दक्षिण के मशहूर फिल्म स्टार रजनीकांत द्वारा राजनीति में प्रवेश की ताजा गारंटीड घोषणा के बाद लगता है कि वो तमिलनाडु में प्रभावी राजनेता के शून्य को भरने की नीयत से सियासत में कूदने वाले हैं। यूं दक्षिण में फिल्मी सितारों का आना नई बात नहीं है, लेकिन रजनीकांत का राजनीति प्रवेश कई मायनों में अलग और सफल हुआ तो दूरगामी असर वाला होगा।
पहला तो तमिल अस्मिता के प्रति अति संवेदनशील इस राज्य में एक गैर तमिल सितारे को जनता किस रूप में लेती है? दूसरे, के. करूणानिधि और जे जयललिता जैसे दिग्गजों के जाने के बाद बने राजनीतिक शून्य को रजनीकांत किस हद तक भर पाते हैं? तीसरे, क्या रजनीकांत के रूप में बीजेपी ही परोक्ष रूप से अपने पांसे चल रही है और चौथे रजनीकांत की ‘आध्यात्मिक राजनीति’ का क्या भविष्य है?
एक चमत्कारी फिल्मी सितारे, बस कंडक्टर से बने सुपर सिने स्टार, परोपकारी और अब खुद को पूरी तरह तमिल मानने वाले रजनीकांत राजनीति में आने का संकेत पहले भी कई बार दे चुके थे। लेकिन तमिलनाडु के सियासी हालात को देखते हुए इसमें उतरने की उनकी हिम्मत शायद नहीं हुई। तमिलनाडु की राजनीति दो द्रविड पार्टियों एआईएडीएमके और डीएमके में बंटी हुई है, जो वैचारिक रूप से एक ही हैं, केवल नेतृत्व का अंतर है।
राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां जैसे भाजपा और कांग्रेस आदि इन्हीं दो क्षेत्रीय पार्टियों का पल्लू थाम कर अपनी सियासी नैया खेती आई हैं। ये द्रविड पार्टियां द्रविड संस्कृति पर अभिमान, गैर ब्राह्मणवाद और हिंदी विरोध के आधार पर बारी-बारी से सत्ता में आती-जाती रहती हैं। बीते पचास सालों में इतना फर्क जरूर पड़ा कि एआईएडीएमके ने जे. जयललिता के रूप में एक ब्राह्मण नेत्री का नेतृत्व स्वीकार किया।
रजनीकांत का असली नाम शिवाजी राव गायकवाड है। उनकी मातृभाषा मराठी है। चूंकि उनके पिता पुराने मैसूर राज्य में पुलिस कांस्टेबल थे, इसलिए उन्हें कन्नड भाषा भी अच्छी तरह से आती थी। उनकी स्कूली शिक्षा रामकृष्ण मठ में हुई, इसलिए रजनीकांत पर धार्मिक-आध्यात्मिक असर काफी रहा। पढ़ाई के बाद उन्होंने कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं, जिसमें बेंगलुरू में बस कंडक्टरी भी शामिल है।
रजनीकांत की अभिनय में रूचि थी। मित्रों ने उन्हें मद्रास के एक एक्टिंग स्कूल में प्रशिक्षण लेने की सलाह दी। उसी दौरान तमिल फिल्म निर्माता के बालाचंदर की नजर रजनीकांत पर पड़ी। उन्होंने रजनीकांत को तमिल भाषा सीखने को कहा और उनकी अभिनय प्रतिभा को देखते हुए 1975 में अपनी तमिल फिल्म ‘ अपूर्व रागंगल’ में मौका दिया। उसके बाद रजनीकांत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
अपनी खास संवाद अदायगी, चमत्कारी एक्टिंग स्टाइल और जबर्दस्त अभिनय ने उन्हें बुलंदी पर पहुंचा दिया। एक समय में वो जैकी चेन के बाद एशिया के दूसरे सबसे महंगे स्टार बन गए थे। ऐसे में गैर तमिल होते हुए भी तमिलों ने रजनीकांत को सिर पर बिठाया। रजनीकांत ने भी तमिल महिला से शादी करके और समय समय पर तमिलनाडु के हितो से जुड़े मुद्दों पर समर्थन देकर खुद को पूरी तरह तमिल जताने की पूरी कोशिश की।
