राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के कार्यान्वयन को व्यापक तौर पर गांव की ग़रीबी और अभावग्रस्तता को दूर करने के कारगर उपाय के तौर पर देखा जा रहा है, बावजूद इसके गांव से शहरों की ओर पलायन जारी है. यह ऐसी पहली योजना है, जो ग़रीब अकुशल दिहाड़ी मज़दूरों को क़ानूनी रूप से काम का अधिकार देती है. यह प्रत्येक वित्तीय वर्ष में देश के ग्रामीण परिवारों के वैसे वयस्क सदस्यों, जो स्वैच्छिक रूप से अकुशल कार्य करने को तैयार हों, को आजीविका की गारंटी देती है. काम की क़ानूनी गारंटी देकर नरेगा पूर्व के रोज़गार- मज़दूरी संबंधी तमाम कार्यक्रमों के बीच अपनी एक उल्लेखनीय पहचान बना सकी है. यह एक अधिनियम है, स़िर्फ योजना नहीं. इसलिए यह देश की ग़रीब जनता को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है. लेकिन जैसा सही तरीक़े से उठाए गए क़दमों के साथ अमूमन होता है, यह पाया गया कि इस योजना के साथ कुछ बुनियादी परेशानियां हैं और शुरुआती दौर में इस योजना के साथ सब कुछ सही नहीं हुआ. उत्तर प्रदेश में अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर पाने में इस योजना को कितनी कामयाबी मिल पाई और सामाजिक ढांचा इससे कितना प्रभावित हो पाया, यह जानने के लिए वर्ष 2008-09 में इसके कार्यान्वयन का परीक्षण करने के लिए एक अध्ययन की रूपरेखा तैयार की गई. अध्ययन के लिए उत्तर प्रदेश को ही चुनने की दो मुख्य वजहें थीं. पहली तो यह कि इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश के उन लोगों की दशा में सुधार लाना है, जो ग़रीबी रेखा के नीचे आते हैं और अमानवीय स्थिति में जीवनयापन करने को मजबूर हैं. देश के तमाम राज्यों में उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहां ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है. दूसरी वजह यह थी कि उत्तर प्रदेश में इस योजना को जिस तरह से कार्यान्वित किया गया, उस पर उंगलियां उठ रही थीं. वर्ष 2007 में एशियन ह्यूमन राइट कमीशन ने पाया कि जिन लोगों तक इस योजना का लाभ पहुंचना चाहिए था, उनमें से ज़्यादातर ग़रीब लोग इससे वंचित रह गए. लोगों को जो जॉब कार्ड जारी किए गए, वे अधूरे और ख़ामियों से भरे थे. इसके बाद अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान (एबीएसएसएस) ने एनआरईजी प्रोग्राम की सामाजिक पड़ताल की और पाया कि प्रदेश के चित्रकूट ज़िले में इस योजना के कार्यान्वयन में कई फर्जीवाड़े हुए हैं तथा फंड का दुरुपयोग किया गया है. इस अध्ययन का उद्देश्य भी मुख्य तौर पर आवेदकों को जारी जॉब कार्ड की सच्चाई और योजना में फर्जीवाड़े के बारे में जानना था. प्रदेश में प्रत्येक ग्रामीण परिवार को सौ दिनों के रोज़गार गारंटी के दावे की समीक्षा भी अध्ययन का एक विषय था. इसके अलावा समाज के कमज़ोर लोगों यानी ग्रामीण ग़रीब एवं महिला मज़दूरों तक नरेगा के लाभ का विस्तार हुआ या नहीं और रोज़गार के अवसर पैदा करने में नरेगा कितनी प्रभावी रही, यह जानना भी हमारा उद्देश्य था. अध्ययन के लिए ज़रूरी आंकड़े हमने ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट www.nrega.nic.in और ज़िलों की प्रति व्यक्ति आमदनी से ज़ुडे आंकड़े www.upgov.up.nic.in से जुटाए.
