बलूचिस्तान ऑपरेशन की शुरुआत तो ग्वाडोर परियोजना की घोषणा के साथ हुई थी, लेकिन इसकी बुनियाद रखी गई हत्या, अपहरण और दिल को दहला देने जैसी वारदातों के साथ. ग्वाडोर बंदरगाह की बात तो की गई, लेकिन वादा केवल वादा ही बनकर रह गया. बलूचिस्तान में सैनिकों के लिए घर इसलिए भी बनाए गए, क्योंकि बलूच राष्ट्रवादियों के मन में कहीं न कहीं ग्वाडोर परियोजना को लेकर भय हो चुका था. जैसा कि बुगती दस्तावेज में भी उल्लेख किया गया है. बलूच राष्ट्रवादियों के इसी डर का नतीजा है कि उन्होंने इन सारी बातों की जानकारी लिखित रूप से सरकार समेत मामले से जुड़ी तमाम कमेटियों को भी दे दी थी. हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि दुर्भाग्यवश कमेटी निष्पक्ष रूप से नतीजे तक नहीं पहुंच सकी थी. आरक्षणों को देखते हुए सरकार ने बंदरगाह पर काम करना शुरू तो कर दिया, लेकिन राष्ट्रवादियों पर यह कहकर निशाना भी साधा कि वे विकास विरोधी हैं. यह भी कह डाला कि यह विरोध इसलिए है, क्योंकि उनकी संख्या कम है. बलूचिस्तान के 72 कबीलाई सरदार हमारी तऱफ थे और बाक़ी तीन मेंगल, मेरी और बुगती हमारी विचारधारा के विपरीत थे, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं अपने अधिकारों से वंचित न होना पड़ जाए. केंद्र सरकार और बलूचिस्तान के बीच मतभेद 1948 से शुरू हुए और यह विवाद ऐसा गहराया, जो आज तक क़ायम है. हाल की बात करें तो हालात और भी बदतर हो चुके हैं. एक ओर बंदरगाह के विकास को लेकर पहल की जा रही है तो दूसरी ओर कुछ लोग इसे छलावा भी बता रहे हैं. आज बलूचिस्तान का मतभेद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंच चुका है. नवाब अख्तर खान बुगती जैसे बहादुर सहित हज़ारों लोग शहीद हो चुके हैं. नवाबजादा बलाच, मेरी बुगती, देलरा आलम खान, डॉ. अल्लाह नज्र और दूसरे हज़ारों बलूच नेता एवं उनके समर्थक पहाड़ों में लौट चुके हैं. अख्तर जान मेंगल, अब्दुल नाबी बंग्लोई, आलम पार्कानी, असलम गर्गानदी, लता मुनिर, जानजेब एवं रफीक खोसा समेत सैकड़ों बलूचों को जेल में भयंकर यातनाओं का सामना करना पड़ा.

बलूच लोगों के अपहरण और हत्या जैसी वारदातें चरम पर पहुंच चुकी हैं. इतना ही नहीं, पुनर्वासित लोगों को भी बेघर करने जैसी दिल दहला देने वाली घटनाएं आम हो चुकी हैं. एमएमए और मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकार लूट और आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने में कहीं भी पीछे नहीं है. वहीं सरकार के मंत्री ने भी पश्तून राष्ट्रवाद को जमकर बढ़ावा दिया है. जो लोग बलूचिस्तान के नहीं हैं, उनका वहां रहना दूभर होता जा रहा है.

