अंदेशा तो था ही, अब विज्ञान ने भी कह दिया है कि हम अपनी अक्कल दाढ़ खोते जा रहे हैं। अक्ल गंवाने का सबूत तो इंसान पहले भी कई बार दे चुका है, लेकिन डाढ़ के जाते रहने की पुष्टि अब हुई है। आप माने न माने, एक प्रजाति के रूप में हम मनुष्यों में कई बदलाव हो रहे हैं। ये बदलाव, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भौतिक रूप में हैं। इसे माइक्रोइवोल्युशन (सूक्ष्म विकास) कहा जा रहा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक बीते 250 सालों में मनुष्य की संरचना में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। हाल में ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च में चौंकाने वाला खुलासा किया ठीक एक तरफ मनुष्य की अकल दाढ़ विलुप्ति की कगार पर है तो दूसरी तरफ हमारी बांहों में एक अतिरिक्त आर्टरी (धमनी) पाई जा रही है। यही नहीं शोधकर्ताओं ने गले में एक नई ग्रंथि भी खोज निकाली है, जिसे फिलहाल ‘ट्युबेरियल ग्लैंड’ नाम दिया गया है। ‍इसे मुंह में लार (सलाइवा) बनाने वाले चौथे महत्वपूर्ण जोड़े के तौर पर पहचाना गया है। यह खोज नीदरलैंड कैंसर इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने की है।

हम भले ही ‘हम नहीं सुधरेंगे’ की फिलासफी पर डटे रहें, लेकिन कुदरत (या ईश्वरेच्छा) हमे बदलने पर आमादा है। मनुष्य में सूक्ष्म बदलाव की वजह हमारी स्वार्थी जीवन शैली, प्रौद्योगिकी का रोजमर्रा की जिंदगी में बढ़ता दखल, पर्यावरण में विनाशकारी बदलाव, जीवन की बेकाबू होती रफ्‍तार, मानसिक तनाव में सतत इजाफा और घटता शारीरिक श्रम इसके कारण हैं। चूंकि हम भारतीय अमूमन बेकार की बातों में ज्यादा उलझे रहते हैं, इसलिए इन सूक्ष्म शारीरिक परिवर्तनों से हमे कोई खास लेना-देना नहीं है। यानी अपने को अपनी दुकान से मतलब।

लेकिन बाकी दुनिया ऐसी नहीं है। कुछ जगहें बाकी हैं,जहां दिमाग की हुकूमत जारी है। जिज्ञासा और उनके तार्किक समाधान की भूख बाकी है। जज्बात के घटाटोप के परे जाकर सच को देखने की नजर बची है। ऐसे में ताजा खोजें, कुछ कौतुहल के साथ आश्वस्त भी करती हैं कि अकल दाढ़ भले ही अपना कारोबार समेट रही हो, दिमाग का आकार बढ़ रहा है। सोच और समझ के दायरे और विस्तृत हो रहे हैं। सब कुछ अंधे कुएं में नहीं समा गया है।

पहले जरा लार ग्रंथि ( सलायवरी ग्लैंड्स) की बात। मानव शारीरिकी और आकारिकी का काफी अध्ययन होने के बाद भी बहुत सी बातें हमे पता नहीं है। जर्नल रेडियोथेरेपी एंड आन्कोलाॅजी जर्नल में छपे ताजा शोध के मुताबिक मनुष्य के मुंह में लार ग्रंथि का चौथा जोड़ा खोज लिया गया है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस चौथे जोड़े की जानकारी से अब रेडिएशन आंकोलाॅजिस्टों ( विकिरण कैंसर विशेषज्ञों) को सिर और गर्दन के कैंसर के इलाज में आसानी होगी। क्योंकि रेडिएशन से इसके इलाज में अक्सर लार ग्रं‍थियों को नुकसान पहुंचने का अंदेशा होता है। वैसे मुंह में तीन बड़ी लार ग्रंथियों के जोड़े और करीब 1 हजार छोटी-छोटी लार ग्रंथियां रहती हैं, जो मुंह में लार बनाती रहती हैं। यह बात अलग है कि उनके इसे बेहद अहम काम को भी हमने ‘लार टपकाने’ के रूप में देखने की कोशिश की।

यूं मानव शरीर में टूट-फूट होती रहती है। कई छोटे-मोटे अंग भीतर ही नष्ट और निर्मित होते रहते हैं। शरीर के अंदर भी एक कारखाना चौबीसों घंटे चलता रहता है। जर्नल ऑफ एनाटॉमी में प्रकाशित शोध के अनुसार मनुष्य की भुजाओं में एक अतिरिक्त धमनी देखी जा रही है। शोधकर्ता प्रोफेसर मेसिज हेनबर्ग के अनुसार खास किस्म की यह मीडियन धमनी तब उभरती है, जब बच्चा गर्भ में विकास की प्रारंभिक अवस्था में होता है। इससे बच्चे के विकासशील हाथों में खून का प्रसार होता है। लेकिन, जैसे ही दूसरी जरूरी धमनियां विकसित होती हैं, यह मीडियन धमनी गायब हो जाती है। इस तीसरी धमनी की वास्तविक उपयोगिता को लेकर वैज्ञानिक गहराई से शोध कर रहे हैं।

