देश की राजधानी दिल्ली के पास जारी किसान आंदोलन जल्द समाप्त होता नहीं दीखता। इस बीच इस आंदोलन की शाहीनबाग आंदोलन से की जाने लगी है। इस किसान आंदोलन में शाहीनबाग धरने के कर्ताधर्ताओं का हाथ देखने वाले इसे शाहीनबाग पार्ट-2 करार दे रहे हैं तो किसान नेता राकेश टिकैत ने साफ कहा कि वो किसानों की इस लड़ाई को शाहीनबाग आंदोलन नहीं बनने देंगे। उधर केन्द्र सरकार इस आंदोलन से बहुत चिंतित है, ऐसा नहीं लगता, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रविवार को ‘मन की बात’ में किसानों के आंदोलन की चर्चा के बजाए इन कानूनों के विरोधियों पर ही हमला बोला।
सरकार मान रही है कि यह भी किसानों की आड़ में भाजपा सरकारों के खिलाफ एक प्रायोजित राजनीतिक आंदोलन है, जिसका केन्द्र मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश है। जबकि आंदोलन के समर्थकों का दावा है कि ये आंदोलन पूरे देश के किसानों की नाराजी को अभिव्यक्त करता है। इसलिए सरकार को इसे हलके में न ले। इन राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों के बीच जायज सवाल यह है कि क्या किसानो को उनकी उपज का सही मूल्य मिलेगा या नहीं, मिलेगा तो कैसे मिलेगा, दूसरे, सरकार एमएसपी जारी रखने की बात कह रही है, लेकिन कोई लिखित में आश्वासन देने से क्यों बच रही है ? सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस आंदोलन को शाहीन बाग से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है?
बढ़ती ठंड के बीच देश की राजधानी में किसान आंदोलन की गर्माहट बढ़ती जा रही है। किसान अपनी मांग पर अड़े हुए हैं कि सरकार तीनो कृषि सुधार कानूनों को वापस ले, क्योंकि यह मूलत: किसान विरोधी हैं। आंदोलन में शामिल अधिकांश किसान पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं। पंजाब के किसानो ने राज्य की अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा कृषि कानूनों का विरोध किए जाने के बाद से ही राज्य भर में आंदोलन शुरू कर दिया था, जिसे प्रदेश की कांग्रेस सरकार का भी समर्थन है। इसके बाद हरियाणा और पश्चिमी यूपी के कुछ किसान संगठन इसमें शामिल हो गए हैं। पहले तो हरियाणा और यूपी की भाजपा सरकारों ने इन आंदोलनकारियों को बलपूर्वक रोकने की कोशिश की, लेकिन इसके संभावित नुकसान को भांपकर अब अपना रूख नरम कर लिया है।
उधर केन्द्र सरकार ने भी पासा फेंका है कि अगर किसान उसके द्वारा निर्धारित दिल्ली के बुराड़ी मैदान में आंदोलन के लिए एकत्र होते हैं तो उनसे बात कर सकती है। वहां सरकार ने किसानों को ठहरने के इंतजाम भी किए हैं। लेकिन किसान इसके लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने दिल्ली जाने वाले पड़ोसी राज्यों के रास्तों पर जाम लगा रखा है। बुराड़ी मैदान न जाने के पीछे सोच यह है कि एक तो वह मुख्य दिल्ली शहर से बहुत दूर है,दूसरे उसका कोई राजनीतिक महत्व नहीं है, जैसा कि जंतर-मंतर या रामलीला मैदान का है। इन जगहों पर दिल्ली में बड़े राजनीतिक प्रदर्शन और आंदोलन होते रहे हैं’ साथ ही ये उस संसद के भी पास है, जहां तक किसान अपनी आवाज पहुंचाना चाहते हैं।
यहां बुनियादी सवाल यह है कि क्या कृषि सुधार कानूनों से देश भर के चालीस करोड़ किसान सचमुच नाराज हैं? हैं तो वो सब सड़कों पर क्यों नहीं उतर रहे हैं? या उन्हें ऐसा करने से रोका जा रहा है? किसानों की नाराजी हालिया चुनावों में भाजपा के खिलाफ वोटो में क्यों अभिव्यक्त नहीं हुई? या फिर ज्यादातर किसानों को यह पता ही नहीं है की नए कृषि सुधार कानूनों में है क्या? ध्यान रहे कि नए कृषि कानूनों में विरोध के मुख्य बिंदु ये है कि नई व्यवस्था में किसानों को उपज के लिए एमएसपी (न्यूनतम कृषि उपज मूल्य) की ठोस गारंटी नहीं है, क्योंकि फसल खरीदी व्यवस्था बाजार के भरोसे और कारपोरेट पर छोड़ी जा रही है।
सरकार का तर्क है कि कृषि उपज मंडियां खत्म करने और किसानों को मुक्त बाजार व्यवस्था के भरोसे छोड़े जाने से अन्नदाता को अंतत: फायदा ही होगा। लेकिन अगर किसान को नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई कौन और कैसे करेगा यह दावे के साथ बताने की स्थिति में कोई नहीं है? केन्द्र सरकार के तमाम आश्वासनों के बाद भी संदेश यही जा रहा है कि नए कानून किसान के कम कारपोरेट का हाथ मजबूत करने वाले ज्यादा हैं। दूसरे, सरकार की चिंता में उपभोक्ताओं महत्व अधिक है, बजाए किसानों के।
इसमें कुछ सचाई इसलिए भी है कि बंपर फसल होने के बाद किसान को अपनी उपज कौडि़यों के भाव बेचनी पड़ती है तो पैदावार कम होने पर सरकार तुरंत निर्यात पर रोक लगा देती है। दोनो स्थितियों में मरता किसान ही है। ऐसे में वह क्या करे? यकीनन एमएसपी किसान के लिए इस बात की जमानत है कि उसे कम से कम इससे नीचे के भाव पर फसल बेचने पर मजबूर नहीं होना पड़ेगा। लेकिन एमएसपी भी सभी फसलों के लिए नहीं है। विशेषज्ञों के अनुसार एमएसपी के कुछ साइड इफेक्ट्स भी हैं, वो भी अंतत: किसान के लिए मुश्किल पैदा करते हैं।
जिन फसलों की एमएसपी पर बड़े पैमाने पर खरीद होती है, किसान ज्यादातर वही फसलें बोने लगते हैं। इससे उसकी पैदावार इतने बड़े पैमाने पर होने लगती है कि हमारी भंडारण व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। काफी बर्बादी भी होती है। दूसरे, ऐसी फसलों के लिए जरूरी घटक जैसे पानी, खाद आदि पर भी दबाव बढ़ता है। तीसरे, एमएसपी अच्छी होने का विपरीत प्रभाव कृषि उत्पादों के विक्रय मू्ल्य पर पड़ता है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में हमारे कृषि उत्पादों की मांग घट जाती है, क्योंकि वो प्रतिस्पर्धात्मक रूप से मंहगे पड़ते है। ऐसी कुछ शिकायतें भारत के खिलाफ डब्ल्यूटीअो और यूरोपीय यूनियन में हो चुकी हैं।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि शिकायतों से डर कर किसान को ही दांव पर लगा दिया जाए। अगर कृषि कानून किसान के हित में हैं,जैसा कि सरकार का कहना है तो इस बारे में पारदर्शिता भी होनी चाहिए। क्योंकि अगर ऐसा होता तो किसानों को सड़क पर उतरने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इस बात को मान भी लिया जाए कि किसानों को एक सुनियोजित रणनीति के तहत भड़काया जा रहा है तो भी ऐसे किसानों की आशंकाएं दूर करने की ज़िम्मेदारी भी सरकार की ही है।
यूं देखा जाए तो यह सारा मसला बातचीत से और किसानों को विश्वास में लेकर सुलझाया जा सकता है,लेकिन ऐसा शायद कोई भी नहीं चाहता। यही वजह है कि इसकी तुलना शाहीनबाग से की जाने लगी है। गौरतलब है कि दिल्ली में शाहीनबाग आंदोलन देश में सीएए और एनआरसी कानून लागू किए जाने के खिलाफ मुख्यत: मुस्लिम महिलाओं ने मुख्य सड़क पर धरने के रूप में शुरू किया था।
इससे आम जनता को भी परेशानी हुई। कोरोना प्रकोप की दहशत के बीच इस धरने ने दम तोड़ दिया। जबकि आंदोलनकारियों का कहना है कि उन्हें आंदोलन खत्म करने पर मजबूर किया गया। उधर सरकार के मुताबिक आंदोलन के पीछे ऐसे तत्व थे,जो देश को विभाजित करना चाहते हैं। सरकार का यह भी सवाल था कि नए कानून के तहत किसी भारतीय मुसलमान की नागरिकता छीनी गई हो तो बताएं। यानी जो विरोध था, वह काफी हद तक काल्पनिक या सैद्धांतिक ज्यादा था।
लेकिन किसानों का मामला उससे अलग है। यह उनकी आजीविका से ,उनके अस्तित्व से जुड़ा है। पूरे देश के अन्न उत्पादन से जुड़ा है। कोई सरकार किसानों को नाराज करके लंबे समय तक जिंदा नहीं रह सकती। जहां तक एमएसपी की बात है तो नीति आयोग ने इसके विकल्प के रूप एमआईएस ( मार्केट इन्फर्मेशन प्राइस सिस्टम) का फंडा दिया है। यह भी एमएसपी का ही कुछ बदला हुआ रूप है। बताया जाता है कि पिछले दिनो कश्मीर में किसानों से सेब की बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद एमआईएस पर ही हुई है। अब मप्र जैसे राज्यों में सब्जियों की खरीद एमआईएस पर ही होने की बात की जा रही है। लेकिन इस व्यवस्था के परिणाम अभी दिखने हैं। फिलहाल तो उन संदेहों को दूर करने की जरूरत है, जो सामने खड़े किए जा रहे हैं।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल
सुबह सवेरे