बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का सरकार समर्थित नारा भी चुनावी जुमला साबित हो रहा है. देश के विभिन्न हिस्सों से नाबालिग बच्चियों को अगवा कर घरेलू नौकर, सस्ते वर्कर या सेक्स स्लैव बनाया जा रहा है. वहीं सरकारी अमला लव जेहाद, ऑपरेशन मजनूं जैसे कार्यक्रमों में मगन है. चाइल्ड ट्रैफिकिंग के बढ़ते खतरों पर सरकार नहीं चेती, तो यह देश की सबसे बड़ी समस्या बनने जा रही है.
अक्टूबर 2016 का वाकया है. छत्तीसगढ़ में 15 साल की एक आदिवासी बच्ची अपने रिश्तेदार के यहां जाने के लिए ट्रेन पर चढ़ती है. हड़बड़ी में वह दिल्ली जाने वाली एक ट्रेन में बैठ जाती है. इस छोटी सी गलती की सजा कितनी भयावह हो सकती है, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर उतरते ही उसे कुछ लोग अगवा कर लेते हैं, फिर बारी-बारी से उसके साथ दुष्कर्म करते हैं और जी-भर जाने पर 70 हजार रुपए में किसी और को बेच देते हैं. इस बीच जबरियन शादी से लेकर, दो बार बेचे जाने और फिर सेक्स वर्कर बनने तक का यह अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता, यदि वह एक दिन इस यातना गृह से भागने का फैसला नहीं कर लेती. छत्तीसगढ़ में एक-दो नहीं, बल्कि 11 हजार ऐसे बच्चे हैं, जो पिछले तीन साल से लापता हैं.
अब छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चलाए जा रहे कन्या आश्रम के बारे में भी जान लेते हैं. छत्तीसगढ़ के कांकेर में आदर्श आदिवासी कन्या आश्रम है, जहां 300 आदिवासी छात्राएं रहती हैं. आश्रम से दो छात्राएं भारती उइके और लक्ष्मी मरकाम दो साल से लापता हैं. आदिवासी बच्चियों के रहने और पढ़ने के लिए सरकार ऐसे कई कन्या आश्रम चलाती है, लेकिन अब आदिवासी अपने बच्चियों को वहां पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहते हैं. एक और घटना पर नजर डालते हैं. 2016 में इलाहाबाद के करछना क्षेत्र में पुलिस को एक दुष्कर्म के आरोपी की तलाश थी. छापेमारी के दौरान उसके घर से छत्तीसगढ़ की छह आदिवासी लड़कियां मिलती हैं. पता चला कि आरोपी आर्केस्ट्रा के लिए छत्तीसगढ़, झारखंड से नाबालिग लड़कियों को मंगाता था.
कुछ दिनों पहले कांग्रेस की सांसद छाया वर्मा राज्यसभा में छत्तीसगढ़ से 11 हजार बच्चों के लापता होने की बात उठाती हैं. उन्होंने कहा कि आदिवासी अपनी बच्चियों को पढ़ाने के लिए अब इन कन्या आश्रमों में नहीं भेजना चाहते हैं. यहां बच्चियों के साथ दुष्कर्म की कई घटनाएं सामने आई हैं. इस पर राज्यसभा के उप सभापति पीजे कूरियन ने महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय को राज्य सरकार के समक्ष इस मुद्दे को उठाने के निर्देश दिए. उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए और अगर कन्या आश्रमों में बच्चियों के साथ दुष्कर्म जैसी घटनाएं हो रही हैं, तो इन संस्थानों को तुरंत बंद कर देना चाहिए.
यूनीसेफ की एक संस्था, यूनाइटेड नेशंस ऑफिस ऑफ ड्रग्स एंड क्राइम की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों में 11 हजार बच्चे और 10 हजार महिलाएं छत्तीसगढ़ से लापता हैं, जिनमें 80 प्रतिशत मामलों में कोई सुराग नहीं मिला है. 2012-14 में राजगढ़, सरगुजा-जशपुर कॉरीडोर से नाबालिग लड़कियों का व्यापार होता था. छत्तीसगढ़ में जशपुर, बिलासपुर, धमतरी, रायपुर, जांजीर और चंपा का इलाका चाइल्ड ट्रैफिकिंग के लिए बदनाम है. स्थानीय लोग बताते हैं कि इनमें से कुछ बच्चों को जबरन कुछ उग्रपंथी समूह भी अपने साथ ले जाते हैं.
