वाराणसी से चुनाव लड़ने का अरविंद केजरीवाल का ़फैसला उनकी पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है. होना तो यह चाहिए था कि केजरीवाल स्वयं चुनाव मैदान में कूदने की बजाय अपने प्रत्याशियों को लड़ाने पर ज़्यादा ध्यान देते.
7आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल आजकल खूब सुर्खियां बटोर रहे हैं. अन्ना हजारे के आंदोलन की उपज एवं अब आप के सेनानायक अरविंद केजरीवाल आम चुनाव की बिसात में किस खाने पर खड़े हैं, इसका पता लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद ही लगेगा, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि आम आदमी पार्टी के लिए अरविंद केजरीवाल की महत्ता ठीक वैसे है, जैसे भारतीय जनता पार्टी के लिए पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, कांगे्रस के लिए राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी, सपा के लिए मुलायम सिंह यादव, बसपा के लिए मायावती और राष्ट्रीय लोकदल के लिए चौधरी अजित सिंह अथवा अन्य दलों के शीर्ष नेताओं की. ये सभी नेता अपनी-अपनी पार्टियों को सेनानायक की तरह आगे बढ़ा रहे हैं. इसमें कोई इत्तेफाक नहीं है कि चुनावी मौसम में सभी दलों के सेनानायकों को हर समय यही चिंता सताती रहती है कि कैसे उनकी जीत सुनिश्‍चित हो, साथ ही पार्टी के अन्य प्रत्याशियों को भी जिताने के लिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगा सकें, ताकि उनकी पार्टी की लोकसभा में अधिक से अधिक भागीदारी बढ़ सकेे. लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए यह उचित भी लगता है.
अपने मिशन को पूरा करने के लिए तमाम दलों के रणनीतिकारों द्वारा रात-दिन बैठकें की जाती हैं, पार्टी हित से जुड़े मुद्दों को धार दी जाती है, तो वहीं विरोधियों के हमले कुंद करने के लिए नए-नए तीरों से तरकश सजाए जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश में विभिन्न राजनीतिक संगठनों के आकाओं ने संगठन के साथ स्वयं का भी भला करने के लिए सेफ सीट तलाश करके पर्चा भरा है. प्रदेश की चुनावी जंग में पहली बार कूदे भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी पार्टी के लिए सेफ सीट समझी जाने वाली वाराणसी, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह लखनऊ, कांगे्रस के अघोषित प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी अपनी परंपरागत सीट अमेठी, कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी रायबरेली, सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव मैनपुरी एवं आजमगढ़ और रालोद अध्यक्ष अजित सिंह बागपत से चुनाव मैदान में उतरे हैं. यहां इन नेताओं की जीत लगभग सुनिश्‍चित मानी जा रही है, परंतु इससे अलग आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल होश की बजाय जोश से काम लेते हुए अनचाहे मन से ही सही, वाराणसी में मोदी के ख़िलाफ़ कूद पड़े हैं अथवा कहा जाए कि केजरीवाल भाजपा के जाल में फंस गए हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन आज की तारीख में अरविंद केजरीवाल का मोदी के ख़िलाफ़ वाराणसी में फतेह हासिल करना ठीक वैसा होगा, जैसे आजकल चांद पर घर बसाने की बात की जा रही है. इसका एहसास अरविंद को पहले ही दिन हो गया होगा. वाराणसी में उनके ऊपर अंडे फेंके गए, स्याही फेंकी गई, काले झंडे दिखाए गए, विरोध में नारे लगे. कुछ लोगों ने तो चुटकी ली, जो बच न पाया खांसी से, वह क्या लड़ेगा काशी से. सवाल यह भी है कि जब वह स्वयं अपने मुंह से कह रहे हैं कि मैं यहां जीतने नहीं आया हूं, प्रधानमंत्री बनने का मेरा कोई सपना नहीं है, तो फिर काशी की जनता उन्हें क्यों चुनेगी? अरविंद ने सवाल उठाया था कि मोदी दो जगह से चुनाव क्यों लड़ रहे हैं? इसका जवाब तो सब जानते हैं, लेकिन केजरीवाल को इस बात का जवाब देना मुश्किल पड़ रहा था कि मोदी के ख़िलाफ़ उन्होंने बड़ोदरा की बजाय काशी को क्यों चुना?
