2014 लोकसभा चुनाव के लिए मोदी पूरे देश का दौरा कर रहे हैं. सच बात तो यही है कि देश पिछले 20 सालों में आगे जाने की बजाय विकास के सफ़र में पीछे छूट गया है. ग़रीब और ग़रीब हो गए और अमीर पहले कई गुणा ज्यादा अमीर हो गए. किसानों की हालत ख़राब है. वो आत्महत्या कर रहे हैं. खेतों को छोड़ कर शहरों में पलायन कर रहे हैं. दुनिया के सबसे ज्यादा युवा भारत में तो रहते हैं, लेकिन सच्चाई ये भी है कि यहां सबसे ज्यादा बेरा़ेजगार भी रहते हैं. कृषि, उद्योग, खनन और निर्माण क्षेत्र में भारत की स्थिति दयनीय है. कांग्रेस पार्टी की नीतियों का असर पिछले तीन सालों में भारत की जनता न स़िर्फ देख रही है, बल्कि झेल भी रही है. नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. तो सवाल यह उठता है कि अर्थव्यवस्था की बदहाली से उबारने का कोई मंत्र क्या नरेंद्र मोदी के पास है. नरेंद्र मोदी कहते हैं कि गुजरात के मॉडल को वो पूरे देश में लागू करेंगे. तो यह समझना ज़रूरी है कि नरेंद्र मोदी का आर्थिक एजेंडा क्या है?
n-modiइसमें कोई शक नहीं है कि गुजरात विकास के ज्यादातर मापदंडों पर दूसरे राज्यों से काफ़ी आगे है. गुजरात में देश की जनसंख्या के स़िर्फ पांच फ़ीसदी लोग रहते हैं, लेकिन उद्योग में इसका योगदान 16 फ़ीसदी है और देश के निर्यात में गुजरात की हिस्सेदारी 22 फ़ीसदी है. गुजरात की कृषि विकास दर 10 फ़ीसदी की दर से आगे बढ़ रही है, जबकि देश की कृषि विकास दर महज़ तीन फ़ीसदी है. यह भी सच है कि गुजरात के गांवों में 24 घंटे बिजली रहती है. मोदी के शासनकाल में गुजरात ने औसतन 10.5 फ़ीसदी का आर्थिक विकास दर को बरक़रार रखा है. आंकड़ों से तो यही साबित होता है कि मोदी के नेतृत्व में गुजरात ने बुलंदियों को छुआ है. लेकिन गुजरात की व्यावसायिक वैभव की गाथा कोई नई नहीं है. यह इतिहासकाल में सिल्क और स्पाइस रूट के केंद्र में रहा. अंग्रेजों के ज़माने में सूरत भारत का सबसे अहम बंदरगाह रहा और ब्रिटिश काल के दौरान से ही गुजरात में सरकारी तंत्र देश के बाक़ी राज्यों से बेहतर रहा है. इस दौरान बड़ौदा के रजवाड़े का भी गुजरात को आगे बढ़ाने में अहम रोल रहा. राज्य में केमिकल और दवाइयों के उद्योग की शुरुआत की. गुजरात की गिनती कभी भी पिछ़डे राज्यों में नहीं हुई. शिक्षा, उद्योग, वाणिज्य व अन्य क्षेत्रों में 2001 से पहले से गुजरात देश के अव्वल राज्यों में रहा. यह कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को विरासत में एक प्रगतिशील और धनी राज्य मिला, जिसे वो आगे बढ़ाने में कामयाब रहे. मोदी के विकास का मॉडल अदम्य उदारीकरण का नमूना रहा है. उन्होंने सरकारी संस्थानों को मज़बूत करके विकास करने की जगह निजीकरण के ज़रिए विकास का रास्ता चुना है. नरेंद्र मोदी के विकास मॉडल के दो सिद्धांत हैं. पहला यह कि आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए अनुकूल व्यापार माहौल बनाना और दूसरा यह कि निवेश को बनाए रखने के लिए ईमानदार, पारदर्शी और प्रभावी शासन का माहौल बनाना. कहने का मतलब यह कि राज्य में निजी पूंजी निवेश का रास्ता साफ करना. मोदी के विकास का मॉडल सरकार और पूंजीवाद के सांठगांठ का आद्वितीय उदाहरण है, इसलिए यह मॉडल कॉरपोरेट जगत को बहुत भाता है. इस मॉडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि विकास के इस सफर में जनता की हिस्सेदारी नहीं है. यह वही रास्ता है, जिसे मनमोहन सिंह ने 1991 में वित्तमंत्री रहते शुरू की थी. अब सवाल यह है कि क्या विकास का यह मॉडल पूरे देश में लागू किया जा सकता है?