36 गढ़ों का यह प्रदेश देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है. छत्तीसगढ़ में 47.9 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. यहां के जशपुर जिले में 765 गांव हैं. यहां की आबादी करीब साढ़े सात लाख है, जिसमें 72 प्रतिशत एससी-एसटी समुदाय से हैं. ये सभी सीमांत किसान हैं, जिनमें से अधिकतर खेतों में मजदूरी करते हैं और वन में उपजने वाले कंद-मूल बेचकर गुजर-बसर करते हैं. गरीबी की मार झेल रहे इस समुदाय को रोजगार का झांसा देकर बहलाने में प्लेसमेंट एजेंसियों को कोई परेशानी नहीं होती.
प्लेसमेंट एजेंसियां बना रहीं सेक्स स्लैब
चाइल्ड ट्रैफिकिंग की सबसे बड़ी वजह इन शहरों में छोटे-बड़े प्लेसमेंट एजेंसियों का कुकुरमुत्ते की तरह उग आना है. प्लेसमेंट एजेंसियां कुछ स्थानीय लोगों की मदद से आदिवासी लड़कियों पर नजर रखती हैं. ये स्थानीय लोग आदिवासी समाज से ही होते हैं, इसलिए लोग आसानी से उनके झांसे में आ जाते हैं. वे नाबालिग लड़कियों को रोजगार का प्रलोभन देकर मेट्रो शहर भेज देते हैं, जहां प्लेसमेंट एजेंसियों का हेड ऑफिस होता है. इस तरह लोकल एजेंट और प्लेसमेंट एजेंसियों के गठजोड़ से चाइल्ड ट्रैफिकिंग का धंधा इलाके में फल-फूल रहा है. जशपुर में डुलडुला ब्लॉक की 15 साल की मुस्कान (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि उन्हें 2017 में एक लोकल प्लेसमेंट एजेंट ने रोजगार का झांसा देकर दिल्ली भेज दिया था.
वहां कई साल तक उसे सेक्स स्लैव बनाकर रखा गया. उसने बताया कि घर की मालकिन हर रात उसके दोनों हाथ-पैर रस्सी से कसकर बांध देती थी. उसके बाद वह अपने पति को छ़ेडछाड़ व दुष्कर्म करने के लिए बुलाती थी. उसे जबरदस्ती पोर्न फिल्में दिखाई जाती थी. इस दौरान उसके शरीर से छेड़छाड़ के अलावा बेरहमी से मार-पीट भी की जाती थी. यूनीसेफ की रिपोर्ट में भी इसका जिक्र है कि बीहड़ आदिवासी इलाकों से मेट्रो शहरों में पहुंची बच्चियों को घरेलू नौकर या फिर सेक्स स्लैव बनाया जाता है. इन लड़कियों को ट्रेस करना नामुमकिन होता है, क्योंकि प्लेसमेंट एजेंसियां समय-समय पर अपना नाम, मोबाइल नंबर और लोकेशन बदलती रहती हैं.
एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग स्न्वायड की एक सोशल एक्टिविस्ट दुर्गा बताती हैं कि लोग इन मामलों में पुलिस से ज्यादा सेल्फ हेल्प ग्रुप्स पर भरोसा करते हैं. इन ग्रुप्स में अधिकतर ऐसी महिलाएं होती हैं, जो कभी चाइल्ड ट्रैफिकिंग की शिकार हो चुकी होती हैं. इन परिस्थितियों को झेल चुकीं महिलाओं को पता होता है कि कैसे, कहां पर छापेमारी करनी है और किस तरह से बच्चियों को सुरक्षित बाहर निकालना है.