लेकिन सबसे दिलचस्प खोज अक्कल दाढ़ के मनुष्य का साथ छोड़ने की है। अकल दाढ़ की यह विदाई भी दिमाग के कारण नहीं, बल्कि हमारी चबाकर खाने की आदत छूटते जाने से हो रही है। वो जमाना गया जब लोग गन्ना दांतो से छीलकर और बादाम दांतो से फोड़कर खाया करते थे। अब तो पिज्जा, बर्गर का जमाना है। मुलायम और मुंह में जल्द घुलने वाली चीजें खाने की बढ़ती आदतों के चलते अक्कल दाढ़ के पास कोई नहीं बच रहा, ठीक वैसे ही कि अब दफ्‍तरों में टायपिस्ट की पोस्ट नहीं बची। ऑस्ट्रेलिया की फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी के डॉ. टेघन लुकस के मुताबिक अब लोगों की कच्चा खाने की आदत छूट सी गई है। उन्हें चबाने की जरूरत ही नहीं है। रेडीमेड फूड ने अकल दाढ़ की ‘केजुअल सर्विस’ भी खत्म कर दी है। वैज्ञानिको को इसका पता तब लगा, जब उन्होंने 20 वीं शताब्दी में जन्मे कुछ लोगों के मुर्दों की जांच की। उन्होंने पाया कि इन मुर्दों में हाथों और पैरों में अतिरिक्त हड्डियां भी हैं। शरीर में यह बदलाव महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के उस सिद्धांत की पुष्टि करते हैं कि सभी जीव परिस्थिति के अनुसार खुद को बदलते हैं। जो नहीं बदलते या बदलना नहीं चाहते, उन्हें प्रकृति खुद बाहर कर देती है।

दिलचस्प ये भी है कि मुंह में मौजूद इस दाढ़ को अक्कल दाढ़ क्यों कहा जाता है? इसका अकल से क्या रिश्ता? खासकर तब कि जब इसका काम चबाना ही हो। दाढ़ ही क्या, शरीर का हर अंग-प्रत्यंग और संवेदना का कंट्रोल रूम दिमाग ही होता है। लेकिन इस दाढ़ का अकल से सम्बन्ध शायद इसलिए जोड़ा गया, क्योंकि यह दाढ़ मुंह में सबसे देरी से उगती है। यानी मनुष्य की उमर 17 से 25 साल की होने तक। या यूं कहे कि अकल आने के बाद ही ये दाढ़ मसूड़ों में अपनी जगह बनाना शुरू करती है। चूंकि मुंह में पहले से दूसरी दाढ़ों का कब्जा रहता है, इसलिए इस दाढ़ को अपना डेरा जमाने में भी अकल और ताकत लगानी पड़ती है। अंग्रेजी में इसे ‘विज्डम’ टूथ कहते हैं। चूंकि ये सबसे आख़िर में आती है, इसलिए मजबूत भी होती है। इन्हें उखाड़ना किसी संवैधानिक पद पर जमी हस्ती को पद से हटाने की माफिक मुश्किल होता है। इनके खराब होने पर जब दांत के डाॅक्टर जब इन्हें पूरी ताकत से उखाड़ते हैं तो मरीज का दम ही निकल जाता है। उसकी अकल ठिकाने आ जाती है।

दस हजार साल पहले, हमारे जो पूर्वज खेती नहीं जानते थे, उनकी अकल दाढ़ बेहद मजबूत हुआ करती थी, क्योंकि उनमे कच्चा चबा जाने की कूवत थी। अब तो यह केवल मुहावरे और धमकी के रूप में जिंदा है। दांतों की मजबूती का आलम यह है कि कच्चा तो क्या हम पक्का भी ठीक से चबा और हजम नहीं कर पाते। अकल दाढ़ भी साथ छोड़ रही हो तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब मनुष्य में इतने बदलाव हो रहे हैं तो मानव की वर्तमान प्रजाति होमो सेपियन ( मनुष्य का वैज्ञानिक नाम) का अगला रूप क्या होगा? विज्ञान उसे क्या नाम देगा? इस बारे में वैज्ञानिक अवधारणा है कि भावी मानव प्रजाति ‘होमो इवोल्यूटिस’ कहलाएगी। क्योंकि धीरे- धीरे हम ऐसी दुनिया की और बढ़ रहे हैं, जहां सेक्स तो होगा, लेकिन प्राकृतिक रूप से बच्चे पैदा नहीं होंगे। क्योंकि बिना शारीरिक सम्बन्ध के कृत्रिम रूप से फ्रीज किए पुरूष के शुक्राणु और महिला के अंडाणुओं के मेल से ही बच्चे पैदा होंगे और जरूरत के मुताबिक बैंक लाॅकर खोलने की माफिक कभी भी पैदा किए जा सकेंगे। नौ महिने का लाॅकिंग पीरियड ‘डाटा अनलिमिटेड’ में तब्दील हो जाएगा। इन विकासमान सूक्ष्म बदलावों के चलते हम आज की अनेक गंभीर बीमारियों से निजात पा सकते हैं तो नई चुनौतियां भी मनुष्य और समाज के सामने खड़ी होंगीं। उनके नैतिक प्रभाव क्या होंगे, मनुष्य की सामाजिकता कितनी बची रहेगी, इसके बारे में हम अभी अनुमान ही लगा सकते हैं। हालांकि अब तो मनुष्य का पूरा डीएनए (राजनीतिक नहीं, असली) ही बदल डालने की बात भी हो रही है।

बहरहाल, बात अकल दाढ़ से शुरू हुई थी। इसका होना और न होना दोनो दुखदायी है। मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो की एक कहानी है-‘अकल दाढ़।‘ पति-प‍त्नी की तकरार रूपी इस कहानी में एक संवाद में पत्नी कहती है कि ‘आप के दांत में दर्द हो रहा था? पति ठंडी सांस लेते हुए जवाब देता है ‘वो दर्द अब दिल में चला गया है।‘ इस नोंक झोंक का अंत पति के इस डायलाॅग से होता है- ‘कोई बात नहीं, इस दर्द ही से अकल आ रही है !”

अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे

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