लोगों को जारी जॉब कार्ड
ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि लोगों को जारी जॉब कार्डों की संख्या उनकी संख्या से भी ज़्यादा है, जिन्हें रोज़गार की तलाश है. मध्य, पूर्व और पश्चिमी क्षेत्रों में जितने कार्ड होने चाहिए, अतिरिक्त जारी कार्ड उससे 40 गुना ज़्यादा थे. विभिन्न क्षेत्रों के कुछ ज़िलों में बड़ी संख्या में जॉब कार्ड जारी किए गए थे और कई मामलों में यह संख्या औसत से भी ज़्यादा है. अलग-अलग क्षेत्रों में जहां फर्ज़ी कार्डों की संख्या क्षेत्रीय औसत और ज़रुरत से भी ज़्यादा पाई गई, उनमें मध्य क्षेत्र में बाराबंकी में 53 फीसदी, सीतापुर में 50 फीसदी, पूर्वी क्षेत्र में मऊ में 63 फीसदी, बलरामपुर में 59 फीसदी, आजमगढ़ में 55 फीसदी, संत कबीरनगर में 51 फीसदी और पश्चिमी क्षेत्र में मेरठ में 66 फीसदी एवं बिजनौर में 58 फीसदी आदि शामिल हैं.
उत्तर प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में जारी फर्ज़ी कार्डों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा यानी 64 था. इसके दो ज़िलों में तो मानों हद की सीमा ही लांघ दी गई. चित्रकूट में यह 90 फीसदी था तो महोबा में 70 फीसदी. एबीएसएसएस सर्वेक्षण में जिस नतीजे पर पहुंची, उससे आप वाक़ि़फ हो चुके हैं. हम जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे, उसकी सत्यता की पुष्टि तब हो गई, जब हमने यह पाया कि ज़िलों में दस्तावेजी सबूतों के अनुसार जो जॉब कार्ड जारी किए गए थे, वे अपेक्षित संख्या से का़फी अधिक थे. यह बात जानकर तो और भी निराशा हुई कि फर्ज़ी कार्ड अयोग्य व्यक्तियों को जारी किए गए हैं.
सौ दिन के रोज़गार का झूठा वायदा
नरेगा में प्रत्येक ग्रामीण परिवार के अकुशल दिहाड़ी मज़दूरों को साल में सौ दिन रोज़गार देने की बात कही गई है. जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है, तो दुर्भाग्यवश वहां ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला. हमने जो पाया, उससे इस बात की पुष्टि हो जाती है. रिकार्ड के मुताबिक़, वहां केवल 14 फीसदी ग्रामीण परिवारों को ही साल में सौ दिनों का रोज़गार मिल पाया. अलग-अलग क्षेत्रों में इसमें का़फी अंतर देखने को मिला. उत्तरी क्षेत्र में यह आंकड़ा 30 फीसदी था तो पूर्वी क्षेत्र में 16. मध्य क्षेत्र में दस और पश्चिमी क्षेत्र में केवल सात फीसदी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि रोज़गार की इच्छा रखने वाले परिवारों में से सबसे ज़्यादा लोगों को सौ दिनों का रोज़गार दक्षिणी क्षेत्र में उपलब्ध कराया गया. ऐसा उस क्षेत्र में हुआ, जिसमें बमुश्किल सात ज़िले शामिल हैं और जहां प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों की तुलना में नरेगा के मद में पर्याप्त रक़म ख़र्च की गई. अलग-अलग ज़िलों में भी इसमें का़फी फर्क़ दिखा. उदाहरण के लिए सौ दिन रोज़गार पाने वाले परिवारों का प्रतिशत मेरठ में 0.58, देवरिया में 0.95, कन्नौज में 0.95 और कुशीनगर में 1.64 था. इन मामूली परिणामों से इन ज़िलों में ख़राब कार्यान्वयन का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है. बहरहाल कई ज़िलों, जैसे पीलीभीत (पश्चिमी क्षेत्र) में 69 फीसदी, गोण्डा (पूर्वी क्षेत्र) में 52 फीसदी, महोबा (मध्य क्षेत्र) में 39 फीसदी और बांदा (दक्षिणी क्षेत्र) में 32 फीसदी परिवारों को सौ दिन का रोज़गार उपलब्ध कराया गया. बावजूद इसके कि कई शिक़ायतें भी थीं, जैसे मज़दूरी का कम भुगतान, कार्ड धारकों को भी रोज़गार उपलब्ध न करा पाना, घटिया सामग्री का इस्तेमाल और फर्ज़ी मस्टर रोल आदि. ये बिंदु लाभांवितों की प्रमाणिकता पर सवाल उठाते हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि यह योजना आवेदक परिवारों को सौ दिनों का रोज़गार उपलब्ध करा पाने के प्रावधान में कोई ठोस प्रगति करने में विफल रही है.