भारत का हर इलाक़ा गुजरात नहीं है. आधा से ज्यादा इलाक़ा पिछड़ेपन की चपेट में हैं. वह कृषि पर आधारित हैं. सरकारी तंत्र लुंजपुंज है. शिक्षा नहीं है. उद्योग के काम आने वाला प्रशिक्षित मानव संसाधन नहीं है. आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं. इसके अलावा कई सामाजिक और राजनीतिक दुविधाएं हैं, जिसकी वजह से ऐसे इलाक़ों में पूंजी निवेश असंभव है. जब निवेश ही नहीं होगा तो इन इलाक़ों में गुजरात मॉडल सफल नहीं हो सकता है. हैरानी इस बात की है कि नरेंद्र मोदी का ध्यान अब तक इन इलाक़ों पर न तो गया है और न ही ऐसे इलाक़ों के लिए विकास का मॉडल क्या हो, इस पर कभी उन्होंने कोई राय दी है. कहने का मतलब यह है पूर्वी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पश्‍चिम बंगाल, ओडिशा, उत्तराखंड, कश्मीर व उत्तरपूर्वी राज्यों जैसे पिछड़े इलाक़ों के विकास के लिए कोई मॉडल तैयार नहीं है.
जो लोग नरेंद्र मोदी का समर्थन कर रहे हैं, वे ऐसे लोग हैं जो नवउदारवाद की जनविरोधी नीतियों को सही मानते हैं. मीडिया में इसे समर्थन इसलिए मिलता है, क्योंकि ज्यादातर मीडिया हाउस उन्हीं औद्योगिक घरानों द्वारा संचालित हैं, जिन्हें नव-उदारवादी नीतियों का लाभ मिल रहा है. नरेंद्र मोदी अपने भाषणों के दौरान जिस गुजरात मॉडल का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, वह भ्रामक सूचनाओं और झूठ के पिटारे के अलावा कुछ भी नहीं है. इस मॉडल का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि यह मॉडल सरकार को अपने संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वाह न करने को ही सही मानता है. यह मॉडल शिक्षा, रोज़गार, अवसर और सामाजिक-राजनीतिक विकास के लिए निजीकरण पर आश्रित है. मोदी जी की सरकार की ख़ासियत यह है कि उन्होंने पूरी सरकार का ही निजीकरण कर दिया है. सरकार की नीतियां और सरकार की प्राथमिकता मूलभूत सेवाओं को उपलब्ध कराने से ज्यादा निजी निवेशकों की पैसे कमाने में मदद करना है. यही वजह है कि विकास का ये मॉडल गुजरात के निवासियों को फ़ायदा पहुंचाने में विफल रहा है. जो भी स़डकें, इंडस्ट्री या सेज की वजह से लोगों को फ़ायदा पहुंचा है, यह असलियत में निजी कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए किया गया था.
