देश में खेती-किसानी से जुड़े लोगों की संख्या क़रीब सत्तर फ़ीसद है. इनमें काफ़ी बड़ा हिस्सा खेतिहर मज़दूरों का है. पिछले दिनों नरेंद्र मोदी सरकार ने अपना पहला आम बजट पेश किया. इसकी कहीं सराहना की गई, तो कहीं आलोचना. वैसे केंद्रीय बजट की तारीफ़ करने वालों की संख्या इसकी आलोचना करने वालों से अधिक है. अलबत्ता इस आधार पर हम इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि केंद्र सरकार का यह बजट संतुलित था और इसमें सभी वर्गों का ख्याल रखा गया, ग़लत होगा. आम बजट में इस बार भी किसानों के लिए कई तरह की घोषणाएं की गईं, लेकिन सच्चाई यह है कि पिछली कई सरकारों की तरह इस बार भी किसानों को राहत के नाम पर सब्ज़बाग़ दिखाए गए हैं. भारत किसान आत्महत्या मुक्त देश कैसे बनेगा, इसकी कहीं कोई चर्चा आम बजट में नहीं की गई है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले दिनों संसद में आम बजट-2014 पेश किया. अपने बजट में उन्होंने किसानों के लिए कई घोषणाएं की, लेकिन वे नाकाफ़ी हैं. वित्त मंत्री ने ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और उससे जुड़ी परियोजनाओं के क़र्ज़ के लिए 8 लाख करोड़ रुपये की धनराशि निर्धारित की है. किसानों को यह क़र्ज़ 7 फ़ीसद की ब्याज़ दर पर मिलेगा, लेकिन जो किसान क़र्ज़ की अदायगी समय पर करेंगे, उन्हें ब्याज़ दर में 3 फ़ीसद की छूट पहले की तरह दी जाएगी. हालांकि, किसान आयोग काश्तकारों को 4 फ़ीसद ब्याज़ दर पर क़र्ज़ देने की सिफ़ारिश काफ़ी पहले कर चुका है, लेकिन मौजूदा सरकार ने भी इस पर ग़ौर नहीं किया.
इस बजट में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भंडारगृह के विकास के लिए 5 हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. किसानों के लिए इसे अच्छा संकेत कहा जा सकता है. अगर ऐसा होता है, तो भूमिहीन किसानों को भी मनरेगा के तहत रोज़गार मिल सकेगा. कृषि मंत्रालय की सिफ़ारिश पर कपास की लोडिंग और अनलोडिंग पर लगने वाला सेवा कर भी समाप्त किया गया है. इसके अलावा, इस बजट में पूर्वोत्तर के राज्यों में जैविक खेती के विकास के लिए 100 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. इस साल कमज़ोर मानसून की आशंका की वजह से वित्त मंत्री ने 1000 करोड़ रुपये की लागत से प्रधानमंत्री सिंचाई योजना शुरू करने की घोषणा की है. अलबत्ता वित्त मंत्री ने कृषि की विकास दर के लिए 4 फ़ीसद का लक्ष्य निर्धारित किया है. वित्त मंत्री ने देश में ने चार विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा की है. इनमें दो कृषि विश्वविद्यालय होंगे और दो बागवानी विश्वविद्यालय. इसी तरह दिल्ली के पूसा की तर्ज पर दो कृषि अनुसंधान संस्थान भी खोलने की घोषणा की गई है. आंध्र प्रदेश और राजस्थान में कृषि विश्वविद्यालय खोले जाएंगे, जबकि हरियाणा और तेलंगाना में हार्टिकल्चर विश्वविद्यालय स्थापित किए जाएंगे.
