कांग्रेस ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ क्या शुरु की राहुल गांधी पर सवाल उठाने वाले मोदी विरोधियों के भी उनको लेकर स्वर बदलने लगे । राहुल गांधी के प्रति उपजी सहानुभूति और उनसे संभावनाओं की आकांक्षाएं एकदम से बढ़ गयीं । वे लोग भी जो कहते थे जब तक राहुल गांधी के हाथ पांव नहीं टूटेंगे तब तक वे नेता नहीं बन सकते , वे भी भरपूर उम्मीदों से उनका आकलन करने लगे । यात्रा से तिलमिलाई बीजेपी को देख कर राहुल के प्रति सहानुभूति देख सुन अच्छा लगा । पर क्या वास्तव में राहुल गांधी से हमारा इतनी उम्मीद पाल लेना कुछ जल्दबाजी नहीं होगी? राहुल गांधी को पसंद करने वाला हर व्यक्ति उनमें बड़े और शालीन नेता के गुण देख रहा है । उन्हें अगला प्रधानमंत्री या मोदी के सही विकल्प के रूप में देख रहा है । वह मोदी से राहुल गांधी की तुलना शालीनता और झूठ सच के पैमाने के साथ साथ मोदी के फूहड़पन के आलोक में भी देख रहा है । भक्ति कुछ ऐसी ही होती है । वह जो नहीं देख पा रहा है उस ओर भी इशारा किया जाना चाहिए । इस संदर्भ में हमें लगता है पहले राहुल गांधी के मनोविज्ञान को समझना जरूरी है । इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी को बारीकियों के साथ परखना चाहिए। जितना हम समझे हैं कि राहुल गांधी ने अपने भीतर के आत्मविश्वास को सारी चिंदियों के साथ बाहर ला दिया है । बहुत समय से सवाल किये जा रहे थे कि राहुल गांधी पार्टी का अध्यक्ष पद क्यों नहीं स्वीकार कर रहे हैं । इस यात्रा में हमें जो दिखा वह स्वयं राहुल गांधी की यह स्वीकार्यता कि वे राजनीतिक रूप से अभी परिपक्व नहीं हुए हैं । निश्चित रूप से अब उनमें परिपक्व राजनेता होने की भूख जागृत हुई है । राहुल गांधी की भक्ति में लीन तमाम लोग इस अर्थ में राहुल गांधी से बहुत आगे निकल गए हैं । इसीलिए वे उनको परिपक्व नेता समझ बैठे हैं । पर स्वयं राहुल गांधी इस अर्थ में बेहद ईमानदारी के साथ भीतर ही भीतर यह स्वीकार कर रहे हैं कि एक परिपक्व नेता के रूप में अभी भीतर की यात्रा लंबी है । वे पत्रकारों को कहते हैं कि जब यात्रा खत्म हो जाए तब आप मुझसे पूछना कि मैंने अध्यक्ष पद क्यों नहीं स्वीकारा , तब मैं आपको बताऊंगा । राहुल गांधी की यह स्वीकृति कि वे अभी खांटी राजनीतिज्ञ नहीं हुए हैं , हम समझते हैं यही उनकी ईमानदारी उनका कद आने वाले दिनों में बढ़ाएगी । हमें यकीन है कि (सफल) यात्रा के बाद राहुल गांधी एक आत्मविश्वास से ओत प्रोत होंगे । शायद यही अंदेशा आरएसएस और भाजपाइयों ने भांप लिया है । इसलिए उनकी तिलमिलाहट समझ से परे नहीं है । बीजेपी ने राहुल गांधी को पप्पू साबित करने की कोई कसर नहीं छोड़ी उधर राहुल गांधी ने उस छवि को धोने की कोई कोशिश नहीं की । वे वैसे ही रहे । यही नहीं अजीब टाइप की हरकतें करते दिखे । कभी जबरन मोदी के गले लग जाना, कभी सरेआम अध्यादेश फाड़ कर मनमोहन सिंह का एक तरह से अपमान करना , कभी फटी जेब से हाथ बाहर निकाल कर कहना , देखो देखो … , कभी जनेऊ -धोती पहन लेना, कभी गम्भीरता दिखानी हो तो अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाने लग जाना आदि आदि । उन्होंने सड़कों पर भी जो कुछ आंदोलन वगैरह की अगुवाई की वह भी कभी छाप नहीं छोड़ पाई । यही वजह है कि उनकी ट्विटर पर दी गयींं तमाम चेतावनी और चुनौतियों का भी कहीं कोई असर नहीं हुआ । किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया । उनके भक्तों के अलावा सबके लिए वे पप्पू के पप्पू ही रहे । इसलिए आज भी सबा नकवी, प्रिया सहगल जैसे कई पत्रकार राहुल गांधी के प्रति विश्वास नहीं जगा पा रहे । वे गलत नहीं हैं लेकिन मुझे लगता है लोगों को राहुल गांधी के भीतर पनप रही उस भूख को भी समझना होगा । ऐसे में अनायास ही गोपाल कृष्ण