कई राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों से सम्मानित 69 वर्षीय रजनीकांत के लिए यह अब परीक्षा की घड़ी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि तमिल जनता उन्हें अपना नेता किस हद तक जाकर स्वीकारती है। वैसे स्व.जयललिता और रजनीकांत में कई समानताएं हैं। मसलन जयललिता का बचपन भी कर्नाटक में बीता। हालांकि वे तमिल अय्यर ब्राह्रण थीं। रजनीकांत भी युवावस्था तक कर्नाटक में ही रहे, लेकिन वो मराठा हैं।
दोनो तमिल फिल्मों के स्टार रहे हैं। दोनो ने कुछ हिंदी फिल्मों में भी काम किया है। फर्क यह है कि जयललिता अपने आका एमजीआर के कहने पर राजनीति में पहले आ गईं और रजनीकांत वानप्रस्थ की उम्र में राजनीति में प्रवेश करने जा रहे हैं। ऐसे में उन पर गैर तमिल होने को लेकर सियासी हमले हो सकते हैं। दूसरे, द्रविड राजनीति में जगह बनाना उनके लिए आसान नहीं है, क्योंकि उनकी अपनी जाति का राज्य में कुछ खास वजूद नहीं है। भले ही तमिलनाडु के तंजावुर में दो साल तक मराठों ने शासन किया हो।
तीसरे, जिन जमीनी कारणों से द्रविड पार्टियों का जन्म हुआ और वो पनपी, उससे राजनीकांत का कोई खास जुड़ाव नहीं है। वो अपनी नई राजनीतिक पार्टी लांच करने वाले हैं, जो दोनो द्रविड पार्टियों और भाजपा से भी दूरी बनाए रखेगी। रजनीकांत की उम्मीद का आधार भी यही है कि राज्य में नेतृत्व शून्यता की स्थिति है और तमिल जनता का एक वर्ग इन दो परंपरागत प्रतिस्पर्द्धी पार्टियों का शासन देखकर ऊब चुका है। वो किसी नई वैचारिक धारा और आग्रहों की तलाश में है। ऐसे में लोग रजनीकांत की पार्टी को समर्थन दे सकते हैं और उनकी ‘देवता’ समान हीरो की छवि उनकी मदद कर सकती है।
यहां सवाल यह है कि रजनीकांत ऐसा क्या करने वाले हैं, जो उन्हें द्रविड राजनीति से अलग दिखाए या फिर उसी पारंपरिक राजनीतिक शैली को आधुनिक संदर्भ में निखारे? रजनीकांत ने अपनी आरंभिक घोषणा में संकेत दिया कि उनकी नई पार्टी ‘सेक्युलर और आध्यात्मिक विचारधारा’ वाली होगी। इस बीच यह भी खबर है कि रजनीकांत फिल्म अभिनेता कमल हासन के संगठन ‘मक्कल नीति मय्यम’(जन न्याय मंच) के साथ मिलकर काम कर सकते हैं। कमल वामपंथी हैं और जाति से अयंगार ब्राह्मण हैं।
ऐसे में कमल के साथ जाने से उन्हें कितना फायदा होगा, ये देखने की बात है। जहां तक सेक्युलर होने की बात है तो तमिलनाडु में एक भाजपा को छोड़कर लगभग सभी पार्टियां सेक्युलर ही हैं। और भाजपा खुद राज्य में अपने लिए ठोस जमीन तलाश रही है। 6 दिसंबर को सम्पन्न होने वाली ‘वेत्री वेल यात्रा’ का कुछ असर राज्य में हुआ बताया जाता है। लेकिन खुलकर हिंदुत्व की राजनीति के लायक जमीन अभी तैयार नहीं हुई है।
राज्य में उसके पास कोई करिश्माई नेता भी नहीं है। बावजूद इसके वो स्थानीय प्रतीकों और आस्था केंद्रों के भरोसे आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या रजनीकांत के राजनीति के मैदान में उतरने के पीछे भाजपा का ही दांव तो नहीं है? ध्यान रहे कि तमिलनाडु में पांच माह बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा का इरादा राज्य में अपना जनाधार बढ़ाना है।