ये स्थानीय लोग होते हैं, जिसे पूरी जानकारी देने में आदिवासी समाज के लोग नहीं हिचकते हैं. दुर्गा बताती हैं कि उन्होंने सेल्फ हेल्प ग्रुप की मदद से दिल्ली, मुंबई और हरियाणा से 38 बच्चियों को छुड़ाया है. ये लोग गु्रप बनाकर आदिवासी लोगों के बीच जाती हैं और चाइल्ड ट्रैफिकिंग के खतरों और उनसे बचने के उपायों के बारे में बताती हैं. वे लोगों से चाइल्ड ट्रैफिकिंग की शिकार बच्चियों के बारे में भी जानकारी लेती हैं और फिर उन्हें बचाने के प्रयास में जुट जाती हैं. वे सबसे पहले परिवार के लोगों को एफआईआर दर्ज करने के लिए कहती हैं. यही कारण है कि राज्य प्रशासन ने 5 सालों में इन सेल्फ हेल्प गु्रप की मदद से 919 बच्चियों को छुड़ाया है.
ट्रैफिकिंग है या मिसिंग, तय करेंगे हम
छत्तीसगढ़ में पदस्थापित सीआईडी के एक अधिकारी पीएन तिवारी बताते हैं कि 5 साल में सिर्फ ह्यूमन ट्रैफिकिंग के 265 मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें 192 मामले चाइल्ड ट्रैफिकिंग के थे. इन पांच सालों में पुलिस ने 536 ट्रैफिकर्स को गिरफ्तार किया है. पुलिस के दावों से अलग यूनीसेफ की रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ तीन साल में 11 हजार चाइल्ड ट्रैफिकिंग के मामले सामने आए हैं. इन आंकड़ों के पीछे का सच क्या है? चाइल्ड ट्रैफिकिंग के अधिकतर मामलों में आदिवासी पुलिस में मामले दर्ज नहीं कराते, अगर कराना चाहते भी हैं तो पुलिस मामले दर्ज नहीं करती है. अगर पुलिस ने मामले दर्ज किए भी तो ट्रैफिकिंग के अधिकतर मामलों को मिसिंग के तहत दर्ज किया जाता है. जशपुर के एसपी जीएस जायसवाल कहते हैं कि अब हम सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का सख्ती से पालन कर रहे हैं.
यहां कई नेशनल हाईवे हैं, जिसके कारण आसानी से बच्चियों को यहां से पड़ोसी राज्यों झारखंड और ओडीशा में भेज दिया जाता है. हमने सभी गांवों में एक पुलिस कॉन्स्टेबल की नियुक्ति की है, जो गांव में घूम रहे असंदिग्ध व्यक्तियों पर नजर रखता है. साथ ही सभी मुखियाओं से भी कह दिया गया है कि वे गांव में किसी बाहरी व्यक्ति के आने पर फौरन सूचित करें. वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ 2013 में देश का पहला ऐसा राज्य बना है, जहां छत्तीसगढ़ प्राइवेट प्लेसमेंट एजेंसी रेगुलेशन एक्ट, 2013 पास किया गया है. इस एक्ट के अनुसार कोई भी प्लेसमेंट एजेंसी 18 साल से कम उम्र की लड़की को नियुक्त नहीं कर सकती है.
लेकिन यूनीसेफ के एक अधिकारी बताते हैं कि ट्रैफिकिंग के अधिकतर मामलों को पुलिस माइग्रेशन मान लेती है और उस पर कोई कार्रवाई ही नहीं करती है. कोई एक्ट बना देने मात्र से ही ह्यूमन ट्रैफिकिंग के सभी मामलों से नहीं निपटा जा सकता है. हमें तकनीकी रूप से सक्षम कई ऐसे अधिकारी चाहिए, जो तीव्र गति से किसी मामले की जांच कर रेस्न्यू ऑपरेशन चला सकें. जशपुर की कलक्टर डॉ. प्रियंका शुक्ला कहती हैं कि हम बेटी जिंदाबाद नामक एक कार्यक्रम शुरू करने जा रहे हैं, जिसमें ट्रैफिकर्स से छुड़ाई गई बच्चियों के कौशल विकास पर जोर दिया जाएगा, ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें.
क्या ऐसे होगी समाज के अंधेरे कोनों की पहचान
समाज के उपेक्षित तबके पर अत्याचार को लेकर अगर किसी पुलिस अधिकारी की आत्मा जागती है, तो यह संवेदनशील सरकार उस अधिकारी को निलंबित करने में जरा भी नहीं हिचकती. इस अघोषित युद्ध में सरकार उद्योगपतियों के साथ है, तभी तो रायपुर सेंट्रल जेल की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे की सच्चाई सरकार की आंखों में शूल सी चुभती है.
