के मुख्य सचिव जावेद उस्मानी थे. तीन साल बाद जब पहली बैठक हुई तब मुख्य सचिव के पद पर आलोक रंजन विराजमान थे.
सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की जरूरतों पर रुदालियां गाती रहने वाली समाजवादी पार्टी को सत्ता संभालने के सवा साल बाद अल्पसंख्यकों के कल्याण की सुध आई थी. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल ने अल्पसंख्यकों के सर्वांगीण विकास के लिए 30 सरकारी विभागों की 85 योजनाओं के जरिए लाभान्वित करने का फैसला किया था. सरकार ने मुख्यमंत्री की सियासी तकरीरों से सुसज्जित सात पेज की प्रेस विज्ञप्ति भी जारी की थी, जिसमें मुसलमानों की गरीबी और बदहाली पर चिंता जताने, सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर प्रतिबद्धता जताने और अल्पसंख्यकों को मुख्य धारा में लाने का जतन करने जैसे वाक्य सोच-सोच कर पिरोए गए थे. इन योजनाओं को लागू करने और उस पर निगरानी के लिए प्रदेश में मुख्य सचिव और जिलों में जिलाधिकारी की अध्यक्षता में समितियां गठित करने का फैसला हुआ था. इन समितियों में अल्पसंख्यक समुदाय के दो-दो सदस्यों को नामित करने का प्रावधान भी किया गया था. प्रस्तावित योजना में पारदर्शिता बरतने के लिए हिंदी और उर्दू में वेबसाइट शुरू करने और धूमधाम से इसका प्रचार करने का निर्णय लिया गया था. धूमधाम से प्रचार तो खूब हुआ और उस पर करोड़ों रुपये फूंक डाले गए. लेकिन अन्य कोई काम नहीं हुआ. मुख्य सचिव की अध्यक्षता में पहली बैठक ही तीन साल बाद हुई तो दूसरे काम के बारे में सोचा जा सकता है. अल्पसंख्यक कल्याण के लिए प्रस्तावित योजनाओं की वेबसाइट शुरू करने की बात तो छोड़ दें, उत्तर प्रदेश सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर अल्पसंख्यक कल्याण विभाग क्लिक करें तो समाजवादी सरकार का अल्पसंख्यक-प्रेम सामने दिख जाएगा. क्लिक करने पर आपके दिमाग से क्लिक-क्लिक की आवाज आने लगेगी, लेकिन वेबसाइट नहीं खुलेगी. दो दिन लगातार प्रयास करने के बाद वेबसाइट खुली तो अल्पसंख्यक कल्याण वाले खाते में जो सबसे अद्यतन (करेंट) शासनादेश है, वह 22 नवम्बर 2013 का है. स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक कल्याण के लिए उसके बाद कुछ हुआ ही नहीं. ध्यान रहे कि सरकार के 30 विभागों की विभिन्न योजनाओं में अल्पसंख्यक समुदाय को लाभान्वित करने के कार्यक्रम की अलग से वेबसाइट बनाने की जो बात कही गई थी, वह भी कार्यान्वित नहीं हुई.
बहरहाल, सरकार के फैसले के तीन साल बाद मुख्य सचिव की बैठक बुलाई जाती है, उस बैठक में अधिकारियों की उपस्थिति नगण्य रहती है, उस बैठक में मुख्य सचिव आलोक रंजन अफसरों से क्या कहते हैं उसे आप भी सुनें. मुख्य सचिव कहते हैं, मयह योजना राज्य सरकार की अत्यंत महत्वपूर्ण योजना है और विकास की प्राथमिकताओं में सम्मिलित है. इसलिए इस योजना में किसी भी प्रकार की शिथिलता को क्षमा नहीं किया जाएगा.फ मुख्य सचिव की हिदायतों की इन पंक्तियों को पढ़ कर आपको भी आक्रोश मिश्रित हंसी आई होगी और अल्पसंख्यकों के साथ सरकार कैसा मजाक कर रही है, यह स्पष्ट हुआ होगा. अल्पसंख्यक-कल्याण की योजना के कार्यान्वयन को लेकर जब सरकार से सूचना के अधिकार के तहत जन-पूछताछ तेज हुई तब सरकार को योजना की याद आई और तब आनन-फानन में बैठक बुलाई गई. ऐसी विलंबित बैठक में शिथिलता को लेकर दी गई हिदायतें वीभत्स मजाक ही तो हैं. अखिलेश सरकार ने वर्ष 2013 में निर्णय लिया, मुख्य सचिव ने इस पर 2016 में पहली बैठक बुलाई, कार्यान्वयन तकरीबन शून्य पाया गया, योजना में सरकारी विभागों की गैर-दिलचस्पी की आधिकारिक पुष्टि हुई, फिर भी अफसरों को मइस महत्वपूर्ण योजना को गंभीरता से लेने और लक्ष्य को शत प्रतिशत पूरा किए जाने के निर्देश के साथ बैठक सधन्यवाद समाप्त कर दी गई.फ यह मुख्य सचिव की बैठक से सम्बन्धित सरकारी दस्तावेज की आधिकारिक औपचारिक (हास्यास्पद) पंक्तियां हैं, जिन्हें यहां हूबहू दोहराया गया है. ताकि इन लाइनों का मर्म और नेताओं का धर्म साफ-साफ समझ में आए. अब चुनाव सामने है, तो अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं का सारा अधूरा पड़ा काम कब होगा? इन्हीं सवालों के साथ मुस्लिम
मवोट-बैंक फरूबरू है.
