भूदानी आचार्य विनोबा भावे 18 अप्रैल 1951 को आंध्रप्रदेश के पोचमपल्ली गांव की यात्रा पर थे. वहां वे 40 दलित परिवारों से मिले और उनके हिंसात्मक प्रतिरोध का कारण जानना चाहा. दलित समुदाय ने विनोबा से अपना दर्द बताया और कहा कि अगर सरकार उन्हें जीवन-बसर करने के लिए जमीन का एक टुकड़ा देती है, तो वे भी स्वाभिमान से जी सकेंगे. सरकार दलितों को जमीन देने का वादा कर मुकर गई थी. उन्होंने पूछा, कितनी जमीन चाहिए. गांव के लोगों ने कहा, 80 एकड़ जमीन यानी हर दलित परिवार को घर और खेती के लिए दो एकड़. भीड़ में शामिल एक जमींदार ने तुरंत दलितों को 100 एकड़ जमीन देने का वादा किया. यहीं से भूदान आंदोलन की शुरुआत हुई थी. तब से आज तक दलित जमीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं और सरकार केवल वादा कर उनसे छल करती रही है. उस घटना के 65 साल बीत गए, लेकिन वही सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा है. भूदान में मिले उस जमीन का क्या हुआ?
आइए, अब हकीकत पर एक नजर डालते हैं. 38 वर्षीय सुनरी झारखंड में हजारीबाग जिले की रहने वाली हैं. हाल में ‘दलित अस्मिता रैली’ में भाग लेने उना आई थीं. बताती हैं कि भूदान आंदोलन में उनके परिवार को 95 डेसिमल (एक एकड़ से कम) जमीन मिली थी. जमीन के कागजात हाथों में लिए सुनरी कहती हैं, वे केवल जमीन का रेवन्यू जमा कराती हैं और उन्हें रसीद थमा दिया जाता है. सरकारी अधिकारी कहते हैं कि अगर जमीन की पर्ची तुम्हारे पास है, तो जमीन भी गांव में कहीं होगी. अधिकारियों से केवल मदद का भरोसा मिलता रहा, लेकिन जमीन आज तक नहीं मिली. दलित समुदाय के युवा नेता जिग्नेश बताते हैं कि दलित समुदाय के साथ यह छल वर्षों से होता रहा है. समाज के दबंग जमींदारों ने भूदान में मिले जमीन को दलितों से हड़प लिया और सरकार मौन साधकर दलितों पर हो रहे अत्याचार को शह देती रही.
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस, (एनएसएसओ 2013) के अनुसार देश में 7 प्रतिशत लोगों का देश में 47 प्रतिशत जमीन पर मालिकाना हक है, जबकि बाकी बचे 93 प्रतिशत लोग 53 प्रतिशत जमीन पर रहने को मजबूर हैं. इन 93 प्रतिशत लोगों में अधिकतर दलित व आदिवासी समुदाय के लोग हैं, जो दूसरों के खेत में मजदूरी करने को मजबूर हैं. वहीं, सोशियो, इकोनॉमिक एंड कास्ट सर्वे के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में रहने वाली 56 प्रतिशत से अधिक आबादी के पास खेती लायक जमीन नहीं है. इनमें 70 प्रतिशत से अधिक दलित व 50 प्रतिशत आदिवासी शामिल हैं.
राज्यों में दलितों की हिस्सेदारी
पंजाब यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रोनकी राम कहते हैं, पंजाब में दलित 32 प्रतिशत हैं, लेकिन कृषि योग्य भूमि पर उनका मालिकाना हक पांच प्रतिशत से भी कम है. आश्चर्य की बात है कि इतनी अधिक भूमि असमानता व बहुसंख्यक आबादी होने के बाद भी यहां का दलित समुदाय कई टुकड़ों में बंटा होने के कारण विभिन्न दलों के नेताओं को अपने सियासी ताकत का अहसास नहीं करा सका है. पंजाब, हरियाणा और केरल में ग्रामीण इलाकों में रह रहे 80 प्रतिशत दलितों के पास जमीन नहीं है. इसके बाद तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, केरल आदि कई ऐसे राज्य हैं जहां ग्रामीण इलाकों में सबसे अधिक भूमिहीन दलित हैं. किसी गांव में आज भी जमीन के सामाजिक वितरण से ही किसी समुदाय की पहचान, आर्थिक स्थिति, ताकत और विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच शक्ति संतुलन का अंदाजा लगाया जाता है.
ये आंकड़े देश में जमीन के असमान वितरण की ओर स्पष्ट इशारा करते हैं. देश में कुछ मुट्ठी भर आर्थिक संपन्न लोगों का देश की आधी जमीन पर कब्जा है, जबकि बहुसंख्यक दलित व आदिवासी समुदाय के पास जमीन का बाकी बचा हिस्सा है, जिसपर भी सरकार व उद्योगपतियों की नजरें टिकी हैं.
फर्स्ट लैंड, देन वोट
दलित अस्मिता रैली में लगे नारे ‘गाय नी पुछड़ू तनी राखो, अमे अमारी जमीन आपो’ का संदेश स्पष्ट था. अब दलित समुदाय यह समझ चुका है कि जमीन पर जिसका मालिकाना हक होगा, वही समाज में वर्चस्वशाली तबका होगा. अब वे पुश्तैनी काम छोड़कर समाज में बराबरी का हक हासिल करने के लिए सरकार से सीधी बात करने की तैयारी में हैं. एकता परिषद के नेता पीवी राजगोपाल लंबे समय से दलितों को जमीन दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे हैं. कई बार जन सत्याग्रह के दौरान देशभर से हजारों दलितों ने दिल्ली कूच किया, पर सरकार उनकी मांगों को लेकर बहरी बनी रही. अब उनका नारा है, फर्स्ट लैंड, देन वोट, नो लैंड, नो वोट. वे कहते हैं, दलितों को अहसास हो गया है कि जन सत्याग्रह के जरिए राजपथ पर केवल पदयात्रा करने से जमीन का मालिकाना हक नहीं मिलेगा, अब सरकार को दलित समुदाय की सियासी ताकत का अहसास कराना होगा. इसलिए उत्तरप्रदेश व पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले दलित समुदाय रामलीला मैदान में एक बड़ी रैली की तैयारी में जुटे हैं.
दलितों की जमीन पर दबंगों की नज़र
वहीं, यूपी जमींदारी विनाश भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के अंतर्गत उत्तरप्रदेश सरकार ने यह निर्णय लिया है कि अब दलितों की जमीन कोई भी खरीद सकता है. वर्तमान में यह नियम था कि यदि किसी दलित या एससी के पास 1.26 हेक्टेयर से कम जमीन है तो जिलाधिकारी उसे जमीन बेचने की अनुमति नहीं देते हैं. आर्टिकल 157 (ए) के अनुसार अब तक दलित किसी दलित को ही अपनी जमीन बेच सकते थे. हालांकि इसके पीछे सरकार की दलील है कि इसके कारण दलित आसानी से अपनी जमीन किसी को बेच सकेंगे और उन्हें जमीन की अधिक कीमत मिल सकेगी. लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी जमीन विभाजन के कारण अब दलितों के पास काफी कम जमीन रह गई है, वहीं अधिक पैसा मिलने पर बाकी बची जमीन भी दलित बेच दें, तो फिर उनके लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था भी सरकार को करनी होगी.