वित्त मंत्री ने अपने बजट में दो अखिल भारतीय स्तर के कृषि अनुसंधान संस्थान खोलने का प्रावधान किया है. इनमें एक संस्थान असम में खुलेगा, तो दूसरा झारखंड में स्थापित किया जाएगा. इसके लिए आम बजट में 100 करोड़ रुपये की प्रारंभिक राशि का प्रावधान किया गया है. हालांकि, खेतिहर मज़दूरों और असंगठित मज़दूरों के लिए कोई उम्मीद की किरण इस बजट में नहीं दिख रही है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के लोगों को अनाज से ज़्यादा सरोकार है, लिहाज़ा केंद्र सरकार को चाहिए कि वह कृषि के लिए भी रेलवे की तर्ज पर अलग से बजट का प्रावधान करे, क्योंकि देश की सत्तर फ़ीसद आबादी किसानी के व्यवसाय के साथ जुड़ी हुई है और यह हैरत की बात है कि किसानों की दशा सुधारने के लिए केंद्र सरकार द्वारा ठोस क़दम नहीं उठाए जा रहे हैं. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि केंद्र सरकार ने आज तक किसानों के हित के लिए बनी स्वामीनाथन कमेटी की सिफ़ारिशों को लागू नहीं किया है. यह रिपोर्ट वर्ष 2006 में पेश हुई थी, जिसमें कमेटी ने सिफारिश की थी कि किसानों को उनकी फ़सलों के दाम कॉस्ट ऑफ प्रोडक्शन (उत्पादन पर खर्च) को आधार बनाकर डेढ़ गुना तक दिए जाएं.
बजट में किसानों और श्रमिकों से जुड़ी बातें
- कृषि उत्पादों के भंडारण के लिए 5,000 करोड़ रुपये.
- वाराणसी के बुनकरों के लिए 50 करोड़ रुपये का प्रावधान.
- पशमीना उत्पादन के लिए 50 करोड़ रुपये का आवंटन.
- चार फ़ीसद कृषि दर हासिल करने का लक्ष्य.
- कमज़ोर वर्गों के लिए सस्ती दरों पर चावल और गेहूं मुहैया कराना प्राथमिकता.
- किसान टेलीविजन के लिए 100 करोड़ रुपये का आवंटन.
- कृषि ऋण के लिए आठ लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य.
- समय पर क़र्ज़ लौटाने वाले किसानों को ब्याज़ में 3 फ़ीसद की छूट जारी रहेगी.
- किसानों को हेल्थ कार्ड के लिए 100 करोड़ रुपये.
- मौसम की मार से फ़सलों को बचाने के लिए एक राष्ट्रीय केंद्र बनेगा.
- पांच लाख किसान समूहों को नाबार्ड से मदद.
- 500 करोड़ रुपये के महंगाई फंड का ऐलान.
- कृषि आधुनिकीकरण के लिए 100 करोड़ रुपये ख़र्च किए जाएंगे.
- खाद और पेट्रोलियम सब्सिडी की समीक्षा होगी.
- नई यूरिया नीति का प्रस्ताव.
- ग्रामीण उद्यमिता के लिए 100 करोड़ रुपये.
- ईपीएफ योजना के तहत श्रमिकों के लिए न्यूनतम 1,000 रुपये की पेंशन
- संस्थान बदलने पर भी कर्मचारियों का ईपीएफ खाता नंबर समान ही रहेगा.
- 1,000 करोड़ रुपये से प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की शुरुआत.
देश में जब भी किसानों के हित की बात होती है, तो उसके लिए न्यूनतम दरों पर ऋण उपलब्ध करा देने को आसान-सा समाधान माना जाता है, जो काफ़ी नहीं है. असल में इस देश में सरकारी ऋण प्राप्त करने वाले किसानों से ज़्यादा संख्या उन किसानों की है, जो साहूकारों से क़र्ज़ लेते हैं. उन्हें किसी भी तरह की छूट का लाभ नहीं मिलता. आख़िर खेती घाटे का सौदा न साबित हो, इस बात पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं किया जाता? किसानों को हर साल ऋण की आवश्यकता क्यों पड़ती है? यदि उन वजहों पर ग़ौर किया जाए, तो आप पाएंगे कि सरकार फ़सलों का वाजिब मूल्य दे पाने में लाचार है. फ़सल उत्पादन लागत लगातार बढ़ती जा रही है और लागत कम करने का प्रावधान कभी भी देश के आम बजट में नहीं देखा गया. सरकार ज़ोर-शोर से कृषि विकास दर की बात कहकर अपनी पीठ थपथपाती है. इस विकास दर का असली आधार नकदी फ़सलें हैं और जब भी कृषि विकास दर बढ़ने की बात कही जाती है, तो उसका सीधा-सा मतलब है कि सरकार नकदी फ़सलों को और प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रही है.
