विपक्ष की बैठक में हमने बैठे हुए राहुल के कंधे पर ममता की हथेली देखी । कुछ समझाते हुए ममता। राहुल का मान बढ़ रहा है। कल तक जिस राहुल का कोई मान नहीं था, आज वे चाहे अनचाहे सबकी नजरों के तारे हैं । यह कैसे हो गया। यह चमत्कार है ! जीवन में कई चीजें कई बार आपको फंसा देती हैं और कई चीजें और कई बातें ऐसी भी होती हैं जो आपको बांध देती हैं। ऐसा भी होता है कि प्रेम, करुणा, दया जैसे मूल्य आपमें चामत्कारिक रूप से परिवर्तन लाते हैं। ऐसा लगता है कि एक यात्रा ने राहुल गांधी की सारी अकड़ और हेकड़ी निकाल कर फेंक दी है। जब मुहब्बत हावी होती है तो उसकी पहली और अबूझ शर्त ही यह होती है कि या तो मैं या मेरे दुश्मन। मुहब्बत से लबरेज राहुल के पास अन्यत्र कोई चारा नहीं है। परिवर्तन होना ही था, जो हम देख रहे हैं।
मैंने राहुल गांधी को केवल राजनीति की ही नजर से नहीं देखा बल्कि पहले एक इंसान की नजर से देखा। जिसमें न भारत की कोई गहरी समझ, न राजनीति की चतुराई बल्कि हेकड़ी भरा एक लौंडापन ही ज्यादा नजर आया। उस समय राहुल गांधी का मतलब सिर्फ गांधी परिवार का होना मात्र था। आरएसएस के दिग्गज कांग्रेसियों की इसी कमजोरी से वाकिफ थे इसीलिए राहुल गांधी को ‘पप्पू’ के रूप में टारगेट किया जो देश भर में सफल कार्यक्रम बना। जो राहुल गांधी आज हमें बदले हुए नजर आते हैं वे उस बड़ी जमात में आज भी पप्पू ही हैं जो सोचने समझने में स्वयं से लाचार है। बहरहाल, चार हजार किमी की पैदल यात्रा ने गजब किया और सबसे ज्यादा उथले व्यक्तित्व को धोया उस नारे ने – नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान। जब आप हर जगह और हर बार यह नारा दोहराएंगे तो आपको यात्रा के दौरान के वे दृश्य तो नजर आएंगे ही जो देश के हर वर्ग ने आपकी छाती से चिपट कर बनाए थे। यहीं से राहुल गांधी में लड़कपन छूटा और व्यक्तित्व व व्यवहार में स्थायित्व आया। 2019 के चुनावों में जब प्रचार के दौरान अपरिपक्व राहुल गांधी की तूती बोल रही थी तब के परिणामों से मिले झटके से पहला सबक यही था कि गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष का चुनाव और खुद को पीछे खींचने की जिद । यह परिवर्तन का पहला कदम था, जो सराहनीय था लेकिन जो कांग्रेसियों को शायद पसंद नहीं आया था पर जो राहुल की जिद के आगे बेबस थे । वहां से विपक्ष की अब की बैठक तक राहुल गांधी हमें एक भीतर ही भीतर परिपक्व होते नेता के रूप में दिखते हैं जिसमें फालतू की अकड़ और हठीलापन काफूर है और लचीलापन मौजूद है। यह परिवर्तन कांग्रेस की बेहतर राह मुकम्मल करेगा ऐसा दिखता है। बड़ा दल होने के बावजूद खुद को पीछे करके चलना यह बड़प्पन न केवल कांग्रेस के लिए बल्कि विपक्ष की एकता के लिए जरूरी था जो राहुल और कांग्रेस ने दिखाया है। उम्मीदें इसी नीति से बंधी हैं और आगे भी जारी रहेंगी ही , ऐसा प्रतीत होता है। इस रूप में मान कर चलिए कि राहुल आज के तो नहीं लेकिन भविष्य में भारत के सफल नेता जरूर साबित होंगे। इस बात को दोहराने के बावजूद कि मैं शुरु से राहुल गांधी का कट्टर आलोचक अंत तक रहा हूं अगर यात्रा से गुल न खिलते तो शायद न जाने कब तक रहता ही ।