अल्पसंख्यक-कल्याण की योजना पर वर्ष 2014-15 में क्या हुआ? सरकार इस सवाल पर चुप है और सम्बन्धित आधिकारिक दस्तावेज भी इस अवधि की कोई चर्चा नहीं करते. 2015-16 के दरम्यान 28 सरकारी विभागों की 65 योजनाओं में अल्पसंख्यकों के लिए क्या किया गया, इसकी कोई सूचना सरकार को नहीं है. कृषि विभाग की सात योजनाओं में अल्पसंख्यक कल्याण के लिए क्या काम हुए, इसकी कोई सूचना सरकार के पास नहीं है. यही हाल चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, पर्यटन, पिछड़ा वर्ग कल्याण, महिला कल्याण विभाग, दुग्ध विकास, उद्यान, लघु उद्योग, खादी ग्रामोद्योग समेत दर्जनों अन्य विभागों का है.
सपा सरकार में उठा उर्दू का जनाज़ा

अखिलेश सरकार ने उर्दू अरबी और फारसी भाषाओं की जड़ें उत्तर प्रदेश में मजबूत नहीं होने दीं. अल्पसंख्यक विभाग की इस्लामिक शोध से जुड़ी संस्था की जमीन और इमारत आजम खान की निजी संस्था को कौड़ियों के मोल लीज पर दे दी गई लेकिन लखनऊ के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी फारसी विश्‍वविद्यालय का कबाड़ा कर दिया गया. उत्तर प्रदेश में दूसरी राजभाषा के रूप में स्थापित उर्दू को विकसित करने के उद्देश्य से लखनऊ में उर्दू अरबी फारसी विश्‍वविद्यालय की स्थापना की गई थी, लेकिन यहां उन्हीं भाषाओं की प्राथमिकता समाप्त कर दी गई. अजीबोगरीब पहलू यह है कि उर्दू अरबी और फारसी के अकादमिक विकास के लिए जिस विश्‍वविद्यालय की स्थापना की गई थी, उसके सभी शीर्ष पदों पर बैठे लोग उर्दू अरबी या फारसी भाषाओं की शैक्षिक योग्यता नहीं रखते. जामिया मिलिया के प्रोफेसर खान मसूद अहमद ने 2014 में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी-फारसी विश्‍वविद्यालय का वीसी बनते ही उर्दू भाषा की अनिवार्यता समाप्त कर दी थी. वीसी और रजिस्ट्रार ने तब साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि उर्दू अरबी या फारसी भाषा वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाई जाएगी और उन विषयों के अंक रिजल्ट के पूर्णांक (एग्रीगेट) में नहीं जोड़े जाएंगे. इस तरह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी फारसी विश्‍वविद्यालय का औचित्य ही समाप्त कर दिया गया.
