aadiwasiओड़ीशा के कंधमाल ज़िले के जंगलों में बसा एक छोटा सा गांव है बुलुबरू. यहां के निवासी अपना पेट भरने के लिए ज़मीन के जिस टुकड़े पर कंद मूल, फल, बाजरा इत्यादि उगाते थे, वहां वन विभाग ने सागवान के पेड़ लगा दिए हैं. यह इलाका कुटिया कोंध जनजातियों का है, जिनका जीवन बहुत हद तक वन क्षेत्र के ज़मीन के ऐसे ही खाली टुकड़ों पर निर्भर है. दरअसल वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 ने वन क्षेत्र में रहने जनजातियों को ज़मीन के जिन टुकड़ों पर थोड़ा बहुत अधिकार दिया था, अब वनीकरण के नाम पर वही टुकड़े छीने जा रहे हैं. हालांकि वन विभाग यह कहता है कि उक्त प्लांटेशन कोंध जनजातियों की साझेदारी में की गई है, जबकि कोंध लोगों का कहना है कि वन विभाग ने पेड़ लगाने के लिए उन्हें केवल 70 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी दी थी, जिसे बहुत सारे लोगों ने मना कर दिया था. लिहाज़ा अपनी ज़मीन पर ऐसे पेड़ उगाने से, जिससे कोई फल नहीं मिलता, कोंध जनजाति के लोग नाराज़ हैं. उन्होंने जीविका का साधन छीन जाने के विरोध में वन विभाग के खिलाफ राज्य सरकार को एक अर्जी दी है और विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. इधर लोक सभा के बाद अब राज्य सभा ने भी कंपल्सरी अफॉरेस्टेशन फंड (कैम्पा) बिल पारित कर दिया है, जिसे बुलुबरू की घटना ने और महत्वपूर्ण बना दिया है.

वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के एक क़ानून के मुताबिक उद्योग, कारखानों और दूसरे गैर वन उपयोग के लिए काटे गये जंगलों के बदले नये पेड़ लगाने और कमज़ोर या क्षीण हो रहे जंगल को घना बनाने के लिए वन भूमि का उपयोग करने वाली कंपनियों और संस्थाओं को मुआवजा देना पड़ता है. वर्ष 2002 में वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 को लागू करने के संबंध में टीएन गौडाबर्मन थिरुमूलपाद की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि इस मद में जमा फंड या तो खर्च नहीं हो रहा है या फिर बहुत कम हो रहा है. इसी टिप्पणी के मद्देनज़र तत्कालीन यूपीए सरकार ने वर्ष 2008 में कैम्पा बिल पेश करने की कोशिश की थी, जिसका स्वरूप मौजूदा बिल से मिलता-जुलता था. इस बिल को नामंज़ूर करते हुए स्थायी समिति ने एफआरए के तहत दिए गए अधिकारों का भी हवाला दिया था. बहरहाल किसी कानून के अभाव में यह फंड राज्यों को जारी नहीं हो सका और अब इस फंड की राशि 40 हज़ार करोड़ रुपए तक पहुंच गई है. गौरतलब है कि इस फंड का 90 प्रतिशत राज्य और 10 प्रतिशत केंद्र के पास रहेगा और इसका इस्तेमाल नये जंगल लगाने और वन्य जीवों को बसाने, फॉरेस्ट इको सिस्टम को सुधारने के अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिये होगा.

बहरहाल मौजूदा केंद्र सरकार ने कैम्पा बिल 2015 में पेश किया था, जिसे लोकसभा ने पहले ही पारित कर दिया था. चूंकि राज्यसभा में एनडीए सरकार के पास बहुमत नहीं है और कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियां इस बिल में एफआरए के तहत ग्राम सभा को दिए गए अधिकारों के अनुरूप ग्राम सभा की सहमति के क्लॉज़ को शामिल कराना चाहती थीं. इस संबंध में कांग्रेस के सांसद जयराम रमेश ने संशोधन प्रस्ताव पेश किया था. पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे के इस आश्वासन के बाद कि इसमें विपक्ष द्वारा उठाई गई अपत्तियों को इस अधिनियम के तहत बनाने वाले कानून में शामिल कर लिया जायेगा. उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि यदि उस कानून से वांछित नतीजे नहीं मिलते तोे एक साल बाद इस पर विचार के लिए फिर से संसद में लाया जाएगा. इसके बाद जयराम रमेश ने अपना संशोधन वापस ले लिया और राज्य सभा ने भी इस बिल को ध्वनिमत से पारित कर दिया.

