मधुबनी के कपसिया खादी ग्रामोद्योग जिसका मसलिन कपड़ा कभी ढ़ाका के मलमल की तरह प्रसिद्ध हुआ करता था और जो कभी गांधी जी के ग्राम स्वावलम्बन का प्रतीक था, आज जर्जर हाल में है.
कभी जहां हजारों चरखों और हथकरघों की आवाज ही गांव की पहचान हुआ करती थी, जहां के हजारों बुनकरों ने देश-विदेश में क्षेत्र को प्रतिष्ठा दिलाई थी, जहां सूत उपलब्ध कराने के लिए गांव-गांव में दिन रात चरखा और कतली पर सूत कताई होती थी और स्वयं भंडार में भी तीन हजार जोड़ी हाथ दिन-रात चरखों पर चला करते थे, आज वहां चौतरफा सन्नाटा और विरानगी है. जी हां, हम बात कर रहे हैं, गांधी जी के ग्राम स्वावलम्बन के प्रतीक कपसिया खादी ग्रामोद्योग की.
करीब पांच एकड़ भूमि में पसरा करोड़ों मूल्य का कपसिया खादी भंडार भवन आज व्यवस्था की मार से भूतिया खंडहर में तब्दील हो चुका है. चारों तरफ कटीले झार-झंकार उसे और डरावना बनाते हैं. लोग चहारदिवारी तक के ईंट ले जा चुके हैं. वैसे तो सभी खादी भवनों की हालात कमोबेश एक सी है, लेकिन इसमें वर्तमान के बिजलपुरा स्थित कपसिया खादी भंडार की स्थिति बद से बदतर है, इसकी ऐसी स्थिति तब है, जब इसे राष्ट्रीय धरोहर के तौर पर संरक्षित करने की आवश्यकता है.
स्वदेशी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका
आज से करीब सौ वर्ष पूर्व जब सन 1920 में गांधी जी ने स्वदेशी आंदोलन शुरू किया था, तो उसे सफल बनाने में खादी की महत्वपूर्ण भूमिका थी. इसने लोगों को स्वाभिमान के साथ जीना सिखाया, उन्हें आर्थिक रूप से संबल बनाने का काम किया. इसे भारत में घरेलू उद्योग की पुनर्स्थापना के लिए मील का पत्थर माना गया. खादी से निर्मित कपड़ों ने विदेशों से आयात किए गए कपड़ों की मांग को कम कर दिया था.
ग्रामीणों को कपास उपलब्ध कराने, चरखों की मरम्मत एवं काते सूत को खरीदने के लिए जगह-जगह बड़े-बड़े खादी भवन बनाए गए. जहां ग्रामीण अपने काते सूत को बेचकर उससे उपार्जित धन राशि के आधार पर कपास खरीद के बाद, तेल, साबुन, कपड़े, चादर एवं अन्य खादी ग्रामोद्योग में निर्मित वस्तुओं से नकदी प्राप्त कर अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए जमा होते थे. स्वदेशी खादी आंदालेन के बाद भारतीयों में स्वावलम्बन की भावना जागृत हुई, जिसने लोगों को किसी दूसरे पर आश्रित न होकर अपने दम पर खड़ा होना सिखाया. इसमें कपसिया खादी ग्रामोद्योग का अपना अलग इतिहास है, जिसके पन्ने सुनहरे हैं.
वर्तमान मधुबनी जिले के बेनीपटी प्रखंड अन्तगर्त, दरभंगा जयनगर सड़क एनएच 105 पर कपसिया के खादी ग्रामोद्योग परिसर में कभी हर दिन मेले का माहौल रहता था, जो कभी हजारों निर्धन, निसहाय, अशक्त, अबलाओं के लिए जीविका का सहारा हुआ करता था, आज स्वयं अपने उद्धारक की बाट जोह रहा है. लेकिन किसी रहनुमा को उसकी कोई चिंता नहीं है. यहां से जुड़े रहे कुछ बुनकर पलायन कर चुके हैं, तो वहीं कुछ ने पेशा बदल लिया है. यह आज अपने देखभाल के लिए एक कर्मचारी के साथ अपने अतीत को याद कर सिसक रहा है.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कर्मभूमि कहकर किया था नमन
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 1921-34 के दौरान यहां आया करते थे. उनके नेतृत्व में 1934 के भयंकर भूकम्प के दौरान जनसेवा और नशा उन्मूलन कार्यक्रम के साथ स्वधीनता सेनानियों की गुप्त बैठकें हुआ करती थीं. राष्ट्रपति बनने के बाद जब वे 1958 में बिहार के मुख्यमंत्री डॉ. कृष्ण सिंह एवं दरभंगा महाराज के साथ यहां आए थे, तो इसे अपनी कर्मभूमि कहकर नमन किया था.
होना तो ये चाहिए था कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थल को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित किया जाता, लेकिन सच्चाई यही है कि स्थानीय जनता, प्रशासन से लेकर प्रदेश और केन्द्र सरकारों के पास इसके लिए न तो कोई योजना है और न ही समय. यह किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है.
वयोवृद्ध खादी प्रेमी रामकृपाल झा और श्याम नारायण चौधरी कहते हैं कि सरकार अगर इसे पुनर्जीवित करे, तो स्थानीय स्तर पर लोगों को रोजगार देने के साथ-साथ खादी भंडार की अरबों की संपत्ति का उपयोग विकास कार्य में कर सकती है. ऐसा नहीं है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं है. जब बिनोद नारायण झा बेनीपटी के विधायक थे, तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि कोई व्यक्ति व संस्था इसे पुनर्जीवित करने के लिए आगे आकर कुछ करें.
मधुबनी खादी को पुनर्जीवित करने एवं वर्तमान स्थिति को जानने जब राष्ट्रीय खादी आयोग से कुमुद जोशी मधुबनी आई थीं, तो उन्होंने इसे पुनर्जीवित करने के लिए एक करोड़ 20 लाख बतौर लोन मुहैया करवाने की घोषणा की थी. लेकिन इसके क्रियान्यावन में किसी तरह की कहीं कोई प्रगति दिखाई नहीं दे रही है, जिससे सुनहरे अतीत वाले कपसिया खादी ग्रामोद्योग के निशान हर स्तर पर मिटने के कगार पर हैं.