Santosh-Sirपत्रकारिता प्रतिस्पर्धा का पेशा है. प्रतिस्पर्धा रिपोर्ट, स्टोरी और स्कूप के क्षेत्र में होती है. प्रतिस्पर्धा निर्भीकता में होती है, साहस में होती है और पत्रकारिता के पेशे के ये गुण आभूषण होते हैं, क्योंकि संपादक इन्हीं गुणों के आधार पर अपने साथियों या साथ काम करने वालों की समीक्षा करता है. लेकिन आज इससे अलग दृश्य देखने को मिल रहा है. पत्रकारिता के पवित्र पेशे में ऐसे लोग घुस गए हैं, जिन्हें अगर हम दलाल कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. ऐसे पत्रकार, जो निहित स्वार्थों की ख़ातिर सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए काम करने में अपना गौरव समझते हैं, वे अच्छी रिपोर्ट करने की जगह पीआर जर्नलिज्म करना ज़्यादा सही समझते हैं.
पत्रकारों का एक तबक़ा ऐसा भी है, जो बिना कहे दलालों की श्रेणी में शामिल होना चाहता है, उसका तरीक़ा भी मज़ेदार है. ख़बर लिखना और उसका संपूर्ण झूठाकरण कर देना उसका शगल बन गया है. गपशप जैसे कॉलमों में बिना नाम के ख़बरें लिखना, फिर उसे ले जाकर सत्ता या राजनीतिक दलों से जुड़े व्यक्तियों को दिखाना और उनसे यह अपेक्षा करना कि वे उन्हें उसका छोटा ही सही, लेकिन मूल्य दें, का चलन बढ़ता ही जा रहा है. अच्छे-अच्छे संपादक ऐसे महान सहयोगियों के आगे ख़ुद को बेबस पाते हैं. यह अफसोसजनक इसलिए भी है, क्योंकि ऐसे पत्रकार बेशर्मी के साथ सही को ग़लत साबित करने और ईमानदार एवं बेख़ौ़फ़ पत्रकारों के ख़िला़फ़ माहौल बनाने की सुपारी लेते दिखाई देते हैं. दरअसल, इनका ख़ुद कोई मु़क़ाम नहीं होता, पर यह मुक़ाम वाले लोगों की तस्वीर बिगाड़ने का काम करना अपनी शान समझते हैं.
दरअसल, ऐसे पत्रकार इंटेलिजेंस ब्यूरो से पैसा लेते हैं, आईएसआई से पैसा लेते हैं, मोसाद से पैसा लेते हैं और चुनिंदा राजनीतिक दलों से भी पैसा लेते हैं. इन्हें वक्त-बेवक्त राजनीतिक नेताओं के घरों पर देखा जा सकता है, हथियारों के दलालों की पार्टियों में देखा जा सकता है और राजनेताओं के घर पर देर शाम शराब पीते देखा जा सकता है, जहां पर यह एक मुख्य षड्यंत्रकारी की तरह नज़र आते हैं. अफसोस की बात यह है कि ऐसे पत्रकारों के ख़िला़फ़ इनके साथियों में गुस्सा होते हुए भी कोई क़दम नहीं उठ पाता, क्योंकि कुछ संपादक ऐसे हैं, जिन्हें यह नहीं पता चलता कि क्या छप रहा है और कुछ संपादक ऐसे भी होते हैं, जो इन संवाददाताओं का उपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए भी कर लेते हैं.

पत्रकारों का एक तबक़ा ऐसा भी है, जो बिना कहे दलालों की श्रेणी में शामिल होना चाहता है, उसका तरीक़ा भी मज़ेदार है. ख़बर लिखना और उसका संपूर्ण झूठाकरण कर देना उसका शगल बन गया है. गपशप जैसे कॉलमों में बिना नाम के ख़बरें लिखना, फिर उसे ले जाकर सत्ता या राजनीतिक दलों से जुड़े व्यक्तियों को दिखाना और उनसे यह अपेक्षा करना कि वे उन्हें उसका छोटा ही सही, लेकिन मूल्य दें, का चलन बढ़ता ही जा रहा है. अच्छे-अच्छे संपादक ऐसे महान सहयोगियों के आगे ख़ुद को बेबस पाते हैं. यह अफसोसजनक इसलिए भी है, क्योंकि ऐसे पत्रकार बेशर्मी के साथ सही को ग़लत साबित करने और ईमानदार एवं बेख़ौ़ङ्ग पत्रकारों के ख़िला़फ़ माहौल बनाने की सुपारी लेते दिखाई देते हैं.