गोखले की गांधी को समूचे देश की मौन यात्रा करने की सीख याद आती है । यात्राएं बहुत कुछ देती हैं । जिस किसी ने राहुल गांधी को यात्रा का यह सुझाव दिया वह काबिले गौर है । सम्भव है हम यात्रा के बाद एक नये राहुल गांधी को देखें । मैंने पिछले लेख में लिखा था कि कोई किसी को पप्पू नहीं बना सकता बशर्ते कि वह स्वयं को पप्पू साबित न होने दे । अगर राहुल गांधी ने इस यात्रा के दौरान स्वयं के भीतर खांटी नेता होने का आत्मविश्वास पा लिया तो वे मोदी के मुकाबले देश के सर्वमान्य नेता साबित होंगे । आज से वे पप्पू का कलेवर बदलने की मोड में तो आ खड़े दिखते हैं । इस यात्रा में हर भारतीय की उन पर नजर है । होनी भी चाहिए ।
पिछले हफ्ते ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर देश के जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार से बातचीत कमाल की और आंखें खोलने वाली रही । प्रो. अरुण कुमार को अलग अलग चैनलों पर कई बार सुना देखा है । लेकिन हमेशा दो तीन पैनलिस्टों या विशेषज्ञों के साथ । इसलिए कभी उस तरह की एकाग्रता नहीं बन पाती । फिर इंटरनेट कनैक्शन भी ठीक ठाक नहीं रह पाते । लेकिन इस बार संतोष भारतीय और अभय दुबे ने जो प्रश्न किये और जिनका विस्तार से प्रो. अरुण कुमार ने जवाब दिया वह हर किसी को कम से कम दो बार जरूर सुनना चाहिए । अर्थशास्त्र का पूरा खेल क्या है , असंगठित क्षेत्र की कीमत पर क्या क्या किया जा रहा है , किस तरह देश के चुनिंदा व्यवसायियों को ग्लोबल पैमाने पर स्थापित किये जाने का उपक्रम किया जा रहा है, किस तरह हमारे बड़े अर्थशास्त्री अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों से जाकर जुड़ गये हैं और सरकारी बोली बोल रहे हैं और किस तरह से सरकार के ही आंकड़ों को अंतरराष्ट्रीय संस्थान प्रसारित कर रहे हैं आदि आदि । इस शानदार बातचीत के लिए संतोष जी और अभय जी को बधाई ! संतोष जी ने अखिलेंद्र प्रताप सिंह से भी इसी हफ्ते फिर से बातचीत की है । वह भी बहुत दमदार है । उसमें कांग्रेस के ‘कारपोरेट इंडिया’ बनाने वाली बात पर सवाल उठाया गया है जो बहुत वाजिब है । यह तो सभी जानते हैं कि आर्थिक दृष्टि से कांग्रेस और बीजेपी के चरित्र में कोई अंतर नहीं । फिर भी यह सवाल तो उठना ही चाहिए ।
कांग्रेस की यात्रा से संबंधित एक बातचीत वायर की आरफा खानम शेरवानी ने यात्रा में शामिल सिविल सोसायटी के एक तरह से मुखिया योगेन्द्र यादव से भी की है । योगेन्द्र यादव के सामने बड़ी समस्या है और वे अक्सर समस्याओं को स्वयं ही न्योता दे देते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ पहले तो कांग्रेस के लिए कहा कांग्रेस को मर जाना चाहिए अब उसी कांग्रेस को जिलाने के लिए यात्रा में जोर शोर से उत्साहित नजर आते हैं । इस पर सवाल तो उठेंगे ही । और आरफा ने सबसे पहले यही सवाल दाग दिया । पूरी बातचीत में योगेन्द्र यादव बचते से नज़र आये । फिर भी बातचीत सवालों की नजर से मजेदार रही। तीस्ता सीतलवाड़ से आरफा और आशुतोष ने अलग अलग बातचीत की उनकी जेल से रिहाई (जमानत) के बाद । दोनों इंटरव्यू बहुत बढ़िया रहे ।
मुकेश कुमार के कार्यक्रम देखने से ज्यादा सुनने लायक होते हैं । इसलिए कि कोई भी पैनलिस्ट अपनी भड़ास निकालते हुए ज्यादा इधर उधर नहीं जा सकता । लोगों को यह लगाम खूब पसंद आती है पर हमें डर लगता है कि कहीं कोई भड़क न जाए । आशुतोष के तो ‘ठीक है’ कहने से ही पैनलिस्ट डर जाता है। ‘ठीक है’ हथौड़े की तरह लगता है । यह उनकी ‘हाबड ताबड़’ का नतीजा है । इस बार के ताना बाना में अशोक वाजपेई का मुक्तिबोध को उनकी पुण्यतिथि पर याद करना स्मरणीय रहा । सुनने लायक थी उनकी टिप्पणी । ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ से एक कविता उन्होंने सुनाई, गज़ब !!
