कहते हैं पूत के पांव पालने में दिखाई देते हैं । लेकिन कुछ पूत ऐसे भी होते हैं जो बचपन से ही अपने पैर और पालने को धता बता कर संभ्रम की ऐसी कला जान लेते हैं कि ताउम्र आप उन्हें समझ नहीं पाते । शायद इसीलिए शायर निदा फ़ाज़ली कह कर चले गये कि ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी , जिसे भी देखना कई बार देखना’ । हमारा काम देखने का है लेकिन न जाने कितनी बार हम इस देखने के चक्कर में ही चूक जाते हैं और वह आदमी जो बचपन की समझ को धता बता कर अपना जाल बुनता है , वह बुनता जाता है और हम देखते जाते हैं। समझ ही गये होंगे इशारा किस ओर है । क्या हम नरेंद्र मोदी से कुछ सीख सकते हैं या कोई समझ ले सकते हैं । शायद नहीं । क्योंकि हम लोकतांत्रिक पद्धति से चलना चाहते हैं । पर कौन कह सकता है कि नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक पद्धति से नहीं चल रहे । आखिर वे जनता द्वारा चुने जा रहे हैं । फिर भी हम मोदी में एक तानाशाह को देखते हैं । जनता नहीं देखती । तो एक ओर मोदी और उनकी जनता है और दूसरी ओर हम हैं । इसलिए अब मोदी का सीधा सा खेल इतना भर है कि ये जो बीच में हम हैं इन्हें जड़ से कैसे खतम किया जाए । इसलिए हमें चारों ओर से घेरा जा रहा है । मोदी के टारगेट पर अल्पसंख्यक नहीं हैं फिलहाल, केवल मुसलमान हैं और उनके पक्ष में खड़े होने वाले ‘हम’ हैं । सत्ता कुछ नहीं करती, लेकिन सत्ता सब कुछ करती है । देखने और समझने वाली आंख चाहिए । गरीब जनता की नजर में मोदी यूंही भगवान नहीं हो गये । उन्होंने यह सिद्ध किया कि आपदा ईश्वर की देन थी और उस आपदा से राहत मेरी देन है । हम चाहे जो समझें और कहते रहें । पर मोदी को संभ्रम की स्थिति पैदा करके जो संदेश गरीबों में देना था, उन्होंने दिया । और गरीब ने माना । संभव है मोदी अपनी जनविरोधी नीतियां कुछ समय के लिए आगे सरका दें – 2024 तक के लिए । और ध्रुवीकरण के खेल खेलें । जैसा हम आजकल एक फिल्म के संदर्भ में देख रहे हैं ।
इसे मोदी की खासियत कहिए या उसको घृणित नजरों से देखिए कि मोदी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी अपने नजरिए या दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं किया । वे ‘लुटियंस’ को गाली देते हुए गरीब के मसीहा बना रहना चाहते हैं । मोदी के इस ‘खेल’ का हमारे पास या विरोधियों के पास या विपक्षियों के पास कोई तोड़ नहीं है । हम सब हारते हुए दिख रहे हैं । यूपी चुनाव के बाद जो चौसर बिछी हुई हम देख रहे हैं उसमें विपक्ष चारों खाने चित्त है । कांग्रेस पर रोजाना डिबेट्स और चर्चाएं हो रही हैं । लेकिन ज्यादातर बे-सिर-पैर की । दरअसल कांग्रेस अपनी आत्मा में कहीं है ही नहीं । मोदी के हथौड़े इस कदर पड़ चुके हैं और वे अभी भी हथौड़े लिए खड़े हैं । ऐसे में इस बात के भी कोई मायने नहीं रह जाते कि कांग्रेस भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प है । पता नहीं देश के दूरदराज में कितने कांग्रेसी अभी बचे हैं । पारम्परिक कांग्रेसियों में बहुतायत तो ऐसों की है जो इस दुनिया से जा चुके हैं । फिर भी कहने को तो कांग्रेस जैसी और कोई दूसरी पार्टी नहीं । पर सवाल वहीं अपनी जगह स्थिर है कि कांग्रेस है कहां । अंत में एक बात कह दी जाए कि नेताओं और दलों का अतीत मायने रखता है और यह कि अपने अतीत के दम पर अपने वर्तमान में वह कितनी मजबूती के साथ तैनात हैं । अखिलेश की हार में उनका अतीत आड़े आया । यह साफ है ।