पांच साल का दंश अल्पसंख्यकों का अंश यूनानी चिकित्सा पद्धति के प्रचार-प्रसार पर सरकार ने एक वर्ष में कितना खर्च किया? इस सवाल पर सरकार कहती है 50 हजार रुपये. सरकार का यह जवाब ही सरकार की मंशा उजागर करती है. पूरे सालभर में यूनानी चिकित्सा पद्धति के प्रचार-प्रसार पर महज 50 हजार रुपये का खर्च आश्‍चर्यजनक है. यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी और उर्दू भाषा है. मुसलमानों का यूनानी चिकित्सा पद्धति से खास लगाव भी रहा है. प्रदेश में मात्र दो राजकीय यूनानी मेडिकल कॉलेज लखनऊ और इलाहाबाद में स्थित है. प्रदेश के सात मंडल ऐसे हैं जहां एक भी सरकारी या गैर सरकारी यूनानी मेडिकल कॉलेज नहीं है. यूनानी मेडिकल कॉलेजों में नर्स और फार्मासिस्ट के पद ही सृजित नहीं हैं. इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट में समाजसेवी सलीम बेग की जनहित याचिका लंबित है. जनहित याचिकाओं के दबाव में सरकार ने वर्ष 2015 में नर्स और फार्मासिस्ट का कोर्स शुरू तो किया मगर उससे उर्दू भाषा को बाहर कर दिया. जबकि यूनानी के डॉक्टर-हक़ीम उर्दू या अंग्रेजी में दवा की पर्ची लिखते हैं.
सलीम बेग कहते हैं कि यूनानी मेडिकल कॉलेज की बात तो छोड़िए, बरेली से मेरठ जिले के बीच एक भी सरकारी विश्‍वविद्यालय स्थापित नहीं है जबकि इस दूरी में रामपुर, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा और बिजनौर जैसे जिले लगते हैं. इस क्षेत्र की विधानसभा की सर्वाधिक सीटों पर समाजवादी पार्टी का कब्जा है, लेकिन विडंबना है कि इस क्षेत्र में एक भी सरकारी मेडिकल कॉलेज नहीं, एक भी सरकारी विश्‍वविद्यालय नहीं, सब तरफ निजी विश्‍वविद्यालयों की भरमार लगी है और शिक्षा के एवज में आम लोगों को लूटा जा रहा है.
समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में उत्तर प्रदेश में उर्दू की तरक्की के लिए मुस्लिम बहुल इलाकों में प्राइमरी, मिडिल व हाई स्कूल स्तर के उर्दू मीडियम के सरकारी स्कूलों की स्थापना करने का वादा किया था. लेकिन इस पर कोई अमल नहीं किया गया. समाजवादी पार्टी ने चुनावी घोषणा-पत्र में अल्पसंख्यकों के कल्याण से संबंधित 14 वादे किए थे. लेकिन ये वादे अनदेखे ही रह गए. मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने के सवाल पर सरकार का जवाब मशून्यफ लिखा आता है. सपा सरकार का अल्पसंख्यक-प्रेम इस तथ्य से भी जाहिर होता है कि अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए जारी धन का 25 फीसद भी खर्च नहीं हो पाता. वर्ष 2015-16 में उत्तर प्रदेश सरकार ने अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के लिए 1024 करोड़ रुपये मंजूर किए. लेकिन सरकार इसका 25 प्रतिशत भी खर्च नहीं कर पाई.
यूपी पुलिस में पांच प्रतिशत मुसलमान
यह आधिकारिक तथ्य एक साल पहले का है, लेकिन वर्ष 2016 में इस आंकड़े में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है. लिहाजा, हम आधिकारिक तौर पर यह कह सकते हैं कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में यूपी पुलिस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज पांच फीसदी है. यह जानकारी भी सूचना के अधिकार के जरिए संजय शर्मा ने बाहर निकाली थी. आरटीआई के जरिए उत्तर प्रदेश पुलिस की नौकरियों में मुसलमानों की हिस्सेदारी की सूचना मांगी गई थी. इसमें बताया गया कि 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले प्रदेश की पुलिस में मात्र पांच प्रतिशत मुसलमान काम करते हैं. आधिकारिक सूचना के मुताबिक यूपी पुलिस में कार्यरत तृतीय श्रेणी के कुल 192799 कर्मचारियों में से 10203 (5.29) प्रतिशत कर्मचारी मुसलमान हैं. इसी तरह यूपी पुलिस में कार्यरत चौथी श्रेणी के कुल 13489 कर्मचारियों में से 408 (3.02 प्रतिशत) कर्मचारी मुसलमान हैं. तीसरी और चौथी श्रेणी के पुलिस कर्मचारियों की संख्या मिला दें तो इनमें मुस्लिम कर्मचारियों की तादाद 10611 (5.14 फीसदी) आती है.
उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं और न हिंदी हिंदुओं की भाषा है
सूचना का अधिकार कानून का प्रचार करने वाला केंद्र सरकार का विज्ञापन उर्दू को मुसलमानों की भाषा बता रहा है. इस विज्ञापन से उत्तर प्रदेश का प्रसंग जुड़ा है, इसलिए यूपी के लोगों की इस विज्ञापन के प्रति भृकुटि तनी हुई है. यूपी के बुद्धिजीवियों का कहना है कि हिंदी से व्याकरण और शब्द लेने वाली उर्दू भारत में सम्पर्क भाषा रही है, लेकिन इसे समुदाय विशेष की भाषा बना दिया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. केंद्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तरफ से विजुअल मीडिया के लिए जारी इस विज्ञापन में गोवा, उत्तर प्रदेश, बंगाल और केरल की चार कहानियां कही गई हैं. इस विज्ञापन में पृष्ठ-स्वर (वॉयस-ओवर) हिंदी में है और सब-टाइटल्स अंग्रेजी में. इस विज्ञापन में राज्यों की मुख्य भाषा को आधार बनाकर संदेश देने की कोशिश की गई है. लेकिन जब गोवा और उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक पात्रों पर फोकस आता है तो भाषाई पूर्वाग्रह अभिव्यक्त होता है. यह विज्ञापन स्थापित करता दिखता है कि सभी मुसलमान उर्दू बोलते हैं और सभी ईसाई अंग्रेजी बोलते हैं. विज्ञापन में उत्तर प्रदेश के मोहम्मद भाई का जिक्र करते हुए फारसी लिपि वाली उर्दू और गोवा के ब्रिगेंजा का संदर्भ सुनाते समय रोमन लिपि के साथ अंग्रेजी दिखाई जाती है. जबकि गोवा की आधिकारिक भाषा कोंकणी है और उत्तर प्रदेश की पहली आधिकारिक भाषा हिंदी और दूसरी भाषा उर्दू है. इस लिहाज से केंद्र सरकार का विज्ञापन भाषाई पूर्वाग्रह प्रदर्शित करने वाला विज्ञापन प्रतीत होता है.
लिपि के फर्क को छोड़ दें तो असलियत में हिंदी और उर्दू को खड़ी बोली का ही दो रूप माना जाता है. फिराक गोरखपुरी के नाम से देश-दुनिया में मशहूर शायर रघुपति सहाय इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक थे, लेकिन उनका कहना था कि उर्दू में शब्दों के इस्तेमाल की विशेष शैली है. फिराक ने कहा है कि उर्दू जबान में अरबी-फारसी के 95 प्रतिशत शब्द वही हैं जिन्हें आम जनता बड़ी ही आसानी से बोलती और समझती है. आदमी, औरत, मर्द, बच्चा, कमजोर, जमीन, हवा, आसमान, गरम, सर्द, हालत, खराब, नेकी, बदी, दुश्मनी, दोस्ती, शर्म, दौलत, मकान, जिन्दगी, खुशी, आराम और किताब जैसे सैकड़ों अरबी-फारसी शब्द हैं जो हिंदी-उर्दू में बड़ी ही सहजता से बोले जाते हैं. अब तो नागरी लिपि का इस्तेमाल कर उर्दू में कविताएं, कहानियां और उपन्यास लिखे जा रहे हैं. इस चलन में राही मासूम रजा का नाम सबसे ऊपर है.