गुजरात पर नज़र डालें तो यह कहा जा सकता है कि इस मॉडल के तहत चलने वाले प्रशासन में विकास के आंकड़े तो अच्छे दिखते हैं, लेकिन रोज़गार नहीं मिलता. बेरोज़गारी की समस्या ब़ढती है, साथ ही इसमें लोगों की कुल आमदनी में मज़दूरी का शेयर कम हो जाता है. इस मॉडल में छोटे किसान, भूमिहीन किसान और सीमांत किसानों की स्थिति बदतर हो जाती है. सबसे ब़डी समस्या यह है कि सरकार जिस तरी़के से भूमि के इस्तेमाल का क़ानून बना देती है, उसके चलते ज़मीन आम किसानों की पहुंच के बाहर होती चली जाती है. गुजरात मॉडल लोकनीति और सरकार द्वारा लोककल्याण कार्यक्रमों में पैसे ख़र्च करने वाला मॉडल नहीं है. इतना ही नहीं, यह मॉडल सामाजिक ढांचे की कमियों  को दूर करने के लिए भी निजी क्षेत्र पर आश्रित होता है. यह एक ऐसा मॉडल है जो समावेशी नहीं है, बल्कि भेदभाव में आकंठ डूबा हुआ है. इसकी वजह से राज्य के अंदर ही अलग-अलग क्षेत्रों में विभेद पैदा हो गया है. जिसका ख़ामियाजा पर्यावरण के साथ-साथ गांव में रहने वाले ग़रीब को झेलना पड़ता है.
निजीकरण व पूंजीनिवेश आधारित विकास मॉडल का सबसे ज्यादा नुकसान सामाजिक विकास पर पड़ता है. अशिक्षा भारत की सबसे ब़डी समस्या है. दुनिया की साक्षरता दर 84 प्रतिशत है, जबकि भारत की साक्षरता दर मात्र 74.04 प्रतिशत पर ही अटकी है. भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा निरक्षर लोग रहते हैं. 2001 से 2011 के बीच राष्ट्रीय साक्षरता दर 9.2 प्रतिशत के हिसाब से ब़ढी है, लेकिन गुजरात में दशक के हिसाब से साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से नीचे, मात्र 8.89 प्रतिशत है. यही हाल उच्च शिक्षा है. गुजरात में व्यावसायिक और उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया है. प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूल में इसी उम्र वय के बच्चों पर ग़ौर करें तो महिलाओं, पिछ़डे, दलितों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की पहुंच गुजरात में राष्ट्रीय स्तर से कम रही. कई राज्यों की तुलना में यह पीछे है. जब गुजरात में शिक्षा पर सरकारी ख़र्च में राष्ट्रीय अनुपात की तुलना में भारी कटौती की गई, उस दौरान शिक्षा के लिए सरकारी और स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों पर निर्भरता या तो ब़ढी या उतनी ही बनी रही. ऐसा ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में हुआ. कहने का मतलब यह है निजी क्षेत्र के महंगे प्राइवेट स्कूल लोगों की शिक्षा संबंधी आवश्यकता को पूरा कर सकने में कामयाब नहीं हैं. संविधान के नज़रिए से सरकार का यह मूल कर्त्तव्य है कि वह लोगों को शिक्षित करे, लेकिन इस नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में यह उसकी प्राथमिकता में नहीं है. वजह साफ़ है कि शिक्षा में निवेश का उद्देश्य लोगों को शिक्षित करने के बजाए मुनाफ़ा कमाना होता है. चाहे वो मोदी हों या फिर मनमोहन सिंह, समझने वाली बात यही है कि ऐसी आर्थिक नीतियां जो कि स़िर्फ निजी फ़ायदे के लिए हैं, वह न स़िर्फ जनविरोधी हैं, बल्कि संविधान विरोधी भी हैं.
