सालों पहले नारा गूंजता था-रोटी कपड़ा दे न सके जो, वह सरकार निकम्मी है. आज यह नारा नहीं गूंजता, क्योंकि प्राथमिकताएं पिछले सालों में बदली हैं. बदली प्राथमिकताएं सरकार कितनी समझती है यह सवाल खड़ा है, क्योंकि बदली प्राथमिकताओं पर आधारित सौ दिन के एजेंडे का आना अभी बाक़ी है.

सन सतहत्तर में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी तब राजनारायण ने, जो उस सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे, कहा था कि उनकी सरकार की प्राथमिकता लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध कराना है. राजनारायण जी का अख़बार वालों ने, कुछ राजनीतिक दलों ने उस समय मज़ाक बनाया था क्योंकि उन्हें लगता था कि पीने का पानी तो है ही, सिंचाई योजनाओं पर ज़ोर देना चाहिए.
अस्सी के दशक में चंद्रशेखर ने भारत की पदयात्रा की थी, तब उन्होंने भी पीने के पानी का सवाल ज़ोर-शोर से उछाला था. ये ऐसे नेता थे जिन्होंने बीस या तीस साल बाद उठने वाली समस्या को समझ लिया था.
देश के कई हिस्सों में पीने का पानी सालों से उपलब्ध नहीं है, राजस्थान जैसे प्रदेशों में तो बीस-बीस मील से सर पर ढोकर कर पीने का पानी लाना पड़ रहा है. पर यह स्थिति मैदान में, पहाड़ में, जंगल में, हर जगह आ जाए तो इसे किन शब्दों में व्यक्त करेंगे!  यही कहा जा सकता है कि उन समस्याओं पर न सरकार ने, न नौकरशाही ने और न न्यायालय ने ध्यान दिया, जो समस्याएं विकराल रूप लेकर देश में रहने वालों को परेशान कर सड़क पर उतरने को मजबूर कर सकती हैं.
इसी तरह बिजली है. बिना बिजली के जीवन की कल्पना करना मुश्किल है. खेती के लिए  बिजली इसलिए आवश्यक है कि सिंचाई और कटाई बिना उसके हो ही नहीं सकती. उद्योग भी बिना बिजली नहीं चल सकते. डीज़ल इसका विकल्प नहीं है. पिछले बीस सालों से सरकार बिजली को लेकर ज़ुबानी जमा ख़र्च करती रही है. मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग पर दस्तख़त हुए, ज़मीन दी गई लेकिन बिजली घर नहीं बने. क्यों नहीं बने, सरकारों ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया.
पानी और बिजली की समस्या ने अब देश की राजधानी को अपनी जकड़ में ले लिया है. छोटे शहर, क़स्बे और गांव तो सालों से इसकी चपेट में थे. आज भी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश  के गाज़ियाबाद या नोएडा में बिजली लगातार इतनी देर भी नहीं आती कि वहां इन्वर्टर रखने वाले उसे चार्ज भी कर सकें. और इन्वर्टर रखने वाले हैं कितने? सालों से ग़रीबों के मोहल्ले में, विशेषकर मुस्लिम बस्तियों में बिजली-पानी का संकट किसी की चिंता का विषय रहा ही नहीं है. ओखला और पुरानी दिल्ली के उन इलाक़ों में, जहां मुसलमानों की घनी बस्ती है, बिजली और पानी कब जाता है, कब आता है, पता ही नहीं चलता. इनकी सुनवाई सालों से नहीं हो रही थी, अब बड़े लोगों की बस्तियों में रहने वालों की सुनवाई भी नहीं हो रही.
राजधानी में सबसे महंगा इलाक़ा माना जाने वाला क्षेत्र भी आज पीने के पानी को तरस रहा है और वे जो कभी अपने वातानुकूलित कमरों से नहीं निकलते थे, आज बच्चों के साथ बिजली दफ़्तर पर धरना दे रहे हैं. अब पानी के सवाल पर ग़रीबों के बीच मारपीट आम हो चली है और कहीं-कहीं हत्याएं भी हो रही हैं.

सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि जो सरकार पीने का पानी नहीं दे सकती उसे राज करने का हक़ नहीं है, बतलाता है कि समस्या कितनी बढ़ गई है. इसलिए ज़रूरी है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से आग्रह किया जाए कि वह अपनी सरकार की सबसे पहली प्राथमिकताओं में पानी और बिजली को रखें. सांसदों से कहना चाहिए कि वे सरकार से बिजली और पानी को लेकर सक्षम योजनाएं बनाने को कहें.
क्यों न लोग सीधे प्रधानमंत्री को ख़त लिखें कि वह इन समस्याओं को अनदेखा न करें. प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि जहां पानी था भी वहां जलस्तर इतना नीचे चला गया है कि बोरिंग और ट्यूबवेल बेकार हो गए हैं.
यह इसलिए ज़रूरी है कि बारिश का मौसम आ गया है. सरकार को पूरी ताक़त से लोगों को बताना चाहिए कि किन तरीक़ों से जल संरक्षण किया जा सकता है. इसके लिए जो अभियान चलाना हो चलाएं, साथ ही अगली बारिश के लिए पानी को संरक्षित करने की योजना आज से ही बनाएं. योजना बनाने के लिए और कार्यरूप में परिणत करने के लिए तत्काल विशेषज्ञों को इसमें शामिल करना चाहिए.
बिजली के सवाल को, सौर ऊर्जा के सवाल को अब अनदेखा करना अपराध जैसा होगा. देश में नदियों का जाल है. वहां छोटे-छोटे बिजली घर बनाए जा सकते हैं. जिन्होंने सहमति पत्र पर दस्तख़त किए हैं, उन पर दबाव डाल कर उन प्रोजेक्ट्‌स को पूरा कराना चाहिए.
लेकिन यह तभी हो सकता है जब भारत सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता पानी और बिजली हो. इन दोनों विभागों का पहले सौ दिन और फिर तीन साल का एजेंडा सामने आना चाहिए. ये दोनों विषय बुनियादी तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर से संबंधित हैं,  क्योंकि जब ये दोनों नहीं होंगे तो न सड़कें बनेंगी और न संचार का तंत्र बन पाएगा. इन्हें सालों पहले हल कर लिया जाना चाहिए था, पर आज भी शुरुआत हो तो स्वागत होना चाहिए. पिछला रोने से तो काम चलेगा नहीं.
सरकार को यह ज़रूर बताना चाहते हैं कि अगर इन्हें वह अनदेखा करेगी तो वह विरोधी दलों को नहीं, जनता का अपने ख़िला़फ खड़े होने का मौका दे देगी. रोटी बिना तो कुछ दिन काम चल सकता है, लेकिन पानी बिना नहीं. आज तो पानी के क्षेत्र में माफिया जैसा तंत्र बन गया है जो पानी को बेच रहे हैं. इन सब स्थितियों से जनता सरकार और सरकारी अधिकारियों को अपने गुस्से का शिकार बना सकती है.
मनमोहन सिंह सरकार, आडवाणी की पार्टी, संसद के सदस्य अगर नहीं चेतते हैं तो उन्हें बिना पानी और बिना बिजली वालों के गुस्से का शिकार बनने के लिए तैयार रहना चाहिए, ऐसे लोग कुछ लाख नहीं हैं, बल्कि सारा देश है. अब भी व़क्त है, कि चेत जाएं.

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