गुलाम मोहम्मद बलूच, मुनिर मेंगल एवं हसन संगत मारी जैसे हज़ारों लोगों का अपहरण कर लिया गया. सेंदक परियोजना में बलूचिस्तान को एक फीसदी, चीन को 80 फीसदी और केंद्र सरकार को 19 फीसदी मिलने का प्रावधान है. कमज़ोर लोगों का संगठन पूनम इस सबका एक शांत गवाह बनकर रह गया है. बलूचिस्तान के पश्तून राष्ट्रवादी केवल मीडिया में बयान देने तक ही सीमित हो चुके हैं. सिंध के राष्ट्रवादी भी इन तमाम मामलों को समाचारपत्रों में विज्ञापन और बयानबाज़ी के माध्यम से भविष्य में मदद करने का वायदा कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर बलूची महिलाओं ने भी अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कराची से क्वेटा प्रेस क्लब तक विरोध के बिगुल को तेज़ कर दिया है.ग्वाडोर के राजस्व से एक फीसदी देने की घोषणा पहले ही की जा चुकी है. जनरल मुशर्रफ ने बंदरगाह का उदघाटन किया था. राष्ट्रवादियों ने ग्वाडोर बंदरगाह को एक धोखा करार दिया है. जम्हूरी वतन पार्टी, हक तवर, बलूचिस्तान राष्ट्रीय आंदोलन, बलूचिस्तान राष्ट्रीय पार्टी और दूसरी राष्ट्रीय पार्टियों ने बलूच के खोए अधिकारों को वापस दिलाने के लिए सरकार के ख़िला़फ संघर्ष तेज़ कर दिया है. जाम यूसुफ ने केंद्र सरकार के प्रति अपने विश्वास को बख़ूबी जताया है. यही नहीं, बलूच के रक्षक कहे जाने वालों के साथ अंतिम दम तक लड़ने का वचन भी निभा रहे हैं. अहसान शाह जैसे लोग गुपचुप तरीक़े से बलूच समुदायों पर निशाना साधते हैं. सरदार यार मोहम्मद यह कहकर नाटकीय बर्ताव कर रहे हैं कि उनके दुश्मनों को ख़त्म किया जाए या उनके दुश्मनों की बुरी नीतियों पर अंकुश लगे. वहीं दूसरी ओर गृहमंत्री शोएब नौशरवान गिरफ़्तारियों से तो ख़ुश हैं, लेकिन पुनर्वासित लोगों को बेघर किए जाने से दु:खी भी हैं.
बलूच लोगों के अपहरण और हत्या जैसी वारदातें चरम पर पहुंच चुकी हैं. इतना ही नहीं, पुनर्वासित लोगों को भी बेघर करने जैसी दिल दहला देने वाली घटनाएं आम हो चुकी हैं. एमएमए और मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकार लूट और आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने में कहीं भी पीछे नहीं है. वहीं सरकार के मंत्री ने भी पश्तून राष्ट्रवाद को जमकर बढ़ावा दिया है. जो लोग बलूचिस्तान के नहीं हैं, उनका वहां रहना दूभर होता जा रहा है. एमक्यूएम ने भी बलूच में अंदरूनी विवाद को हवा देने में काफी हद तक योगदान किया है. हालात यहां तक हैं कि कराची में बलूची एक-दूसरे की जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं. यही वजह है कि लेयारी एक बार फिर युद्धभूमि में तब्दील होता जा रहा है. कराची में भी बलूचियों के अधिकार के लिए आवाज़ें उठ रही हैं. यही नहीं, कराची में रह रहे बलूची भी बलूचिस्तान के प्रति अपने त्याग और बलिदान को बख़ूबी दिखा रहे हैं. ज़ाहिर है, अगर जुर्म करने वाला ही जुर्म के शिकार लोगों पर अपना आरोप थोपने की कोशिश कर रहा तो हालात क्या हो सकते हैं, इसका अंदाज़ सहज ही लगाया जा सकता है.
राष्ट्र निर्माण का काम एक नाज़ुक प्रक्रिया है, लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति, साहस और एक वैश्विक दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत होती है. दूसरी ओर हमें जो देखने को मिल रहा है, वह है केवल मतभेद, गिरफ़्तारी, अपहरण, हत्या, बम विस्फोट और रॉकेट हमले. आख़िर वहां विकास किया जाए तो कैसे? सच तो यह है कि केंद्र सरकार ने भी घृणित रूप से आग में घी डालने का काम किया है. सरकार सद्‌भाव और स्नेह के बदले अपहरण और हत्याएं जैसे तोहफे निर्दोष लोगों के बीच बांट रही है. ज़ाहिर है, इस मारकाट भरी ज़िंदगी से तो अब लोगों को पाकिस्तान बनने से पहले ब्रिटिश शासन ही अच्छा लगने लगा है. पुराने दिनों में इस इलाक़े की सुंदरता लोगों को अभी भी याद है, जो यहां की घाटियों से लेकर झूलते हुए चिड़ियाघर और मनमोहक झरनों के रूप में फैली हुई थी. ख़ूबसूरत नज़ारे अभी भी बरक़रार हैं, लेकिन शर्म की बात यह है कि यहां रहने वाले इंसानों का वजूद ही आज ख़तरे में नज़र आ रहा है.
बात फिर उसी मुद्दे की करते हैं, जहां से हमने शुरुआत की थी. ग्वाडोर पोर्ट में बलूचिस्तान की केवल एक फीसदी हिस्सेदारी, स्थानीय बेरोज़गार लोगों की जगह बाहर के लोगों को नौकरी, 40 सालों के लिए इस पोर्ट को सिंगापुर की एक कंपनी के हाथों में सौंप देना और चुने हुए जनप्रतिनिधियों को अंधेरे में रखना आख़िर कहां तक उचित है? दरअसल, इससे यह साबित होता है कि ग्वाडोर बंदरगाह बलूचियों के लिए नहीं, बल्कि केवल शासक वर्ग के हितों की रक्षा के लिए है. इस वजह से बलूच समुदाय विकास के बजाय विनाश के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है. ग्वाडोर परियोजना अभी भी एक मृग मरीचिका है.

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