पत्रकारों का ऐसा तबक़ा या इस तब़के में शामिल होने वाले कुछ पत्रकार अन्ना हज़ारे और जनरल वी के सिंह के ख़िला़फ़ झूठे सबूतों के आधार पर कुछ लिखकर, लिखवाने वाली ताक़तों के सामने अपनी पीठ थपथपाते हैं. कुछ ऐसे भी हैं, जो ईमानदार पत्रकारों का सामना नहीं कर सकते, लेकिन उनके ख़िला़फ़ अनाम टिप्पणियां करके अपनी बेशर्म हंसी लिए हुए राजनेताओं के दरबार में हाजिरी बजाते हैं और इंटेलिजेंस ब्यूरो, आईएसआई और मोसाद से अलग-अलग पैसे लेते हैं. यही पत्रकार इंटेलिजेंस ब्यूरो और मोसाद को सलाह देते हैं कि ईमानदारी के लिए आवाज़ उठाने वाले लोगों को किस तरह तोड़ा जा सकता है या उन्हें लड़ाया जा सकता है. ग़ौरतलब है कि इंटेलिजेंस ब्यूरो और मोसाद द्वारा ऐसे पत्रकारों का इस्तेमाल साख वाले पत्रकारों पर कीचड़ उछालने में किया जाता है.
ख़ु़फ़िया एजेंसियां, विशेषकर मोसाद और आईएसआई ऐसे पत्रकारों के घरों पर तोहफों की भरमार कर देती हैं और उन तोहफों के बदले ये पत्रकार उन्हें जानकारी मुहैया कराते हैं कि साख वाला पत्रकार कहां जाता है, कैसे रिपोर्ट करता है और कैसे उसकी अच्छी रिपोर्ट की साख ख़त्म की जाए. केवल यही नहीं, ये पत्रकार देशी ख़ुफिया एजेंसियों और विदेशी ख़ुफिया एजेंसियों को साख वाले पत्रकारों के सामाजिक संबंधों की भी जानकारियां देते हैं, ताकि ख़ुफ़िया एजेंसियां आसानी से उन पत्रकारों के चरित्र हनन की योजनाएं बना सकें. चरित्र हनन की कोशिश में ख़ुफ़िया एजेंसियां फेक अकाउंट खुलवाती हैं, उसमें पैसे डालती हैं, विदेशों में रेजिडेंस परमिट के झूठे काग़ज़ बनवाती हैं और उनकी फ़र्ज़ी सेक्स सीडी बनाने की योजनाएं बनाती हैं. मैं एक ऐसे संपादक को जानता हूं, जिसकी ओर से हांगकांग में रेजिडेंस परमिट की दरख्वास्त किसी ने दी. इसका मतलब यह है कि वह हांगकांग में अकाउंट खोल सकता है, उसके अकाउंट में पैसे डाले जा सकते हैं. इस संपादक के नाम से स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक में एक फेक अकाउंट खोला गया और उसमें पैसे भी डाले गए. इतना ही नहीं, संपादक के नाम के अकाउंट का एटीएम ऑपरेशन भी शुरू हो गया. संपादक हैरान, परेशान कि आख़िर यह हो क्या रहा है. उसने घबरा कर हांगकांग की अथॉरिटी और स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक को भी ई-मेल किए कि कोई उसकी तरफ़ से ग़लत सूचनाएं दे रहा है या फर्जी अकाउंट खोल रहा है.
यह वह चर्चित संपादक है, जिसके पीछे ख़ुफ़िया एजेंसियां, सरकार और राजनीतिक दल पड़े हुए हैं. वे इस संपादक की साख ख़त्म करना चाहते हैं. शायद इस खेल में स्वयं वित्त मंत्री पी चिदंबरम और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे शामिल हैं, क्योंकि बिना उनकी सहमति के, इस चर्चित संपादक के ख़िला़फ़ इतनी बड़ी आपराधिक साजिश नहीं हो सकती. मुझे मालूम है कि ये दोनों मंत्री ख़ामोश रहेंगे, क्योंकि इन्हें न तो अपनी इज्जत की परवाह है और न ही साख वाले पत्रकारों की इज्जत की.
मैं कह सकता हूं कि आज पत्रकारों का एक तबक़ा दलाली कर रहा है, जो संख्या में बहुत छोटा है, लेकिन एक दूसरा तबक़ा भी है, जो दलाली के चक्रव्यूह से बाहर है और ईमानदारी से अपना फर्ज़ पूरा कर रहा है. पहला तबक़ा संगठित है, लेकिन दूसरा तबक़ा असंगठित. दूसरे तब़के के पत्रकार देश के हालात, लोगों के दर्द, बेरोज़गारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से पीड़ित लोगों की कहानियां सामने लाने की कोशिश करते हैं और शायद यही पत्रकार देश में आशा और विश्‍वास का माहौल बनाए हुए हैं. देश में आम आदमी जब हर तरफ़ से हार जाता है, तो वह आख़िरी कोशिश के तौर पर पत्रकार के पास जाता है. पहले तब़के के पत्रकार ऐसे पीड़ित लोगों के दर्द का भी सौदा कर लेते हैं, लेकिन दूसरे तब़के के पत्रकार अपना जी-जान उनकी तकलीफ के कारण को सामने लाने में लगा देते हैं.
प्रभाष जोशी दूसरी तरह के पत्रकारों के आदर्श रहे. आज भी लोग उन्हें इसलिए याद करते हैं, क्योंकि उन्होंने हमेशा सच्चाई का साथ दिया. प्रभाष जोशी को याद करने और उन्हें अपना आदर्श मानने वाले पत्रकारों से यह आशा तो की ही जा सकती है कि वे सच्चाई के पक्ष में हमेशा उसी तरह अपना हाथ खड़ा करेंगे, जैसे प्रभाष जोशी हमेशा किया करते थे.

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