पिछले पांच वर्षों में नकदी फ़सलों के जोत का आकार बढ़ा है, लेकिन ज़्यादातर किसान नकदी फ़सल में हुए घाटे की वजह से ही आत्महत्याएं कर रहे हैं. बात चाहे कर्नाटक, आंध्र प्रदेश की हो या फिर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके की या फिर तेलंगाना की. यहां किसानों के साथ हो रहे क्रूर मजाक का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले छह सालों में देश के अलग-अलग राज्यों में हज़ारों किसानों ने आत्महत्या की. बावजूद इसके सरकार खामोश है! देश के किसानों को फटेहाल और अधनंगा बनाने का ज़िम्मेदार आख़िर कौन है? जिस तरह देश में औद्योगिक नीति और शिक्षा नीति बनाई गई, उसी तरह कृषि नीति बनाने के लिए सरकार गंभीर क्यों नहीं है? दरअसल, सरकार का बजट हमेशा कॉरपोरेट जगत के फ़ायदे के लिए बनता है. सरकार को यह वजह जाननी होगी कि किसान अपने क़र्ज़ की भरपाई किन कारणों से नहीं कर पाता है. फिर उसे उन कारणों का हल ढूंढना चाहिए. एक तरफ़ देश में शहरीकरण का विस्तार हो रहा है, वहीं गांव उजड़ते जा रहे हैं. किसानों और मज़दूरों की स्थिति इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक की तरह हो गई है. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सरकार किसानों को भूलती जा रही है. क्या सरकार तभी जागेगी, जब इस देश के किसान और मज़दूर सड़कों पर उतर कर आंदोलन करेंगे.
बजट में बेशक कृषि क्षेत्र को लेकर कुछ घोषणाएं की गई हैं, लेकिन इनसे आम किसानों को कोई सीधा फ़ायदा नहीं मिलेगा. देश के करोड़ों किसानों को उम्मीद थी कि बजट में फ़सलों के मूल्यों को लेकर अहम ऐलान किया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका. फ़सलों के समर्थन मूल्यों में सुधार किसानों की सबसे बड़ी मांग है, जिसकी अनदेखी इस बजट में की गई है. बजट में बेशक समय पर क़र्ज़ वापस करने वाले किसानों को मिलने वाली 3 फ़ीसद की छूट जारी रखी गई है, लेकिन भारी क़र्ज़ के बोझ से दबे किसानों के लिए क़र्ज़ माफ़ी या विशेष छूट के बारे में कोई व्यवस्था नहीं की गई.
आम बजट से सहकारिता क्षेत्र में निराशा: डॉ. चंद्रपाल सिंह यादव
वित्त मंत्री ने पिछले दिनों केंद्रीय बजट पेश किया. उद्योग जगत ने जहां इस बजट की प्रशंसा की, वहीं कृषि और सहकारिता से जुड़े लोगों में इसे लेकर मायूसी है, क्योंकि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने क़रीब ढाई घंटे के अपने बजट भाषण में सहकारिता का कोई ज़िक्र नहीं किया. नरेंद्र मोदी सरकार से देश की सहकारी संस्थाओं को क्या अपेक्षाएं थीं, इसी मसले पर चौथी दुनिया संवाददाता अभिषेक रंजन सिंह ने भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआई) के अध्यक्ष डॉ. चंद्रपाल सिंह यादव से बातचीत की. प्रस्तुत हैं उसके मुख्य अंश…
राजग सरकार में प्रस्तुत पहले आम बजट को लेकर आपकी प्रतिक्रिया क्या है?
