उत्तराखंड राज्य में सैकड़ों बांध बनाए जा रहे हैं. काफी बनाए जा चुके हैं. इन बांधों के निर्माण से पहले कुछ सपने हर बांध से प्रभावित होने वाली जनता को दिखाए जाते हैं. जैसे बांध निर्माण से बिजली उत्पादन बढ़ेगा, सिंचाई के बेहतर साधन उपलब्धी हो जाएंगे, लोगों का बेहतर पुनर्वास किया जाएगा आदि-आदि. अब इसका वास्तविक पक्ष या कहिए स्याह पक्ष देखना हो तो एक बार टिहरी बांध की ओर नज़र जरूर दौड़ानी चाहिए. टिहरी बांध के विस्थापितों का दर्द लगभग उत्तराखंड के प्रत्येक बांध विस्थापित की कहानी है. इसी तरह का एक बांध बन रहा है विष्णुकगॉड पीपलकोटि बांध.
पीपलकोटि बांध के निर्माण की सुगबुगाहट होने के साथ ही इसका विरोध शुरू हो गया था. साल 2004 में ही इसके निर्माण से होने वाले खतरों के मद्देनजर कई खत सरकार को सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा लिखे गए. लेकिन इसके बावजूद बांध बनाने की कागजी कार्रवाई चलती रही. बांध के विस्थाापितों की आवाज उठाने वाले एनजीओ माटू जनसंगठन के प्रमुख विमल भाई कहते हैं कि पीपलकोटि बांध को लेकर पहली जनसुनवाई साल 2006 में रखी गई. उस जनसुनवाई में हमने बांध निर्माण का विरोध किया था. उस सुनवाई के दौरान विश्व बैंक के अधिकारी भी मौजूद थे. हमने इस बात का भी विरोध किया कि यहां जनसुनवाई के दौरान विश्व बैंक के अधिकारी क्यों मौजूद हैं? विमल भाई कहते हैं कि पीपलकोटि तो सिर्फ एक प्रोजेक्ट है.
उत्तराखंड में बांध बनाने का धंधा चल रहा है, जिसमें विश्व बैंक के अधिकारी और सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत है. वे जेपी कंपनी पर सीधे उंगली उठाते हुए कहते हैं कि इस धंधे में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाकर यही कंपनी आम लोगों को लूट रही है. वे टिहरी बांध को उत्तराखंड राज्य की संस्कृति पर एक धब्बा बताते हैं.
पीपलकोटि बांध की दूसरी जनसुनवाई 2007 में हुई और इसी साल 22 अगस्त को इसे इन्वायरनमेंटल क्लियरेंस मिल गई. अब इसे फॉरेस्ट क्लियरेंस की आवश्यवकता थी. 2008 में वह भी दे दी गई. लेकिन इसके बाद मामला अदालत में होने की वजह से बांध निर्माण का काम लटका रहा. 2013 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने राज्य में चल रहे सभी बांधों के निर्माण कार्य पर रोक लगा दी.
राज्य सरकार ने चालाकी दिखाते हुए इस प्रोजेक्ट की बैक डेट में क्लियरेंस दे दी. उसके बाद यहां उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद काम चालू हो गया. बांध निर्माता कंपनी टीएचडीसी ने फिर वही सब काम शुरू कर दिए जो वह पहले भी अपने कई प्रोजेक्ट के दौरान करती आई है. बांध निर्माण के दौरान पूरा मलबा नदी में डाला जा रहा है. इसमें बहुत संशय नहीं है कि यह भविष्य में फिर एक भयावह बाढ़ को आमंत्रित करे. ज्यादा समय नहीं बीता जब उत्तराखंड एक ऐसी त्रासदी से गुजर चुका है और अभी उसके घाव भरे नहीं है.
कंपनियों द्वारा आम जनता को दिए जाने वाले लालच के बारे में भी विमल भाई बताते हैं. कहते हैं कि कंपनियों को जिन इलाकों में बांध निर्माण का काम करना होता है, वहां के लोगों को वे लालच देना शुरू कर देती हैं. लोगों में पैसे बांटे जाते हैं. पुनर्वास का प्रलोभन दिया जाता है. गांव के प्रधान या किसी एक रसूखदार आदमी तक कंपनी के अधिकारी पहुंच बनाते हैं जो लोगों को अपने लालच के जाल में फांस सकें. वे कहते हैं कि जब पैसा बंट रहा होता है तो ऐसे समय में हमारे लिए लोगों को समझाना भी बहुत मुश्किल होता है. हमारे खिलाफ वहां की आम जनता को भी भड़काया जाता है कि विरोध करने वाले लोग विदेशी धन से संचालित हो रहे हैं और विकास कार्य में बाधा डालने का काम कर रहे हैं. आम जनता इन लोगों के लालच में आ जाती है और फिर बाद में त्रासदी भुगतती है. कंपनियां सीएसआर का पैसा भी
डकार जाती हैं.
बांध की सच्चाई बयान करने वाले एक सर्वे ने साल 2001 में कहा था कि बांध निर्माण से सिंचाई की एक इंच जमीन भी नहीं बढ़ी है. मतलब पहले से ही मौजूद जिन संसाधनों के आधार पर खेती की जा रही थी और जितना उत्पादन हो रहा था, उसमें कोई बढ़ोतरी बांध निर्माण से नहीं हुई. हालांकि इस मामले में टीएचडीसी कंपनी के अधिकारी यही कहते हैं कि हमने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया है. लेकिन कोर्ट में सुनवाई के दौरान उनके सारे दावे काफुर हो जाते हैं.