मुख्यमंत्री का दफ्तर भी नहीं दे पाया जवाब

अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए राज्य सरकार ने क्या किया, इस सवाल का मुख्यमंत्री सचिवालय के पास भी कोई जवाब नहीं था. आरटीआई ऐक्टिविस्ट सलीम बेग ने सूचना के अधिकार के तहत मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से इस बारे में सूचना मांगी थी. लेकिन मुख्यमंत्री सचिवालय उन सवालों का जवाब नहीं दे पाया. तुरंत टोपी ट्रांसफर की गई. मुख्यमंत्री सचिवालय ने उन सवालों को अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के कंधे पर डाल दिया. लिखा कि अल्पसंख्यक कल्याण विभाग ही इन सवालों का जवाब देने में सक्षम है. उधर, सवाल देख कर अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को सांप सूंघ गया. जवाब उनके पास भी नहीं था. लंबे अर्से तक फाइल वहीं दबी रही. जवाब हासिल करने के लिए जब दूसरी अपील दाखिल हुई और कानूनी घेरा बढ़ा तब अल्पसंख्यक कल्याण विभाग ने जवाब जुटाना शुरू किया. फिर तो मपैंडोरा-बॉक्सफ खुल गया और सरकार की अजीबोगरीब हरकतें उजागर होती चली गईं. इससे अल्पसंख्यकों का इतना कल्याण जरूर हुआ कि उजागर हुए आधिकारिक दस्तावेजों ने अल्पसंख्यकों की आंखें जरूर खोल दीं. चुनाव का समय है, लिहाजा, प्रदेश के 19 फीसदी अल्पसंख्यक दरवाजे पर बहुत जल्दी नतमस्तक होने वाले सपा नेताओं से ये सवाल जरूर पूछेंगे और हिसाब-किताब बराबर करेंगे. उल्लेखनीय है कि प्रदेश के 21 जिलों में मुस्लिम मत 19 प्रतिशत है. सर्वाधिक संख्या रामपुर में 50.57 प्रतिशत से ऊपर है. इसके बाद बिजनौर, ज्योतिबा फुले नगर, मुरादाबाद, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर व बलरामपुर में यह प्रतिशत 37 से 47 तक है. मेरठ, बहराइच, श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, बागपत, गाजियाबाद और लखनऊ में भी मुस्लिम मतदाता खासी तादाद में हैं. अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं को लागू करने में फेल होने की खबरों के उजागर होने से समाजवादी पार्टी में गहरी चिंता है. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की सार्वजनिक फटकार की बेचैनी कहीं और भी है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मुलायम सिंह यह कह चुके  हैं कि राज्य सरकार को अल्पसंख्यकों से जुड़ी समस्याओं का जल्द से जल्द समाधान ढूंढ़ना चाहिए. अल्पसंख्यकों से जुड़ी योजनाओं के लागू नहीं होने पर भी मुलायम कई बार नाराजगी जाहिर कर चुके हैं.

अल्पसंख्यक-प्रेमी सरकार इन संजीदा सवालों पर चुप क्यों है?

अखिलेश सरकार के चार साल पूरे होने पर सामाजिक संस्था रिहाई मंच ने सपा सरकार के समक्ष 41 सवाल रखे थे. सरकार की तरफ से उन सवालों का कोई जवाब सामने नहीं आया. लिहाजा, उन अनुत्तरित सवालों को फिर से हम सामने रख रहे हैं, कहीं चुनावी वर्ष में सरकार का कोई जवाब आ जाए.
1. निर्दोष मुस्लिम नौजवान जो आतंकवादी होने के नाम पर जेलों में बंद हैं, उन्हें चुनावी वादे के अनुसार रिहा क्यों नहीं किया गया?
2. अदालतों द्वारा बरी हुए बेगुनाहों को चुनावी वादे के अनुसार पुनर्वास और मुआवज़ा क्यों नहीं दिया गया?
3. साम्प्रदायिक हिंसा के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
4. मुसलमानों को 18 ङ्गीसदी आरक्षण देने का वादा पूरा क्यों नहीं किया गया?
5. यूपी में साम्प्रदायिक हिंसा बिल लाने के लिए सरकार ने गंभीरता क्यों नहीं दिखाई?
6. सच्चर, रंगनाथ और कुंडू कमेटी की स़िङ्गारिशों पर अमल क्यों नहीं किया गया?
7. मुज़फ़्ङ्गरनगर सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ित परिवारों को इंसा़ङ्ग दिलाने का वादा पूरा क्यों नहीं किया गया?
8. साम्प्रदायिक उन्माद और हिंसा फैलाने वालों के खिला़ङ्ग सरकार ने कानूनी कारवाई क्यों नहीं की?
9. राजनीतिक विरोधियों और अल्पसंख्यकों के खिला़ङ्ग भड़काऊ भाषण देकर अराजकता फैलाने वाले
नेताओं पर कानून के मुताबिक़ कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं की जाती?
10. प्रदेश के राज्य अल्पसंख्यक आयोग में वार्षिक रिपोर्ट तैयार नहीं होती, मामलों का कोई केस स्टडी नहीं होता. साम्प्रदायिक हिंसा से ग्रस्त मुज़फ़्ङ्गरनगर, दादरी तक में आयोग ने कोई दौरा नहीं. इसकी स्थापना के गाइडलाइन के अनुसार जनपदों में अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी के पदों पर तैनात अधिकारी अल्पसंख्यक नहीं हैं. सरकार की इस उदासीनता की वजह क्या है?