ये वही डोंगरे हैं, जिन्होंने 2006 में लोकसेवा आयोग में जारी अनियमितता के खिलाफ छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में याचिका दायर कर अपनी नियुक्ति ली थी. वे फेसबुक पोस्ट में लिखती हैं, आदिवासी इलाकों में पूंजीवादी व्यवस्था को जबरन उन पर थोपा जा रहा है. गांव के गांव जलाए जा रहे हैं. आदिवासियों को उनकी जमीन से बाहर खदेड़ने के लिए उनकी महिलाओं, बच्चियों से दुष्कर्म किया जा रहा है. अगर किसी आदिवासी महिला पर नक्सल संगठनों से जुड़े होने का शक होता है, तो उसके कुचाग्रों को निचोड़कर इसकी जांच की जाती है.
क्या यह सब नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर हो रहा है? आदिवासी भी चाहते हैं कि नक्सलवाद खत्म हो, लेकिन जिस तरह से उनकी मां-बहनों के साथ दुष्कर्म हो रहा है, उन्हें झूठे मुकदमों में गिरफ्तार किया जा रहा है, उनके घरों को जलाया जा रहा है, ऐसे में वे न्याय के लिए किसके पास जाएं? यही बात सीबीआई कह रही है, सुप्रीम कोर्ट कह रहा है और यही सच भी है.
अगर आदिवासी इलाकों में सबकुछ सही है, तो फिर सरकार इतनी भयभीत क्यों है? मैंने देखा है कि 14 और 16 साल की बच्चियों को थानों में नंगा किया जाता है. उनकी बांहों और छातियों पर बिजली का शॉक दिया जाता है. इस दृष्य ने मुझे अंदर से हिला दिया है. सरकार को जगाने की सजा मिली वर्षा डोंगरे को. उन्हें निलंबित कर जांच बिठा दिया गया है. एक बड़े पुलिस अधिकारी कहते हैं कि इस बात की भी जांच की जा रही है कि कहीं उनके संबंध नक्सलियों से तो नहीं थे.
अधिकारी कहते हैं, क्या हुआ अगर 750 बच्चे लापता हैं
हाल में राजस्थान हाईकोर्ट ने कोटा से गायब 750 बच्चों को लेकर राज्य सरकार को सख्त फटकार लगाई थी. राजस्थान में डाडाबाड़ी, जवाहरनगर और गुमानपुर इलाके से दस साल में 745 बच्चे लापता हैं. कोटा निवासी प्रहलाद सिंह चड्डा ने इस मामले में हाईकोर्ट में पीआईएल डाली थी. आरटीआई से जानकारी मिली कि 2005-2015 के बीच 397 बच्चे गुमानपुरा, 411 डाडाबाड़ी और 97 बच्चे जवाहरनगर से लापता हैं. इनमें से 411 नाबालिग बच्चियां हैं, जिनमें से 160 लड़कियां अपने घर लौट आई हैं, लेकिन 745 बच्चे अभी तक गायब हैं.
चड्डा ने बताया कि उन्होंने पहले गायब बच्चों को लेकर पुलिस अधिकारियों से मुलाकात की थी, लेकिन उनकी तरफ से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. उनमें से एक अधिकारी ने तो यहां तक कहा कि लाखों की आबादी में अगर 750 बच्चे नहीं मिल रहे हैं, तो कौन सी आफत टूट पड़ी है? चड्डा को आशंका है कि इन गायब बच्चों के पीछे किसी ह्यूमन ट्रैफिकिंग गिरोह का हाथ हो सकता है. पुलिस गायब बच्चों की तलाश के लिए ऑपरेशन स्माइल और ऑपरेशन मुस्कान चला रही है. हालांकि पुलिस का कहना है कि 2016 में 180 नाबालिग लापता हुए हैं, जिनमें 113 लड़कियां हैं. इनमें से 90 लड़कियों व 55 लड़कों को पुलिस ने तलाश लिया है.