सोशल मीडिया पर गये हफ्ते काफी कुछ अच्छा सुनने को मिला । आशुतोष की प्रेम शंकर झा से बातचीत , मुकेश कुमार की सुधा भारद्वाज से, विजय त्रिवेदी की प्रदीप गुप्ता से और शीतल पी सिंह की वीरेंद्र यादव से की गयी बातचीत रोचक, ज्ञानवर्धक और ताजगी भरी थी । मिसाल के तौर पर सुधा भारद्वाज को सुनना । ‘जी फाइल्स’ के अनिल त्यागी ने कांग्रेस पर चर्चा चलाई । लोग न जाने क्यों वर्तमान छोड़ कर अतीत में जाकर समय बरबाद करने लगते हैं । आजादी के समय और उससे पहले की कांग्रेस आज कहीं नहीं है । यह नामालूम सी कांग्रेस है । हालांकि मुकेश कुमार की भांति अनिल त्यागी भी भटकते हुए लोगों को लाइन पर ले आते हैं । यह जरूरी भी है । आज के हालात और आज की ‘तथाकथित’ कांग्रेस पर वर्तमान और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में ही चर्चा की जानी चाहिए । आज भारी दुविधा में है यह पार्टी ।बहरहाल, सब लोग सब कुछ जानते हैं । संतोष भारतीय के अभय दुबे शो में अभय जी का एक शोध है कि पार्टियों का वोट ट्रांसफर क्यों नहीं होता । वे कहते हैं कि जब तक सत्ता पक्ष के खिलाफ ‘जबरदस्त’ एंटी इंकमबैंसी नहीं होती तब तक एक दल से दूसरे दल में गयीं पार्टियों का वोट आसानी से शिफ्ट नहीं होता । उनकी नजर में अब एक ही रास्ता शेष है कि राजनैतिक दल जनांदोलन करें । सत्ता पक्ष की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ और अधूरे वादों के खिलाफ यदि राजनैतिक दल और जनता सड़कों पर न उतरी तो समझिए कुछ होने जाने वाला नहीं । जो बात मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि बुद्धिजीवी सड़कों पर क्यों नहीं उतरते , इस बार एक डिबेट में आशुतोष ने ताहिरा खान या हुसैन को कहा कि अब हमें और आपको सड़कों पर उतरना होगा । गनीमत है । मेरा तो यहां तक मानना है कि आशुतोष और उनके साथियों को एक राजनैतिक दल बनाने की पहल करनी चाहिए । वक्त की मांग है । आज नहीं तो फिर कब ? क्या ‘सत्य हिंदी’ के वीडियो ट्वीटर पर ‘अपलोड’ किते जाते हैं ।
कोरोना की चौथी खतरनाक लहर आने की बात की जा रही है । अभय दुबे ने कोरोना को लेकर जिस षड़यंत्र की बात कही थी , संतोष भारतीय को उस पर विशेष चर्चा करवानी चाहिए । मुकेश कुमार की पुस्तक ‘टीआरपी’ पर चर्चा खूब रही ।
फिलहाल इन दिनों ‘कश्मीर फाइल्स’ पर चर्चा पूरे देश का विषय बन गया है । बिदकते और छिटकते हिंदू का पुनर्जागरण हुआ है। ऐसा लग रहा है जैसे कश्मीर फाइल्स मोदी सरकार की कोई नयी योजना हो जिसे घर घर प्रसारित करने का काम चल रहा है । नरेंद्र मोदी के जिस ‘स्तर’ की बात हमने की उसका नमूना है कि महात्मा गांधी की लोकप्रियता पर उनकी सोच । उन्होंने बड़े नाटकीय अंदाज में बताया कि 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ से पहले दुनिया महात्मा गांधी को जानती ही नहीं थी । इसी भाषण में उन्होंने ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म पर भी मोहर लगा दी। इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कहा कि ऐसी फिल्में और बननी चाहिए । अफसोसनाक यह है कि एक प्रधानमंत्री सामाजिक सौहार्द पर बनी फिल्म को प्रमोट नहीं करता वह नरसंहार पर बनी फिल्म को पसंद करता है और चाहता है कि ऐसी फिल्में और बननी चाहिए । तो क्यों नहीं गोधरा नरसंहार पर भी एक फिल्म बने और उसे राष्ट्रपति प्रमोट करें। सब हैं तो एक ही थाली के चट्टे-बट्टे । हमें उस दिन का इंतजार रहेगा । तो ये हैं नरेंद्र मोदी जिन्होंने शायद बचपन में अपने पैरों और पालने को धता बता कर यह सिद्ध करना चाहा कि जरूरी नहीं कि ‘पूत के पांव पालने में दिखाई पड़ जाते हैं’ । ये वे नरेंद्र मोदी हैं जो जहां से चाहें, जैसे चाहें रस खींच लेते हैं । 2024 हम सबकी परीक्षा का साल रहेगा ।अभी से गांठ बांध लें तो बेहतर ।