केजरीवाल कहते हैं कि मोदी ने गुजरात को तबाह कर दिया. उनके अनुसार, गुजरात में मोदी की जीत की वजह विपक्ष का न होना है. ऐसे में केजरीवाल को बड़ोदरा से लड़ना चाहिए था, ताकि आम आदमी पार्टी के रूप में गुजरात में विपक्ष मजबूत हो सके. यहां तो मोदी और राहुल का मार्ग अवरुद्ध करने के लिए सपा-बसपा जैसे दल मौजूद हैं ही, जिनके ख़िलाफ़ अरविंद कभी कुछ बोलते भी नहीं हैं. बहरहाल, वाराणसी से चुनाव लड़ने का अरविंद केजरीवाल का ़फैसला उनकी पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है. होना तो यह चाहिए था कि केजरीवाल स्वयं चुनाव मैदान में कूदने की बजाय अपने प्रत्याशियों को लड़ाने पर ज़्यादा ध्यान देते. एक-एक दिन की महत्ता केजरीवाल को समझनी होगी. वह आम आदमी पार्टी के तमाम उम्मीदवारों को उनके हाल पर नहीं छोड़ सकते. केजरीवाल आम आदमी पार्टी का चेहरा हैं, इसलिए उन्हें प्रयास करना चाहिए था कि पार्टी के प्रत्येक प्रत्याशी के संसदीय क्षेत्र में जाकर उसकी हौसला अफजाई करें, जो वह अभी तक नहीं कर पाए हैं.
कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने पहले आयकर विभाग की नौकरी छोड़ी, उसके बाद अन्ना हजारे के आंदोलन से किनारा किया और फिर दिल्ली की जनता को धोखा दिया, उसी तरह वह अपने प्रत्याशियों कोे भी मझधार में न छोड़ दें. ऐसा लगता है, अरविंद को न तो देश की िंचंता है और न वह आम आदमी पार्टी की जीत-हार को लेकर गंभीर हैं, बल्कि उन्हें चिंता है, तो स़िर्फ अपनी किस्मत चमकाने की. उनका शालीन व्यवहार, आम आदमी जैसा दिखने की हसरत और वीआईपी सुरक्षा न लेने का दावा, सब कुछ खोखला है. दरअसल, केजरीवाल के दो चेहरे हैं, पहला कैमरे के सामने वाला, दूसरा कमरे वाला. कैमरे के सामने केजरीवाल जनता के हीरो दिखते हैं, तो कमरे में वह तानाशाह हो जाते हैं. पार्टी के लिए जो मापदंड उन्होंने तय किए थे, उन्हें वह स्वयं तोड़ रहे हैं. दिल्ली सरकार बनाने-गिराने और लोकसभा चुनाव के लिए टिकट वितरण में मनमानी को लेकर केजरीवाल की काफी फजीहत हो चुकी है. कई प्रत्याशियों ने तो टिकट ही वापस कर दिए. मनमानी की वजह से केजरीवाल के पुराने संगी-साथी उनका साथ छोड़कर जा चुके हैं. केजरीवाल आज विश्‍वसनीयता के हिसाब से कहीं नहीं टिकते.
हवा का रुख भांपकर पैतरा बदलने वाले अरविंद चाहते हैं कि जनता वैसा ही देखे, जैसा वह दिखाएं. मुद्दों एवं चर्चा के लिए उनके पास केवल मोदी, मुकेश, अदाणी और गुजरात बचेे हैं. मोदी को घेरने के चक्कर में ही वह काशी तक पहुंच गए, जबकि मोदी को घेरने के लिए उन्हें पूरे देश में भ्रमण करने की ज़रूरत थी. आज मोदी कोई व्यक्ति मात्र नहीं रह गए हैं, वह मिशन बन गए हैं. मोदी मिशन को रोकने के लिए अरविंद को सभी 543 सीटों पर ध्यान देना चाहिए था. अगर वह काशी में मोदी को हरा भी देंगे, तो बड़ोदरा से तो मोदी निकल ही जाएंगे. वाराणसी में अरविंद की दस्तक को भाजपा के रणनीतिकार आम आदमी पार्टी की एक कमजोर कड़ी मानते हैं. वाराणसी को क़रीब से जानने वालों का कहना है कि दिल्ली और काशी की सियासत में जमीन-आसमान का अंतर है. यहां बीते डेढ़ दशक में भाजपा ने संगठन की बदौलत ही राजनीतिक धार को मजबूती दी है. जब स्वयं नरेंद्र मोदी मैदान में हों, तो कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा पैदा होना स्वाभाविक है, जबकि आम आदमी पार्टी के अभी क़दम ही पड़े हैं.
वाराणसी की राजनीति पर क़रीब से पकड़ रखने वाले अतुल सक्सेना भाजपा एवं आप का विश्‍लेषण करते हुए कहतेे हैं कि काशी नगरी में भाजपा विशाल वटवृक्ष के समान है. उसकी 37 मंडलों में बंटी शहर व जिला इकाई हैं. उसके पास युवा मोर्चा, महिला मोर्चा, अनुसूचित जाति-जनजाति किसान मोर्चा, अल्पसंख्यक एवं मज़दूर महासंघ मोर्चा जैसे संगठन और एक हजार से अधिक पदाधिकारियों की लंबी-चौड़ी फौज एवं जमीनी स्तर के कार्यकर्ता हैं. 41 प्रकोष्ठों के पदाधिकारी अपना काम कर रहे हैं. बुनकरों, मज़दूरों, व्यापारियों, कामगारों एवं रेहड़ी वालों यानी सभी को लुभाया जा रहा है.
 

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