देश की करोड़ों जनता को नरेंद्र मोदी से काफी आशाएं थीं, लेकिन आम बजट पेश होने के बाद लोगों का यह भ्रम टूट चुका है. भाजपा अपने चुनावी भाषणों में अच्छे दिन लाने की बात कह रही थी, लेकिन वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत बजट में अच्छे दिनों की कोई झलक नहीं दिखती. इस बजट से देश के मुट्ठी भर लोगों को फ़ायदा होगा, क्योंकि मौजूदा केंद्र सरकार कॉरपोरेट घरानों की अनदेखी नहीं कर सकती, चाहे इसके लिए आम लोगों पर अतिरिक्त बोझ क्यों न डालना पड़े. देश की जनता के लिए आज महंगाई एक बड़ी समस्या है, लेकिन बजट में जिस तरह के प्रावधान किए गए हैं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि इससे महंगाई नियंत्रित हो पाएगी.
आम बजट में सहकारिता के बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया गया है, इस बारे में आपका क्या कहना है?
मैं बजट भाषण सुन रहा था और मुझे इस बात का दु:ख है कि वित्त मंत्री ने सहकारिता का कोई ज़िक्र अपने बजट में नहीं किया. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि नरेंद्र मोदी सरकार देश की सहकारी संस्थाओं के प्रति उदासीन है, जबकि भारत में सहकारिता ग़रीब व्यक्ति के उत्थान का सबसे महत्वपूर्ण हथियार है और किसानों के लिए मददगार भी. सहकारिता क्षेत्र से जुड़े क़रीब 25 करोड़ लोगों को आम बजट से विशेष मदद की उम्मीद थी, लेकिन केंद्र सरकार ने हम लोगों को निराश कर दिया.
आम बजट से सहकारिता क्षेत्र को किस तरह की उम्मीदें थीं?
सहकारी उपक्रमों को कर में मिलने वाली पुरानी रियायतें पुनर्बहाल किए जाने की उम्मीद हमें थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया. वर्ष 2006 तक सहकारी उपक्रमों को कर में छूट मिली हुई थी, जिसे 2007 में ख़त्म कर दिया गया. उसके बाद ज़्यादातर सहकारी संस्थाएं बदहाली के दौर से गुजर रही हैं. सहकारी संस्थाओं से जुड़े लोगों के आंसू पोंछने की बात तो दूर, बजट में सहकारिता के बारे में लेश मात्र ज़िक्र नहीं किया गया. इससे सहकारिता क्षेत्र में काफ़ी निराशा है.
आम बजट में जिस तरह सहकारिता की उपेक्षा की गई है, क्या इस बाबत आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर अपनी बात रखेंगे?
निश्चित रूप से भविष्य में हम लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर सहकारिता क्षेत्र की समस्याओं पर उनका ध्यान आकृष्ट कराएंगे. प्रधानमंत्री स्वयं गुजरात के हैं और जैसा कि आप जानते हैं, वहां सहकारी संस्थाएं काफ़ी अच्छा काम कर रही हैं. मुझे यकीन है कि प्रधानमंत्री सहकारिता से जुड़े करोड़ों लोगों को नज़रअंदाज़ नहीं करेंगे, क्योंकि इस देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने में देश की सहकारी संस्थाओं का काफ़ी बड़ा योगदान है. एक बात का ज़िक्र मैं यहां करना चाहूंगा कि कुछ साल पहले जब वैश्विक जगत आर्थिक मंदी का शिकार था, वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति कमोबेश अच्छी थी. शायद यह कम लोगों को पता होगा कि सहकारी संस्थाओं की वजह से ही देश की अर्थव्यवस्था उस कठिन दौर में भी महफूज़ रही.