हलाला पर जो बहस चल रही है, उसे लेकर क़ुरान में क्या बताया गया है, ये जानना भी जरूरी है. एक लम्बी प्रक्रिया और लम्बे समय के बाद जब तलाक़ मुकम्मल हो जाता है, तब औरत किसी भी दूसरे मर्द के साथ निकाह में बंध सकती है. यदि दूसरे निकाह के बाद उसका शौहर मर जाता है या किसी वजह से उसका तलाक़ हो जाता है, तो फिर वही लम्बी इद्दत की प्रक्रिया चलती है और उसके बाद वो औरत अपने पहले शौहर के लिए हलाल हो जाती है. यानि अब अगर वो चाहे, तो अपने पहले शौहर से निकाह कर सकती है. इसी प्रक्रिया को हलाला कहा गया है.
ऐ अल्लाह के बन्दों, अपनी औरतों को तलाक़ इद्दत के लिए दो और इद्दत का वक़्त गुज़ारने के बाद या तो उन्हें वापस अपने निकाह में ले लो या बाइज्ज़त अलग कर दो. लेकिन इद्दत के दौरान उन्हें न अपने घर से निकालो न ही गलत सुलूक करो. तलाक़ के बारे में बहुत ही खूबसूरती से कुरान की सूरह तलाक़ में बताया गया है.
तलाक़ का जो सही तरीका क़ुरान में बताया गया है, वो कुछ इस तरह है- अगर शौहर अपनी बीवी से अलग होना चाहता है, तो वो उसे तलाक़ बोल सकता है. लेकिन ध्यान रहे, तलाक़ का उच्चारण पूरे होशो हवास में किया गया हो. तलाक़ बोलने के बाद तीन माह तक का समय इद्दत की अवधि होगा, जो तीन माहवारी का समय भी हो सकता है या अगर औरत पेट से हो, तो बच्चा पैदा होने की अवधि तक हो सकता है.
इस समय के उपरांत यदि शौहर चाहे, तो दोबारा अपनी बीवी को निकाह में ले सकता है, नहीं तो दोबारा तलाक़ बोल कर फिर इद्दत की अवधि गुज़ारी जाएगी. इस अवधि के बीत जाने के बाद भी निकाह में वापस लेने की सुविधा खुली है. नहीं तो तीसरी बार तलाक़ बोलने पर इद्दत की अवधि के उपरान्त निकाह खतम हो जाएगा और इसके बाद शौहर चाह कर भी बीवी को निकाह में वापस नहीं ले सकता. अब अगर बीवी चाहे, तो वो किसी भी दूसरे मर्द से निकाह कर सकती है.
तीन तलाक़ बोल कर निकाह ख़त्म करने का ये जो मामला अभी चल रहा है, असल में तलाक़ का ऐसा कोई तरीका इस्लाम में है ही नहीं. ये कुछ ग़लत इरादों वाले इंसानों की बनाई हुई रिवायत है, जिस पर मुसलमानों का एक छोटा और जाहिल तबका आंख मूंद कर अमल कर रहा है. यदि क़ायदे से क़ुरान को समझा जाए, तो कहीं पर भी हमें एक झटके से निकाह ख़तम करने की कोई आयत नहीं मिलेगी. इस्लाम में तो औरतों के हक़ और इज्ज़त के लिए तमाम सुविधाएं हैं.
हलाला पर जो बहस चल रही है, उसे लेकर क़ुरान में क्या बताया गया है, ये जानना भी जरूरी है. एक लम्बी प्रक्रिया और लम्बे समय के बाद जब तलाक़ मुकम्मल हो जाता है, तब औरत किसी भी दूसरे मर्द के साथ निकाह में बंध सकती है. यदि दूसरे निकाह के बाद उसका शौहर मर जाता है या किसी वजह से उसका तलाक़ हो जाता है, तो फिर वही लम्बी इद्दत की प्रक्रिया चलती है और उसके बाद वो औरत अपने पहले शौहर के लिए हलाल हो जाती है. यानि अब अगर वो चाहे, तो अपने पहले शौहर से निकाह कर सकती है. इसी प्रक्रिया को हलाला कहा गया है.
मतलब ये स्पष्ट है कि न तो तीन बार तलाक़ बोलने से फौरन तलाक़ हो सकता है और न ही पहले शौहर से तुरंत दोबारा निकाह हो सकता है. जो इस्लाम को सही से समझते और जानते हैं, वे कभी भी झटके वाली इस घटिया तीन तलाक़ की प्रक्रिया का इस्तेमाल नहीं करते. इस्लाम में तो औरत को फूल की तरह रखने का हुक्म है.
कोई बेजा नाइंसाफी न करने का हुक्म है. इसीलिए तलाक़ की प्रक्रिया भी इतनी लम्बी रखी गई है कि अगर ग़लती से या गुस्से से तलाक़ बोला भी है, तो मर्द अपनी ग़लती का काफ्फारा कर ले और इद्दत की अवधि के दौरान निकाह बचा ले. वो भी एक बार नहीं, तीन बार उसे ये मौका दिया जाता है.
अब जरा सोचिए, इस्लाम में निकाह बचाने की जो ये बेहतरीन सुविधा दी गई है, वहां इस झटके वाले तीन तलाक़ के कांसेप्ट का चलन मुमकिन ही नहीं है. मुसलमानों को ज़रूरत है, जाहिलता से बाहर निकलने की. ज़रूरत है, तर्जुमे के साथ खुद क़ुरान पढ़ने की. जरूरत इस बात की भी है कि औरतें अपना हक जानें और ग़लत रिवाज़ फैलाने वालों का बहिष्कार करें.
(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)