विपक्ष की एकता पर इन दिनों कई प्रोग्राम किये जा रहे हैं । बहुत सारी वेबसाइट्स इसी काम में लगी हुई हैं । पर हमें न मालूम क्यों नीतीश कुमार की उठा पटक बेमानी सी लगती है । हालांकि नीतीश कुमार को मानने वालों में अभय दुबे से लेकर रामचंद्र गुहा तक बहुत से लोग हैं । गुहा तो चाहते हैं कि नीतीश कुमार को यूपीए का चेयरपर्सन बन जाना चाहिए । पर हमारे साथ साथ अनेक ऐसे भी हैं जिन्हें नीतीश कुमार विश्वसनीय नहीं लगते । यों भी कांग्रेस पार्टी की ऐंठन, केजरीवाल की अलग राह और केसीआर का अलग पार्टी बनाना विपक्ष की एकता के सामने सवाल पैदा करते हैं । नीतीश की महत्वाकांक्षाओं को जो नहीं जानता उसे नादान ही कहिए । नीलू व्यास अपने संचालन में गम्भीरता नहीं ला पा रही हैं। ठहाके तो ऐसे लगाती हैं कि आदमी ही ठिठक के रह जाए ।
कार्यक्रमों में पत्रकारों ने वही भूमिका अपना ली है जो यूपी के चुनाव में थी । लफ्फाजी । पर विजय त्रिवेदी , शीतल प्रसाद सिंह जैसे पत्रकार भी हैं जिन्हें सुनना सबको भाता है ।
‘सिनेमा संवाद’ प्रस्तुत करने वाले अमिताभ को पिछली बार मैंने भूलवश अमिताभ चतुर्वेदी लिख दिया था दरअसल वे श्रीवास्तव हैं । हालांकि अमिताभ कभी अपना सरनेम नहीं लगाते , यह मैं बहुत पहले से जानता था लेकिन सत्य हिंदी पर उनका सरनेम देख कर कुछ अजीब सा लगा शुरु शुरु में । पिछली बार तो लिखते लिखते उम्र ही जैसे हावी हो गई श्रीवास्तव की जगह चतुर्वेदी लिख दिया । यों अमिताभ तो अमिताभ ही हैं । इनकी खूबसूरती है कि गम्भीर चर्चा को भी हमेशा अपनी हंसी से ‘बैलेंस’ कर देते हैं ।
लौट कर कांग्रेस की यात्रा पर आयें तो कहना होगा कि यात्रा जैसी बताई जा रही है उसी तरीके से सफलता के साथ संपन्न हुई तो राहुल गांधी ही नहीं कांग्रेस की उखड़ती जड़ें भी पुनः गहराई पा सकेंगी । राहुल गांधी में आत्मविश्वास और राजनीतिक समझ पनप गई तो बीजेपी के पानी भरने के दिन भी है आ सकते हैं । राहुल गांधी का व्यक्तित्व और चरित्र हर तरह से ग्राह्य है सिर्फ राजनीतिक समझ आनी शेष है जो फिलहाल तो शून्य है , उम्मीद पूरी है कि यह यात्रा उन्हें सशक्त नेता बना कर उभरेगी ।

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