सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के विवादित बयानों ने उत्तर प्रदेश सरकार का सिरदर्द बढ़ा दिया है. यह बात भले ही सपा नेता सार्वजनिक मंच पर स्वीकार नहीं करते, लेकिन इसकी सुगबुगाहट पार्टी के भीतर सुनाई और दिखाई पड़ने लगी है. हालांकि इसका मुखर विरोध नहीं हो रहा है. खासकर, महिलाओं को लेकर मुलायम सिं का तंग नज़रिया नई सोच के समाजवादियों को रास नहीं आता है. अनजाने में ही सही, नेता जी अपने विवादित बयानों से विरोधी दलों को सपा के ख़िलाफ़ जहर उगलने का मौक़ा दे देते हैं. सपा के कुछ नेताओं ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया है कि मुलायम सिंह के बयानों के कारण ही लोकसभा चुनाव में पार्टी को महिला वोटरों से हाथ धोना पड़ा. महिला वोटरों की बेरुखी की वजह मुलायम सिंह का मुजफ्फनगर में दिया गया वह बयान था, जिसमें उन्होंने मुंबई गैंगरेप के आरोपियों के प्रति नरम रुख अपनाते हुए कहा था, लड़कों से गलतियां हो जाती हैं, इसका मतलब यह थोड़ी है कि उन्हें (गैंगरेप के आरोपियों) फांसी पर लटका दिया जाए.
उम्मीद थी कि इस विवादित बयान के बाद नेता जी को सबक मिल गया होगा, लेकिन लखनऊ के मोहनलालगंज थाना क्षेत्र में कथित गैंगरेप और हत्या की घटना के बाद मुलायम सिंह का एक और विवादित बयान सामने आया, जिसमें वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामने कहते दिखाई पड़े कि उत्तर प्रदेश में आबादी के हिसाब से दुराचार की वारदातें कम होती हैं. मुलायम सिंह के इस बयान ने विस्फोटक का काम किया. महिला संगठन आग बबूला हो गए. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने डैमेज कंट्रोल के तहत महिला के दोनों बच्चों के नाम पर दस-दस लाख रुपये की एफडी और उनकी इंटर तक की मुफ्त पढ़ाई की घोषणा तो कर दी, लेकिन उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा. जानकार कहते हैं कि महिलाएं ही नहीं, चुनाव के दौरान अल्पसंख्यक वोटरों को लुभाने के चक्कर में दिए गए नेता जी के कुछ विवादित बयानों के चलते हिंदू वोटर, जिनमें बड़ी संख्या यादवों की थी और जो हमेशा मुलायम का आंख मूंद कर समर्थन करते थे, उनसे दूर चले गए. मुलायम के स्वभाव में आए बदलाव से उन्हें क़रीब से जानने वाले भी हैरान हैं. अब वह (मुलायम) चुनावी समर में रणवीर की तरह खड़े नहीं दिखते, बल्कि याचक (अखिलेश को सीएम बना दिया, मुझे भी पीएम बना दो) की भूमिका में नज़र आते हैं. मुलायम की गंभीरता कहीं खो गई है.
एक समय था, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव कभी अपने विरोधियों के बारे में या फिर जनता के बीच बोलते समय असंसदीय नहीं हुआ करते थे, वह काफी सोच-समझ कर भाषा का चयन करते थे और राजनीतिक मतभेदों को उन्होंने कभी व्यक्तिगत जीवन पर हावी नहीं होने दिया. शायद इसी वजह से सभी दलों में उनके शुभचिंतक मिल जाते हैं. यहां तक कि अपनी धुर विरोधी बसपा प्रमुख मायावती की मुंहफट बयानबाजी को भी नेता जी सहज पचा जाते थे, लेकिन बीते लोकसभा चुनाव में उन्होंने सभी मर्यादाएं भुलाते हुए मायावती पर विवादित टिप्पणी यह कहकर कर दी, हम मायावती को क्या कहें, श्रीमती या कुंवारी बेटी या बहन. मुलायम के इस बयान के बाद बसपा ने खूब खरी-खोटी सुनाई थी. उधर समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि नेता जी ने कुछ गलत कहा था. उल्टे वह आरोप लगाते हैं कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार और जनता के विरुद्ध इन दिनों सुनियोजित ढंग से दुष्प्रचार हो रहा है. प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की स्थिति को लेकर तमाम तरह की भ्रामक बातें प्रचारित की जा रही हैं. बसपा तो खैर सत्ता खोने के दिन से ही बौखलाई हुई है और उसका एक सूत्रीय कार्यक्रम समाजवादी सरकार को बदनाम करना और उसे बर्खास्त कराना रह गया है. वह कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में जीत के बाद से भाजपा अपने होश खो बैठी है और जल्द से जल्द सत्ता हथिया लेने का स्वप्न देखने लगी है. कांगे्रस सब कुछ गंवाने के बाद और कोई रास्ता न सूझने के कारण भाजपा-बसपा के साथ सुर-ताल मिला रही है.
सपा नेता चौधरी कहते हैं कि समाजवादी सरकार द्वारा क़ानून व्यवस्था के प्रति पूर्ण सतर्कता बरती जाती है. इस पर भी झूठे आंकड़ों के सहारे अनर्गल बयानबाजी करके जनता को बरगलाने की साजिशें चल रही हैं. सपा नेताओं के बयानों को तोड़-मरोड़ कर और संदर्भ से अलग पेश करके माहौल खराब किया जाता है. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के बयानों को इधर कुछ ज़्यादा ही गलत ढंग से प्रचारित किया गया. मुलायम सिंह को राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर, विवेकशील एवं संतुलित विचारधारा वाले जननेता के रूप में शुमार किया जाता है. महिलाओं को वह अत्यधिक सम्मान देते हैं. दुष्कर्म की शिकार महिलाओं को त्वरित न्याय मिले, इसके वह पक्षधर हैं. उनके किसी बयान का आशय न तो किसी अपराध को कमतर बताना है और न नारी जगत के प्रति अवमानना दिखाना है. भाजपा के कई नेता बसपा नेताओं की तरह क़ानून व्यवस्था के बारे में गलत बयानी कर रहे हैं और उनके बयानों में धमकी का पुट रहता है.
दरअसल, सच तो यह है कि नेता जी यानी मुलायम सिंह की वाणी पर कोई लगाम नहीं लगा सकता. वजह साफ़ है कि आज भी सपा का मतलब मुलायम सिंह और मुलायम सिंह का मतलब समाजवादी पार्टी है. फिर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का नेता जी के बयानों के प्रति असहमति जताना इसलिए भी मुश्किल है, क्योंकि दोनों के बीच स़िर्फ राजनीतिक नहीं, पारिवारिक संबंध भी है. वर्ना कोई मुख्यमंत्री यह थोड़े सुन सकता है कि वह चाटुकारों से घिरा हुआ है. अखिलेश के पास नेता जी के बयानों को मुस्कुरा कर टाल देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. वह (अखिलेश) ऐसा कई बार कर भी चुके हैं. वैसे, समाजवादी पार्टी में नेता जी अकेले ऐसे शख्स नहीं हैं, जो विवादित बयानों से सुर्खियां बटोरते रहते हैं. राज्यसभा सदस्य नरेश अग्रवाल, राम गोपाल यादव, शिवपाल यादव, आजम खां एवं राजेंद्र चौधरी जैसे नेता भी अपने विवादित बयानों के कारण समय-समय पर सुर्खियां बटोरते रहते हैं. आजम खां का भारत माता को डायन कहने वाला बयान हो या फिर नरेश अग्रवाल का मोदी को लेकर दिया गया बयान कि एक चाय वाला पीएम नहीं बन सकता, ने सपा को लोकसभा चुनाव में काफी नुक़सान पहुंचाया. सपा के एक अन्य नेता राम गोपाल यादव बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि के लिए टीवी में दिखाई जाने वाली अश्लीलता और हिंसा को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. सपा नेता एवं अखिलेश कैबिनेट के मंत्री शिवपाल पाल यादव को लगता है कि इसके लिए मीडिया ज़िम्मेदार है. महाराष्ट्र के सपा नेता अबू आजमी इस्लाम का हवाला देते हुए बलात्कारी को फांसी की सजा दिए जाने की बात तो करते हैं, लेकिन उन्हें इस बात की शिकायत रहती है कि स़िर्फ पुरुषों को सजा क्यों दी जाती है, महिलाओं का कुछ नहीं होता है.
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि विवादित बयानों से सुर्खियां बटोरना नेताओं का हथकंडा बन गया है. अगर ऐसा न होता, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बलात्कार की घटनाओं के संदर्भ में अपने नेताओं को यह नसीहत न देनी पड़ती कि वे ऐसी घटनाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की बजाय अपना मुंह बंद रखें. मोदी ने यह बात संसद में कही. उनका संदेश स़िर्फ भाजपा नहीं, बल्कि सभी दलों के नेताओं के लिए था. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि एक तरफ़ तो संसद एवं विधानसभाएं महिलाओं की बेहतरी और सुरक्षा के लिए नित नए-नए क़ानून बना रही हैं, वहीं उसके नुमाइंदे महिलाओं को लेकर उल्टे-सीधे बयान देते हैं. कभी उनके पहनावे पर उंगली उठाई जाती है, तो कभी उनकी आज़ादी पर सवाल खड़े किए जाते हैं. अफ़सोस की बात यह है कि कई मौक़ों पर महिलाओं के बारे में अदालतों का नज़रिया भी काफी संकुचित दिखता है. मुंबई हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने कुछ समय पूर्व तलाक के एक मामले की सुनवाई के दौरान यहां तक कह दिया कि महिलाओं को सीता की तरह हर हाल में पति का साथ देना चाहिए. वहीं कर्नाटक हाईकोर्ट की एक जज ने पारिवारिक झगड़े के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अगर पुरुष अपनी स्त्री को मारता है, तो उसकी शिकायत महिला को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आख़िर वह (पुरुष) उसकी सभी ज़रूरतें भी तो पूरी करता है.
महिलाओं के प्रति नेताओं एवं अदालतों की ऐसी विवादित टिप्पणियों से ही खाकी वर्दी वालों के हौसले बुलंद रहते हैं. महिलाएं अपने उत्पीड़न की शिकायत करने के लिए पुलिस के पास जाने में कतराती हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि पुलिस बलात्कार जैसी घटनाओं, जिनमें पीड़ित का सब कुछ तबाह हो जाता है, को लेकर इसलिए गंभीर नहीं हो सकती, क्योंकि वह बलात्कार को रूटीन की घटना मानती है. ऐसी सोच रखने वाला अगर पुलिस का हाकिम हो, तो उसका असर पूरी खाकी कौम पर पड़ता है.
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