11. प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्री कार्यक्रम के क्रम संख्या 14 व 15 में उल्लिखित है कि जो भी नौजवान दहशतगर्दी के तहत जेलों में बंद किए जाएंगे और अदालती प्रक्रिया से बरी होंगे, उन्हें पुनर्वास, मुआवज़ा और सरकारी नौकरी दी जाएगी. परन्तु इस पर अमल क्यों नहीं किया गया?
12. प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्री कार्यक्रम के मुताबिक़ आतंकवाद के नाम पर जेलों में बंद किए गए नौजवानों को फर्जी तरीके से फंसाने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई उन्हीं धाराओं के तहत किए जाने की बात के बावजूद ऐसे मामलों में कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
13. मुसलमानों के अंदर आत्मविश्‍वास पैदा करने के लिए राजकीय सुरक्षा बलों में मुसलमानों की भर्ती का विशेष प्रावधान करने और कैम्प आयोजित करने का वादा पूरा क्यों नहीं किया गया?
14. सभी सरकारी कमीशनों, बोर्डों और कमेटियों में कम से कम एक अल्पसंख्यक प्रतिनिधि को सदस्य नियुक्त करने के सरकार के वादे का क्या हुआ?
15. सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 से अखिलेश सरकार ने 3 दिसंबर 2015 को सूचना अधिकार नियमावली 2015 से उर्दू भाषा में आवेदन/अपील देने पर पाबंदी क्यों लगाई?
16. बुनकरों की क़र्ज़ माफी क्यों नहीं हुई?
17. किसानों की तरह गरीब बुनकरों को मुफ्त बिजली देने के वादे का क्या हुआ?
18. जिन औद्योगिक क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों की बहुलता है, जैसे हथकरघा, हस्तकला, हैंडलूम, कालीन उद्योग, चूड़ी, ताला, जरी, जरदोजी, बीड़ी, कैंची उद्योग उन्हें राज्य द्वारा सहायता देकर प्रोत्साहित करने, करघों पर बिजली के बकाया बिलों पर लगने वाले दंड और ब्याज को मा़ङ्ग कर बुनकरों को राहत देने, छोटे और कुटीर उद्योगों में कुशल कारीगरों की कमी को पूरा करने के लिए प्रत्येक विकास खंड स्तर पर एक-एक आईटीआई की स्थापना करने का वादा पूरा क्यों नहीं हुआ?
19. यूपी के अल्पसंख्यक बहुल जिलों में संचालित मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्लान के तहत संचालित अधिकांश योजनाएं अपूर्ण क्यों हैं?
20. 20 अगस्त 2013 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रदेश में अल्पसंख्यक समुदाय को उनका वाजिब हक़ दिलाने के लिए अल्पसंख्यकों को 30 विभिन्न विभागों में संचालित 85 योजनाओं में 20 प्रतिशत मात्राकृत लाभान्वित किए जाने का जो वादा किया था, उसे क्यों नहीं पूरा किया गया?
21. 25 अक्टूबर 2013 की घोषणा के अनुसार स्वर्ण जयंती शहरी रोज़गार योजना के अन्तर्गत मुस्लिमों को 20 प्रतिशत लाभान्वित किया जाना था, जिसमें से स्वर्ण जयंती शहरी योजना अंतर्गत 6 उपयोजनाएं संचालित तो हुईं लेकिन 31 मार्च 2014 को समाप्त कर दी गईं. इस मद के लिए जो पैसा था वह कहां खर्च हुआ?
22. उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा मानने के बावजूद अखिलेश सरकार के कार्यकाल में सरकारी कामकाज में महत्वपूर्ण सरकारी नियमों, विनियमों, सरकारी आदेशों समेत गज़ट का अनुवाद उर्दू भाषा में क्यों नहीं होता?
23. ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी फारसी विश्‍वविद्यालय लखनऊ की प्रथम परिनियमावली में उर्दू/अरबी/फारसी के अंक अन्य विषयों की तरह अंक-पत्र में न जोड़े जाने के निर्णय से उक्त विश्‍वविद्यालय के स्थापना के मक़सद को ही ख़त्म कर दिया गया. ऐसा क्यों किया गया?
24. ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फारसी विश्‍वविद्यालय लखनऊ की प्रथम परिनियमावली में टीचिंग और नॉन टीचिंग स्टाफ की नियुक्ति में उर्दू की अनिवार्यता को क्यों समाप्त कर दिया गया?
25. ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फारसी विश्‍वविद्यालय लखनऊ में एक भी नई फैकल्टी क्यों नहीं खोली गई?
26. ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फारसी विश्‍वविद्यालय लखनऊ से मदरसों को जोड़ने के बजाए उसे मदरसों से दूर क्यों किया गया?
27. ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फारसी विश्‍वविद्यालय लखनऊ के कुलपति, रजिस्ट्रार, प्रॉक्टर, ओएसडी, फाइनेंसर कोई भी उर्दू भाषा की डिग्री प्राप्त क्यों नहीं है?
28. ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फारसी विश्‍वविद्यालय लखनऊ की प्रथम परिनियमावली उर्दू भाषा में क्यों नहीं?
29. रफीकुल मुल्क मुलायम सिंह यादव आईएएस उर्दू स्टडी सेंटर में मात्र 50 सीट जबकि प्रदेश में 75 जिले हैं. पढ़ाई का माध्यम उर्दू भाषा नहीं और कोई पद स्थाई नहीं, आखिर ऐसा क्यों?
30. उर्दू की प्रोन्नति के लिए मुस्लिम बहुल इलाकों में प्राइमरी, मिडिल व हाई स्कूल स्तर पर सरकारी उर्दू मीडियम स्कूलों की स्थापना क्यों नहीं की गई?
31. अखिलेश सरकार के कार्यकाल में यूपी में एक भी यूनानी मेडिकल कालेज की स्थापना क्यों नहीं की गई?
32. यूपी के किसी भी यूनानी चिकित्सालय में नर्स और फार्मासिस्ट की नियमित नियुक्ति क्यों नहीं?
33. यूनानी चिकित्सा पद्धति जिसका कोर्स उर्दू भाषा में है, उसके नर्स और फार्मासिस्ट के कोर्स से उर्दू को क्यों बाहर किया गया?
34. यूनानी चिकित्सा पद्धति की 2008 से आज तक कोई भी नियमावली नहीं बनी व स्थाई निदेशक क्यों नहीं नियुक्त हुआ?
35. मुसलमानों के वह शैक्षिक संस्थान जो विश्‍वविद्यालय की शर्तों पर पूरा उतरते हैं, उन्हें कानून के तहत युनिवर्सिटी का दर्जा देने का वादा पूरा क्यों नहीं किया गया?
36. अखिलेश सरकार ने आर्थिक सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से अधिक पिछड़ा मानते हुए दलितों की तरह दलित मुस्लिमों को जनसंख्या के आधार पर अलग से आरक्षण क्यों नहीं दिया?
37. सपा सरकार द्वारा बनाए गए मुहम्मद अली जौहर विश्‍वविद्यालय की सभी कानूनी बाधाएं समाप्त करने की बात तो की गई थी, लेकिन क्या अच्छा होता कि इस विश्‍वविद्यालय को सरकारी विश्‍वविद्यालय के रूप में बनाया गया होता, क्योंकि यह विश्‍वविद्यालय भी डोनेशन की बुनियाद पर ही प्रवेश देता है, जिससे गरीब जनता को सीधा लाभ नहीं पहुंच रहा है. उक्त क्षेत्र में प्राइवेट कई विश्‍वविद्यालय मौजूद हैं, जबकि बरेली से लेकर मेरठ तक 200 किमी के परिक्षेत्र में एक भी सरकारी विश्‍वविद्यालय नहीं है. सरकार ने उक्त क्षेत्र में कोई सरकारी विश्‍वविद्यालय क्यों नहीं बनवाया जिससे जनता को सीधा लाभ पहुंचता?
38. मुस्लिम बहुल जिलों में नए सरकारी शैक्षिक संस्थानों की स्थापना क्यों नहीं की गई?
39. क़ब्रिस्तानों की भूमि पर अवैध क़ब्जे को रोकने व भूमि की सुरक्षा के लिए चारदीवारी के निर्माण पर कार्य क्यों नहीं किया गया?
40. दरगाहों के सरंक्षण व विकास हेतु दरगाह ऐक्ट का वादा क्यों पूरा नहीं किया गया और स्पेशल पैकेज के वादे का क्या हुआ?
41. वक़्ङ्ग डाटा कम्प्यूटरीकृत स्कीम के तहत आज तक वक़्ङ्ग के सारे डाटा कम्प्यूटरीकृत क्यों नहीं किए गए?

 

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