इस सिलसिले में गौर करने वाली बात यह है कि पिछले दिनों वन अधिकार क्षेत्र में काम करने वाली देश भर की 45 सिविल सोसाइटी संस्थाओं ने राज्यसभा को एक ज्ञापन देकर कैम्पा बिल 2016 पर अपना विरोध जताया था. उन्होंने विपक्षी दलों से राज्यसभा में इस बिल का उसके मौजूदा स्वरूप में विरोध करने की अपील की थी. इन संगठनों का कहना था कि कैम्पा बिल के तहत कंपेसट्री एफॉरेस्टेशन (प्रतिपूरक वनीकरण) कार्यक्रम में ग्रामसभा की सहमति का क्लॉज़ शामिल न कर वन अधिकार अधिनियम 2006 के उस प्रावधान को बेअसर करने की कोशिश की गई है, जिसमें अनुसूचित जनजातियों एवं पारंपरिक रूप से वन में निवास करने वाले लोगों का वन के ऊपर अधिकार सुनिश्चित किया गया है. कांग्रेस इसी मुद्दे पर बिल का विरोध कर रही थी.

अब सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार इस बिल में ग्राम सभा की अनुमति के क्लॉज़ को शामिल नहीं करने पर क्यों अड़ी हुई थी? दरअसल इसके जवाब के लिए पीछे कुछ घटनाओं पर भी नज़र डालना ज़रूरी है, खास तौर पर एफआरए (2006)  के उस प्रावधान पर नज़र डालना ज़रूरी है जिसमें वन क्षेत्र में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों एवं पारंपरिक रूप से वन में निवास करने वाले लोगों का वन के ऊपर अधिकार सुनिश्चित किया गया है. इस क्लॉज़ का इस्तेमाल कर नियामगिरि की ग्राम सभा ने वेदांता को नियामगिरि में बॉक्साइट खनन से रोक दिया था. हालांकि अधिकारियों ने इस क्लॉज़ को नज़रंदाज़ कर इस परियोजना को हरी झंडी दिखाई है, जिनमें से कई पर विभिन्न अदालतों ने रोक लगा रखी है. इसलिए सरकार को लगता है कि यह क्लॉज़ विकास की राह में बाधा बन रही है और इसे खत्म करने के प्रयास किए गए.

चौथी दुनिया ने अपने 20 जून के अंक में एक विस्तृत रिपोर्ट (खनन के लिए खत्म होगी ग्राम सभा की सहमति!) प्रकाशित की थी, जिसमें एनडीए सरकार के दो मंत्रालयों के बीच हुए पत्राचार के हवाले से बताया गया था कि कैसे सरकार एफआरए के अंतर्गत आदिवासियों और वन में निवास करने वाले लोगों के अधिकार को छीनना चाहती है. यह पत्राचार जून 2015 और दिसम्बर 2015 के दरम्यान जनजातीय मामलों के मंत्रालय और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधिकारियों के बीच हुआ था. इन पत्रों में जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा था कि वन भूमि को किसी परियोजना के लिए आवंटित करने से पहले एफआरए के तहत उस क्षेत्र के ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य है. जबकि पर्यावण मंत्रालय इस ग्राम सभा की सहमति के क्लॉज़ हटाने की बात कर रहा था. एफआरए की सहमति वाले क्लॉज़ को लेकर इन दो मंत्रालयों के बीच रस्साकशी के दौरान केंद्र सरकार ने कैम्पा बिल पेश किया था और उस बिल में ग्राम सभा की सहमति का क्लॉज़ शामिल नहीं था. इसलिए उक्त पत्राचार की पृष्ठभूमि में सरकार की नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है.

बहरहाल वनों की अंधाधुंध कटाई और औद्योगीकरण की वजह से जलवायु में जिस तरह से बदलाव आ रहे हैं और जिस तरह से प्रदूषण बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कमज़ोर वन क्षेत्रों को घना बनाने, कटे हुए वन की बराबर की भूमि पर पुनः वन लगाने और विस्थापित हुए जंगली जानवरों का पुनर्वास वक़्त की ज़रूरत है. लेकिन बुलुबरू गांव में सागवान के प्लांटेशन, पूर्व में सरकार के दो मंत्रालयों के बीच एफआरए से ग्राम सभा की सहमति का क्लॉज़ हटाने के संबंध में हुए पत्राचार के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि  कैम्पा बिल वन अधिकारियों को अपनी मनमानी करने का पूरा अधिकार दे देगा और कैम्पा के जरिए एफआरए द्वारा दिए गए इस अधिकार को क्षीण कर दिया जाएगा. इसके साथ ही बुलुबरू की कहानी बार-बार दोहराई जाएगी. कैम्पा बिल पारित होने के क्रम में यदि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के रोल को देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि राजनीति से इतर जल-जंगल-ज़मीन के संघर्ष में वह भी सत्ता पक्ष की तरह उद्योगपतियों के साथ है.

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