क्षेत्रीय स्तर पर काम की मांग करने वाले योग्य परिवारों को सौ दिनों का रोज़गार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता के संबंध में उक्त आंकड़े रोचक तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं. मध्य क्षेत्र के दस ज़िलों में नरेगा योजनाओं के मद में 85.5 करोड़ रुपये ख़र्च किए गए, जबकि बमुश्किल 10 फीसदी अर्हता प्राप्त परिवारों में से दस फीसदी को ही रोज़गार उपलब्ध कराया जा सका. इसकी तुलना में पश्चिम क्षेत्र जिसके अंतर्गत 26 ज़िले आते हैं, वहां 18.9 करोड़ रुपये ख़र्च करके आठ फीसदी परिवारों को सौ दिनों का रोज़गार उपलब्ध कराया गया. पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही क्षेत्रों में ख़र्च में हेराफेरी के स्पष्ट प्रमाण दिखे.
कम विकसित क्षेत्रों में नरेगा कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में बहुत ध्यान दिए जाने और इन इलाक़ों में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए ज़्यादा रक़म ख़र्च किए जाने की ज़रुरत है. अगर हम बतौर विकास सूचकांक वर्ष 2006-07 में ज़िलों की प्रति व्यक्ति आमदनी (1993-94 की कीमत पर) के आधार पर उत्तर प्रदेश के कम विकसित ज़िलों की पहचान करें तो मालूम होगा कि नरेगा फंड का सही तरीक़े से वितरण नहीं हुआ. सांख्यकीय जांच में हमने नरेगा फंड के प्रावधान और प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र के विकास के बीच मज़बूत एवं सकारात्मक सहसंबंध पाया. अकेले इस क्षेत्र में प्रदेश के 40 ज़िले आते हैं. यह इस बात का संकेत है कि योजना के कार्यान्वयन में सब कुछ सही नहीं है. जिनके लिए यह योजना बनाई गई है, कार्यान्वयन के स्तर पर भ्रष्टाचार की वजह से उन्हें इसका समुचित लाभ नहीं मिल पाता है. कार्यान्वयन में पारदर्शिता ज़रूरी है.