गुजरात के विकास मॉडल का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि गुजरात में निवेशक स़िर्फ निवेश ही नहीं करते, बल्कि विकास की दिशा भी तय करते हैं. जिसकी वजह से विकास का लाभ आम लोगों को नहीं मिलता. विकास की दिशा, दशा अब सरकार तय नहीं करती. ये निवेशक, वित्तीय संस्थाएं और कॉरपोरेट तय करते हैं, जिनका उद्देश्य जनसेवा नहीं, बल्कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाना होता है. गुजरात मॉडल का सीधा मतलब ये है कि येन केन प्रकारेण राज्य में पूंजी का निवेश हो. बंदरगाह, स़डक, रेल और बिजली जैसे विभाग जो अब तक सरकार के पास थे, मोदी जी ने इसे भी प्राइवेट कंपनियों और कॉरपोरेट के हवाले कर दिया. दरअसल, गुजरात मॉडल का मतलब है कि सरकार सभी निर्णय संबंधी शक्तियां, कार्यकारी और आर्थिक नियंत्रण को तिलांजलि दे दे. यह कहा जा सकता है कि गुजरात मॉडल पूरी तरह से कॉरपोरेट के विकास का मॉडल है. यह मॉडल निजी निवेशकों का, निजी निवेशकों के द्वारा, निजी निवेशकों के लिए तैयार किया हुआ मॉडल है.
इस मॉडल का असर देश की ग़रीब जनता पर साफ़ नज़र आता है. यह मॉडल अमीरों को फ़ायदा पहुंचाने वाला मॉडल है. गुजरात में मोदी के शासनकाल में प्रति व्यक्ति ख़र्च 2.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ा, जबकि पिछले पांच वर्षों में राज्य की अनुसूचित जनजातियों के लिए यही आंकड़ा 0.14 प्रतिशत था. प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में सेड्यूल ट्राइब और अन्य आबादी के बीच का फ़ासला बहुत ज्यादा है. स्वास्थ्य मानकों के आधार पर जैसे शिशु मृत्यु दर, महिला और पुरुष की जीवन प्रत्याशा, टीकाकरण, प्रसवपूर्व देखभाल के मामलें में राष्ट्रीय स्तर की तुलना में गुजरात का प्रदर्शन सामान्य रहा है. पिछले एक दशक के दौरान ज्यादातर मामलों में गुजरात अन्य विकसित राज्यों, मसलन तमिलनाडु, हरियाणा और महाराष्ट्र से तुलनात्मक रूप से पीछे ही रहा है, बावजूद इसके कि वहां की प्रति व्यक्ति आय में इज़ाफ़ा हो रहा है. एक और बात जो चिंताजनक है कि पांच वर्ष के भीतर की शिशु मृत्यु दर के मामले में राष्ट्रीय औसत से भी पीछे है. ऐसी ही स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष और महिला मृत्यु दर के संदर्भ में भी है.  निश्‍चित रूप से यह आंकड़े ग़रीब तबके, ख़ासकर अनुसूचित जनजातियों व अन्य के बीच में एक विभाजक रेखा खींचते हैं.
यह बहस का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक आवश्यकता है कि राज्य देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाए, साथ ही समाज के सभी वर्गों के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का आधार तैयार करे. संविधान के मुताबिक़, भारत सरकार के लिए अपरिहार्य विषय है कि वह सर्वांगीण विकास की नीतियां बनाए और अमीर-ग़रीब के बीच के फ़ासले को कम करे. पिछले 23 वर्षों में नवउदारवादी नीतियों ने इसके बिल्कुल विपरीत काम किया है. देश की जनता को बाज़ार की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि ऐसी ही नीतियों की वजह से देश के 270 ज़िले पूरी तरह से राज्य की मशीनरी के नियंत्रण से बाहर चले गए हैं. समस्या यह है कि कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने अर्थव्यवस्था को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया जहां नव-उदारवाद की नीतियों को एक मात्र उपाय समझा जाने लगा है. दरअसल, नवउदारवाद भारत की आर्थिक व्यवस्था का उपाय नहीं, खतरा है, जो अपने साथ भ्रष्टाचार, संसाधनों की संगठित लूट के साथ-साथ देश की एकता और अखंडता पर संकट लेकर आते हैं. नरेंद्र मोदी का तथाकथित सफल विकास मॉडल दरअसल मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति का सफल क्रियान्वयन है. अफ़सोस इस बात का है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस ख़तरे से निपटने के बजाय इसे उपाय मानते हैं.

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