क्योंकि दक्षिण में कर्नाटक के अलावा अभी कहीं और वो धमाकेदार मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाई है। इन राज्यों में हिंदू-मुस्लिम कार्ड वैसा लाभांश नहीं देता, जैसा कि उत्तर और पश्चिम भारत के राज्यों में देता है। यहां केवल विकास की बात करने से भी बात नहीं बनती, क्योंकि दक्षिण के अधिकांश राज्य में इस मामले में कई उत्तरी राज्यों से बेहतर स्थिति में हैं।
हालांकि जातिवाद इन राज्यों में भी उसी तरह काम करता है, जैसा कि उत्तरी राज्यों में। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में महत्वपूर्ण अति पिछड़ी जाति वन्नियार ने राज्य में आंदोलन शुरू कर दिया है। जिसके बाद मुख्यमंत्री ई पलानीसामी ने राज्य में जातिगत सर्वेक्षण कराने का निर्णय लिया है। लेकिन रजनीकांत जाति की दृष्टि से ऊंची जाति में ही आते हैं।
सबसे दिलचस्प यह देखना होगा कि रजनीकांत की संभावित आध्यात्मिक राजनीति वास्तव में क्या है और वो भी सेक्युलरवाद के साथ जोड़कर। क्योंकि देश ने अब तक सेक्युलरवाद के हर पहलू को देख परख लिया है। सुविधा के अनुसार उसे पकड़ना और छोड़ना भी देख लिया है। लेकिन ‘आध्यात्मिक राजनीति’ जरा नया कनसेप्ट है।
क्या यह भावनात्मक और कर्मकांडी राजनीति से अलग हटकर है या फिर शुद्ध रूप से काल्पनिक शोशा है? रजनीकांत के अनुसार ‘आध्यात्मिक राजनीति’ ईमानदारी और पारदर्शिता की राजनीति है। शायद इसीलए रजनीकांत ने अपना मुख्य कार्यकारी गांधीवादी कार्यकर्ता तमिझरूवी मणियन को बनाया है। मणियन नई पार्टी के गठन का काम देखेंगे।
माना जा रहा है कि यह भी रजनीकांत की आध्यात्मिक राजनीति की दिशा में ही एक कदम है, क्योंकि गांधीवादी विचारधारा भी आध्यात्मिकता के करीब मानी जाती है। हालांकि हकीकत में राजनीति सौ फीसदी सांसारिक मामला है। कुछेक संत राजनेता जरूर हुए हैं, लेकिन राजनीति होती ही राज करने और हर संभव तरीके से राजसत्ता हासिल करने के लिए होती है। आजकल तो यह वैचारिक तड़के के साथ मैनेजमेंट का विषय ज्यादा है।
रजनी किस रास्ते पर चलेंगे ये देखने की बात है। यूं रजनीकांत के पास अपना एक संगठन ‘रजनी मक्कल मंद्रम’ (रजनी जन मंच) पहले से है। शुरू में इस संगठन का प्रतीक चिह्न ‘सर्प’हुआ करता था। इसके पीछे ‘आध्यात्मिक विचार’ यह था कि जीवन सर्पाकार है। लेकिन कुछ समझदारों ने जब इस शब्द व्यंजनात्मक अर्थ बताया तो इसे हटा लिया गया।
जो कुछ हो रहा है, उसके पीछे क्या बीजेपी का दिमाग है? पिछले दिनों केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के तमिलनाडु दौरे से इन अटकलो को बल मिला है। दरअसल बीजेपी और रजनीकांत के बीच आरएसएस के थिंक टैंक एस. गुरूमूर्ति के माध्यम से बात चल रही है। गुरूमूर्ति अमित शाह से मिले थे। ऐसे में यह मात्र संयोग नहीं था कि रजनीकांत ने जिन अर्जुन मूर्ति को अपना ‘मुख्य समन्वयक’नियुक्त किया है वो पहले तमिलनाडु में भाजपा के बौद्धिक प्रकोष्ठ के प्रमुख थे। नई नियुक्ति के एक घंटे बाद ही उन्होंने पद से इस्तीफा दिया और भाजपा ने ताबड़तोड़ तरीके से उसे मंजूर भी कर लिया था।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल
‘सुबह सवेरे