इस बार अभय दुबे शो इंटरनेट फेल होने की वजह से कब शुरु होकर कब खत्म हो गया पता भी नहीं चला। फिर भी जितना सुना पसंद आया। संतोष भारतीय जी बीच बीच में कुछ और वीडियो भी डालते रहते हैं। कल रात ही वीपी सिंह को याद करते हुए अखिलेंद्र प्रताप सिंह से रोचक बातचीत की । इससे पहले एक वीडियो उन्होंने मोदी की बेवकूफी भरे उद्बोधन पर किया था। मोदी का कहना था कि जब जब भारत पर आफत आई है तब तब अमरीका साथ खड़ा हुआ है। मोदी कब झूठ बोलें, कब बेवकूफी भरी बातें करें और कब किसी के लिए अपशब्द बोल दें कोई नयी बात नहीं। संतोष जी ने अमरीका की मदद वाली बात पर जो वीडियो प्रस्तुत किया वह बड़ा तार्किक था। सत्यता के लिए वह देखा जाना चाहिए।
अमिताभ श्रीवास्तव ‘सिनेमा संवाद’ में बड़े मौजूं विषय उठाते हैं। इस बार इमरजेंसी को विषय बनाते हुए फिल्मों पर उसके प्रभाव पर बात की । पैनल जोरदार था। लेकिन अंधविश्वासी या कहिए दक्षिण पंथ के रुझान वाले कमलेश पांडेय को इस दौर में किसी भी प्रकार से ‘अघोषित इमरजेंसी’ नजर नहीं आती, हैरत कर देने वाली बात लगी । एक बार पहले भी अंधविश्वास को बढ़ाने वाली बातें वे कर चुके हैं। वे हिंदी सिनेमा के बड़े राइटर हैं ।? इस पूरी बातचीत में किसी ने भी कंगना रनौत की आने वाली फिल्म ‘इमरजेंसी’ का जिक्र नहीं किया। वह न भी हो पर किसी ने इस ओर भी किसी ने इशारा नहीं किया कि जो फिल्में बन रही हैं वे समाज को किस तरह प्रभावित कर रही हैं । ‘केरला स्टोरी’ और ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों से समाज को कैसे उकसाया जाता है छः प्रबुद्ध विद्वानों ने इस दिशा में कैसी भी बात नहीं की । ये फिल्में बनाई ही इसीलिए जाती हैं। बल्कि इस दौर में खासतौर पर बनाई जा रही हैं। कंगना की ‘इमरजेंसी’ भी एकदम नयी पीढ़ी को प्रभावित करने वाली फिल्म है। अमिताभ के प्रयास अच्छे हैं। कम से कम रविवार को राजनीति से अलग स्वाद तो मिलता है।
‘ताना बाना’ इस बार बड़ा धनी कार्यक्रम था। बहस में अपूर्वानंद और ओम थानवी थे । बहस भी रोचक विषय पर थी – ‘हिंदी को हिंसक कौन और क्यों बना रहा है’ । इस बहस को देखिए। साथ में हिंदी यूनिवर्सिटी की अर्जुमंद आरा भी हैं।
आजकल ‘नमस्कार की लंबी तान’ नहीं सुनाई पड़ रही है। कानों को बड़ा सुकून है। आशुतोष विदेश में छुट्टी मना रहे हैं। वे पैनलिस्ट ही अच्छे । उनकी एवज में आशुतोष की बात शरत प्रधान अच्छा कर रहे हैं। आलोक जोशी आजकल भड़कने लगे हैं। चिढ़ाने वाले लोग तो हर जगह मिलेंगे आलोक जी। सवाल जवाब वाले कार्यक्रम में आपका अचानक तैश में आ जाना बहुत नहीं भाया। पर सत्य हिंदी में तो सभी गर्म मिजाज़ के हैं ज्यादातर। क्या आशुतोष, क्या आलोक जोशी, क्या अंबरीष। मुकेश जी भी कभी कभी चिढ़ जाते हैं। रवीश कुमार और आरफा खानम शेरवानी को जितना ट्रोल किया जाता है उतना तो शायद किसी और को ट्रोल नहीं किया जाता होगा। फिर भी उनमें ‘अपेक्षित’ सौम्यता है। खैर अपना अपना मिजाज़ है। हमें तो कुल मिलाकर यह चाहिए कि मोदी को 2024 में रुखसत किया जाए । बाकी बातें बाद में देखी जाएंगी। हिंदुस्तान दसों दिशाओं से न केवल बरबाद हो रहा है बल्कि जीवन निकृष्ट होता जा रहा है।
राहुल और लचीलापन, क्या मायने हैं इसके …..
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