नरेगा योजना का सामाजिक आर्थिक प्रभाव
नरेगा योजना मज़दूरों को रोज़गार की वैधानिक गारंटी देती है. इसलिए यह समाज के सबसे वंचित लोगों- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाओं और अक्षम लोगों के लिए नई और क्रांतिकारी कोशिश है. इसमें कम से कम एक तिहाई मज़दूर अनिवार्य रूप से महिला होने की बात कही गई है. लेकिन इसमें का़फी भेदभाव देखने को मिलता है. वर्ष 2008-09 के दौरान इस योजना के कामों में स़िर्फ 19.3 फीसदी महिलाओं को ही रोज़गार के अवसर प्रदान किए गए. क़ानून में महिलाओं को 33 फीसदी अनिवार्य रूप से हिस्सेदारी देने की जो बात कही गई है, उससे यह बिल्कुल अलग है. अक्सर औरतों को काम न देने के पीछे ख़ास काम के लिए शारीरिक रूप से उनके कमज़ोर होने की बात कही जाती है. कुछ मामलों में यह कहा जाता है कि वे ख़ास कामों के लिए सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं हैं. कार्यस्थल पर बच्चों की देखरेख की सुविधा का अभाव एक और महत्वपूर्ण कारण है, जिसके चलते नरेगा के कामों में महिलाओं की भागीदारी कम देखने को मिलती है. कार्यस्थल पर ठेकेदार की उपस्थिति भी नरेगा के कामों से महिलाओं के दूर रहने की वजह बताई जाती है. यह शिक़ायत आम है कि ठेकेदार महिलाओं का किसी न किसी रूप से शोषण करते हैं. भुगतान में देरी को भी इसकी एक प्रमुख वजह समझी जाती है. जब उन्हें समय से मज़दूरी नहीं मिल पाती है तो वे पुराने कामों की ओर लौट जाते हैं. खेरा और नंदिनी ने 2009 में अपने अध्ययन में पाया कि उत्तर प्रदेश में नरेगा के कामों में कई जगहों पर महिलाओं को 15 दिन की अवधि के भीतर मज़दूरी का भुगतान नहीं किया गया था. ये कुछ ऐसे आधार हैं, जो महिलाओं को न केवल नरेगा के कामों से दूर, बल्कि उन्हें आर्थिक लाभ से भी वंचित रखते हैं. पिछले साल भर के दौरान उन्हें केवल 18 दिनों का काम ही क्यों मिला, यह अध्ययन का विषय है. उनमें से ज़्यादातर (क़रीब 83 फीसदी) रोज़गार के वैकल्पिक उपायों के बारे में सोच रहे हैं. केवल इतना ही नहीं, उनमें से किसी ने भी काम के बदले मज़दूरी नहीं प्राप्त की थी.
यह सही है कि खेरा और नंदिनी ने नरेगा योजनाओं में महिलाओं के साथ भेदभाव पाया, लेकिन साथ ही उन्होंने उनके परिवार में कई सामाजिक लाभ भी देखे. इस योजना ने उनके परिवार को भुखमरी का शिकार होने से बचाने का काम किया. 17 फीसदी महिलाओं ने स्वीकार किया कि इस योजना के अंतर्गत मज़दूरी मिलने से उन्हें रोज़गार की तलाश में घर से दूर कहीं दूसरी जगह नहीं जाना पड़ा और इस तरह वे शोषण से काफी हद तक बच सकीं. इतने ही लोगों ने यह माना कि इस योजना के अधीन काम करने की वजह से वे अपने स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल कर पाए और बीमारी से बचने के लिए ज़रूरी एहतियात बरत पाए. 50 फीसदी लोगों ने स्वीकार किया कि वे अपने बच्चों के स्कूल की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठा पा रहे हैं और 67 फीसदी ने क़र्ज़ उतार पाने में सक्षम होने की बात कही. नरेगा योजना में तमाम ़फर्ज़ीवाड़े और कमियों के बावजूद कई अच्छाइयां हैं और इसने कई घरों को ख़ुशियां दी हैं. इसके अलावा नरेगा योजना पर ख़र्च ने भी प्रति व्यक्ति रोज़गार के दिनों में ब़ढोतरी में मदद की. अध्ययन और पड़ताल के आधार पर यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि उत्तर प्रदेश में नरेगा योजनाओं में जॉब कार्ड जारी करने में भ्रष्टाचार और हेराफेरी के सबूत हैं. अलग-अलग ज़िलों में इसका प्रतिशत अलग है और कहीं-कहीं तो यह 90 प्रतिशत तक है. इसके अलावा जानबूझ कर भेदभाव की बातें भी देखने को मिलीं. जैसे फंड के उपयोग और स्थान एवं वंचित लोगों के चुनाव आदि में. महिला मजदूरों के मामले में श्रम क़ानूनों का भी खुला उल्लंघन देखने को मिला. इस योजना में जन कल्याण की अपार संभावनाएं छिपी हैं. अगर सही तरीक़े से इसे लागू किया गया तो यह समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने और ग़रीबी एवं अभावग्रस्तता को दूर करने की ताक़त रखती है.
योजना मे भारी भ्रष्टाचार
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