विमल भाई कहते हैं कि सिर्फ इतना ही नहीं है कि बांध निर्माण की प्रक्रिया से यहां के लोग जूझ रहे हैं. वे पूछते हैं कि आप ही बताइए कौन सा ऐसा बांध है जहां से पूर्व में निर्धारित की गई बिजली क्षमता का पूरा उत्पादन हो पा रहा है. कंपनी के अधिकारी बांध निर्माण से पहले बिजली उत्पादन का जो लक्ष्य दिखाते हैं वह बांध निर्माण के बाद शायद ही पूरा हो पाता है. इसका मतलब यह है कि जिस विकास के खोखले वायदे के साथ आप नदियों को अविरल बहने से रोककर प्राकृतिक त्रासदियों को बुलावा देते हैं, उस विकास के वायदे के हर चरण पर सरकार असफल साबित होती है. इतिहास इसका गवाह है.
आप इस संदर्भ में उत्तराखंड के टिहरी बांध के मामले को शुरुआत से देखिए. इस बांध की वजह से यहां के लोगों के जीवन में जो तबाही आई है, उसकी भरपाई शायद ही हो पाए.
कई रिपोर्ट ऐसी भी आईं कि विश्व बैंक ने इस प्रोजेक्ट को फंड करने से मना कर दिया. तो फिर आखिर कैसे ये सारे प्रोजेक्ट शुरू हो गए. इस पर विमल जवाब देते हैं कि देखिए विश्व बैंक के भारत में जो अधिकारी हैं, उन्हें भी अपनी दुकान चलानी है. उनका यहां सरकारी अधिकारियों और कंपनियों से गठजोड़ होता है. यह एक पूरा सिस्टम है जो साथ मिलकर उत्तराखंड की संस्कृति को बर्बाद करने का प्रण ले चुका है. मान लीजिए कि हमने यहां से खत लिखकर विश्व बैंक के मेन ऑफिस को सूचित भी कर दिया तो यहां मौजूद उसके अधिकारी वहां पर पूरे मामले को रफा-दफा करने के लिए जोर लगाते हैं. बांध निर्माण की प्रक्रिया के दौरान जो सरकारी अधिकारी निरीक्षण करने जाते हैं वे भी सही रिपोर्ट नहीं लगाते.
अगर वे यह रिपोर्ट लगा दें कि यहां बांध का मलबा नदियों में डाला जा रहा है तो इनका इन्वायरनमेंटल क्लियरेंस तुरंत ही रद्द हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं होता, क्योंकि सरकारी अधिकारी भी इस गठजोड़ का हिस्सा हैं. एक योजना की शुरुआत में ही यह तय हो जाता है कि पुनर्वास के दौरान लगभग कितने पैसे का खर्च बैठेगा. शुरुआती पुनर्वास दिखावे के लिए तेजी से किया जाता है लेकिन फिर बाद में उसकी बंदरबांट शुरू हो जाती है. आप ये सोचिए कि आखिर इन सब के बीच नुकसान किसका होता है. कमाल की बात तो यह है कि जब आम जनता इसके खिलाफ आंदोलन करती है तो उन पर मुकदमे लगा दिए जाते हैं. अभी पीपलकोटि बांध का विरोध करने पर सौ से अधिक ग्रामीणों पर मुकदमे लाद दिए गए हैं.
सरकार कहती है ये देशविरोधी लोग हैं और विकास कार्य नहीं होने देना चाहते. आप बताइए यह विकास किसके लिए हो रहा है? क्या इन बांधों के आस-पास की जनता देश की नागरिक नहीं है? क्या इस देश का विकास उनकी बर्बादी की शर्त पर ही होगा?
दरअसल, पीपलकोटि बांध एक बानगी है उत्तराखंड में बांध के नाम पर चल रहे गोरखधंधे की. इस गोरखधंधे में विश्व बैंक, सरकार और स्वदेशी कंपनियों के अलावा कई ऐसे एनजीओ भी शामिल हैं जो बांध विकास कार्य की पहली शर्त बताते हैं. इनका काम लोगों तक सही बात पहुंचाना है लेकिन ये लोग सिर्फ झूठ बोलकर अपना पेट भरने का धंधा करते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि हमें बिजली और सिंचाई जैसी जरूरतों के लिए बांधों की आवश्याकता है. लेकिन बांध निर्माण के दौरान होने वाले घपले सिर्फ बदनीयत दिखाते हैं.
दरअसल इस पूरे मामले में सरकार की जिम्मेदारी इसलिए भी ज्यादा हो जाती है क्योंकि प्राइवेट कंपनियां तो लोगों को लूट कर भागने की फिराक में रहती हैं, अगर यही काम जनता के प्रतिनिधियों ने भी करना शुरू कर दिया तो समझिए बेड़ा गर्क होने में ज्यादा समय नहीं है. यह याद रखना होगा कि उत्तराखंड ने बाढ़ की बड़ी त्रासदी देखी है. अगर यूं ही हीलाहवाली में बांधों का निर्माण कार्य चलता रहा तो जल्द ही एक और केदारनाथ जैसी त्रासदी की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता.