जब प्रधानमंत्री मोदी अपने नमो ऐप के जरिए विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों से बात कर रहे थे, उन्हीं दिनों देश के 10 राज्यों में किसान आंदोलन कर रहे थे, लेकिन प्रधानमंत्री तो दूर, किसी मंत्री ने भी उनसे बात नहीं की. नमो ऐप वाले स्मार्टफोन धारकों से बातचीत का पैमाना तो ऐसे ही इन किसानों को अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के हक से वंचित कर देता है, क्योंकि जिन्हें फसल की लागत नहीं मिल पा रही, जो प्रति व्यक्ति 47 हजार रुपए के कृषि कर्ज में डूबे हुए हैं वे स्मार्टफोन कैसे खरीदेंगे. अनसुनी होती आंदोलनों की आवाज के बीच किसानों की स्थिति की पड़ताल…

kisaanकृषि मंत्रालय की वेबसाइट खोलते ही सबसे ऊपर एक ऑडियो आता है, जिसकी पहली लाइन है- ‘हैं भारत के किसान हम, एक नए भारत का संकल्प करते हैं हम..’ सुनने में तो यह गीत बहुत अच्छा है, लेकिन जमीनी हकीकत से जोड़ कर देखें, तो इसकी सार्थकता संदेहास्पद है. इस गीत के माध्यम से किसानों के जरिए जिस नए भारत का संकल्प किया जा रहा है, उस भारत में इन किसानों के लिए शायद जगह नहीं होगी.

यह हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि बीते 1 जून से 10 जून के बीच 10 राज्यों के लाखों किसान अपनी मांगों को लेकर समस्याओं के समाधान के लिए आंदोलन करते रहे, लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. किसी भी मंत्री या अफसर द्वारा किसानों से मिलना तो दूर, किसी ने उन आंदोलनरत किसानों के बारे में एक बयान तक नहीं दिया. मध्य प्रदेश के मंदसौर में आंदोलनरत किसानों में से एक सोहनलाल, किसानों के प्रति सरकारी बेरुखी को एक बड़े साजिश के तौर पर देखते हैं.

चौथी दुनिया से बातचीत में उन्होंने कहा कि ‘हमारे गांव-घर में किसी को नीचा दिखाने का सबसे आसान तरीका होता है, उसको नजरअंदाज करना, उसे भाव ही नहीं देना और उसके किसी बात का जवाब नहीं देना.’ एक तरफ सरकार किसानों की मांग पर चुप्पी साधे हुई है, तो वहीं दूसरी तरफ विपक्ष इसमें अपनी आवाज मिलाने की कोशिश कर रहा है.

6 जून को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मंदसौर पहुंचकर एक साल पहले पुलिस की गोली का शिकार हुए किसानों के परिवार से मिले, तो वहीं 8 जून को वे तीन बड़े नेता मंदसौर में किसान नेताओं के साथ खड़े नजर आए, जो अभी मुखर रूप से सत्ताधारी भाजपा के खिलाफ बोल रहे हैं. पूर्व भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, भाजपा नेता शत्रुघ्न सिन्हा और विश्व हिन्दू परिषद के पूर्व नेता प्रवीण तोगड़िया ने राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के अध्यक्ष शिव कुमार शर्मा उर्फ कक्का जी के साथ मंच से किसानों के प्रति सरकार की बेरुखी को लेकर जोरदार हमला किया.

हार नहीं रहे, हराए जा रहे किसान

संपूर्ण कर्ज़माफी, किसानों को लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने, फल और सब्जियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने, 55 साल की उम्र से ज्यादा के किसानों को 7वें वेतन आयोग के अनुसार पेंशन देने, जैसी कई मांगों को लेकर राष्ट्रीय किसान महासंघ की अगुवाई में करीब 170 किसान संगठनों ने 1 जून को 10 राज्यों में आंदोलन का शंखनाद किया. किसानों ने तय किया कि वे इन 10 दिनों में अपने कृषि उत्पाद जैसे फल, सब्जी, अनाज और दूध आदि शहरों में नहीं भेजेंगे. मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र के कई हिस्सों में किसानों ने अपनी सब्जियां सड़कों पर फेंक दिया और दूध बहा दिया. कई जगह किसानों ने उन्हें यूं ही लोगों में बांट दिया. मांग को लेकर मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र के कई गांवों में किसान संगठनों के एक धड़े ने ‘गांव-बंद’ का ऐलान किया. इस आंदोलन में किसानों की एकजुटता देखकर सरकार ने इसे कुचलने के तमाम प्रहसन शुरू कर दिया.

ऐसी खबरें आईं कि मध्य प्रदेश सरकार ने पुलिस कर्मियों की छुटि्‌टयां रद्द कर किसान आंदोलन को कुचलने के लिए उन्हें सड़कों पर तैनात कर दिया. कई जह तो सैकड़ों किसानों से इसे लेकर 20-20 हजार रुपए के बॉन्ड भी भरवाए गए कि वे गांव-बंद में शामिल नहीं होंगे. किसानों को इसका डर भी दिखाया गया कि दूध न देने पर ऐस्मा (आवश्यक सेवा संरक्षण अधिनियम) लगा देंगे. कुछ तो इस धमकी के असर और कुछ किसानों की संवेदना ने आंदोलन की आंच को धीरे-धीरे मंद कर दिया. पंजाब में किसानों के एक धड़े ने आंदोलन वापस लेने का ऐलान कर दिया. इनका तर्क था कि सब्जियों और दूधों की सप्लाई न होने से आम जनता को परेशानी हो रही है, साथ ही किसानों को भी नुकसान उठाना पड़ रहा है.

किसान यूनियन के नेता बेगराज गुर्जर ने चौथी दुनिया से बातचीत में कहा कि हमने आम जनता की तकलीफों और अपने किसानों के हित में यह फैसला लिया है. इसका मतलब यह नहीं है कि हम आंदोलन से पीछे हट रहे हैं. आगामी कुछ दिनों बाद ही फिर से सभी किसान संगठन बैठक करेंगे और फिर से एक व्यापक किसान आंदोलन की तैयारी होगी. महाराष्ट्र में तो किसानों ने आंदोलन जारी रखा, लेकिन उन्हें भी सरकार से बेरुखी मिली. विदर्भ क्षेत्र के किसान जितनचौथी दुनिया से बातचीत में अपना दुख बयां करते हुए भावुक हो गए. उनका कहना है कि ‘हमारे बाप-दादा जिस जमीन के कारण महाराजा कहलाते थे, वो जमीन अब परती में बदलती जा रही है और अब हम उसपर मरने को मजबूर हैं.’

किसानों के गले पर लात और कॉरपोरेट से गलबहियां

भारतीय रिज़र्व बैंक के ताजा आंकड़े कहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के फंसे हुए कर्ज में सबसे बड़ी हिस्सेदारी कॉरपोरेट ऋण की है. सरकारी बैंकों का कुल 641 लाख करोड़ रुपए का कर्ज फंसा हुआ है, जिसका तीन चौथाई केवल उद्योग जगत के पास है. वहीं, इस कर्ज में सर्विस सेक्टर की हिस्सेदारी 1321 फीसदी और रिटेल सेक्टर की 371 फीसदी है. अब गौर करने वाली बात यह है कि जिन किसानों की कर्जमाफी की मांग को सरकार फैशन करार देती है, उनके पास बैंकों के पूरे कर्ज का मात्र नौ फीसदी हिस्सा है.

भारत की एक प्रमुख जमा आकलन एजेंसी, रेटिंग इंडिया की एक रिपोर्ट कहती है कि 2011 से 2016 के बीच कम्पनियों पर 7.4 लाख करोड़ के कर्ज में से चार लाख करोड़ के करीब कर्ज मा़फ कर दिया जाएगा. सरकार का ही आंकड़ा है कि 2013-16 के बीच कॉरपोरेट सेक्टर को 17 लाख 15 हजार करोड़ रुपए की टैक्स माफी दी गई. अब सोचने वाली बात है कि किसानों की कर्जमाफी पर हायतौबा मचाने वाली सरकार और व्यवस्था कॉरपोरेट की कर्जमाफी पर क्यों चुप्पी साध जाती है. और तो और इसे अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी बता दिया जाता है. जब किसानों की कर्ज माफी की बात की जाती है, तो ऊपर बैठे जिम्मेदार लोगों को इसमें अर्थव्यवस्था का नुकसान दिखने लगता है.

पिछले साल उत्तर प्रदेश में कर्जमाफी की चर्चा के दौरान भारतीय स्टेट बैंक की तत्कालीन चेयरमैन अरुंधति भट्‌टाचार्य का एक बयान आया था कि ऐसी कर्जमाफी से वित्तीय अनुशासन बिगड़ जाता है और एक बार कर्ज माफ कर देने के बाद किसान फिर आगे भी ऐसी मांग करता है. गौर करने वाली बात है कि किसानों की कर्जमाफी से वित्तीय अनुशासन बिगड़ने को लेकर चिंतित अरुंधति भट्‌टाचार्य ने ही कर्ज में डूबे टेलीकॉम सेक्टर को सरकारी मदद के लिए सरकार से अपील की थी और कहा था कि उनके लिए प्रो-एक्टिव कदम उठाने की जरूरत है. मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम ने तो कॉरपोरेट कर्जमाफी को पूंजीवाद के काम करने का तरीका बता दिया था.

कर्ज़मा़फी ही समाधान नहीं

हाल के दिनों में किसानों के जितने बड़े आंदोलन हुए, उनमें से ज्यादातर कर्जमाफी के मुद्दे पर केंद्रित थे. ऐसे आंदोलनों ने कुछ हद तक असर भी दिखाया और पंजाब, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में किसानों का कर्ज माफ हुआ. इस कर्जमाफी का फायदा किसानों को कितना हुआा, यह एक अलग मुद्दा है. लेकिन वर्तमान समय में जब खेती-किसानी पूरी तरह से समस्या की जद में आ चुकी है, ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या कर्जमाफी वो जादू की छड़ी है, जो किसानों को सभी समस्याओं से निजात दिला देगी. इसका सहज जवाब ‘नहीं’ हो सकता है, क्योंकि कृषि कर्ज किसी बड़ी बीमारी के कारण हुए बुखार जैसी है. जब तक उस बीमारी का जड़ से इलाज नहीं होता, यह बुखार बना रहेगा. कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 1951 के बाद से प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता में 70 फीसदी की गिरावट आई है. ये आंकड़े वर्ष 2011 में 0.5 हेक्टेयर से 0.15 हेक्टेयर तक आ गए. भविष्य में यह और घटेगा.

यह देश में छोटे और सीमांत भूमि-धारकों की संख्या का 85 फीसदी है. भारतीय कृषि राज्य पर 2015-16 की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है. एक और बड़ी समस्या है, खेती के लिए सिंचाई के साधनों का अभाव. भारत के 52 फीसदी से ज्यादा खेत सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं. एक तथ्य यह भी है कि आजादी के समय कृषि क्षेत्र में जीडीपी की हिस्सेदारी 53.1 फ़ीसद थी, जो करीब 70 वर्षों बाद घटकर 13 फ़ीसदी रह गई. सरकारी योजनाओं और नीतियों के द्वारा इसे और कोशिश की जा रही है, वहीं सर्विस सेक्टर का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है. विशेषज्ञों की मानें, तो कृषि और किसानों को लेकर सरकार का जो रवैया है, उसके आधार पर जीडीपी में कृषि योगदान 2020 तक 6 प्रतिशत तक आ जाएगा.

मरने की राह आसान बना रहीं खेती के सहारे जीने की मुश्किलें

सरकार तक इस आंदोलन की आवाज क्यों नहीं पहुंची, यह पूछे जाने पर मंदसौर के किसान सोहनलाल ने जो कहा, वो इस देश में आंदोलनों की स्वतंत्रता के अधिकार की सार्थकता पर तो सवाल खड़े करता ही है, किसानों के लिए जीने की मुश्किल भी बयां करता है.

सोहनलाल का कहना था कि ‘अब यह सरकार शंतिपूर्वक उठ रही आवाज नहीं सुनती. हमारी तरफ से थोड़ा भी उग्र प्रदर्शन होगा, तो पुलिस उससे ज्यादा उग्र होकर जवाब देती है. इसका नतीजा हम बीते साल देख चुके हैं जब हमारे छह किसान पुलिस की गोलियों से मारे गए थे. हमारे सामने दोहरा संकट है, आवाज उठाएं तो पुलिस की गोली से मरें और न बोलें तो खेती-किसानी की मुश्किलों में मजबूरियों के मौत मरें.’

आंकड़ों पर गौर करें तो सोहनलाल की बात सही लगती है. बीते संसद सत्र के दौरान कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने लोकसभा में बताया था कि साल 2014 से 2016 के बीच ऋण, दिवालियापन एवं अन्य कारणों से क़रीब 36 हज़ार किसानों एवं कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि किसान आत्महत्याओं में 42 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इसके मुताबिक, 2014 में 12,360 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने खुदकुशी की थी, जो संख्या 2015 में बढ़कर 12,602 हो गई. हालांकि 2016 में इसमें कुछ कमी आई और इस साल 11,370 किसानों ने मौत को गले लगा लिया. लेकिन हाल के कुछ महीनों में जिस तरह से आए दिन किसानों की खुदकुशी के मामले सामने आ रहे हैं, वो चिंता की लकीर पेश करते हैं.

साल           किसानों पर कर्ज़        किसान आत्महत्या

2015       11,85,825.69 करोड़     12,602

2016       12,59,144.45 करोड़     11,370

2017       14,36,799.48 करोड़       **

आरबीआई और एनसीआरबी के आंकड़ों पर आधारित

**सरकार ने 2016 के बाद किसान आत्महत्या का आंकड़ा प्रकाशित नहीं किया है

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