काले धन और कांग्रेस पार्टी के मुद्दे पर जितनी जल्दी कोई समाधान निकले, उतना ही अच्छा होगा. काले धन को वहां से निकालने के लिए क्या सुझाव है, इसके बारे में काफी कम सुना गया है और इसकी जगह सारा फोकस काले धन के मालिकों के नाम पर है. मान लीजिए, नाम सामने आ गए, तो आप क्या करेंगे? अन्य देश का क़ानून ऐसे लोगों के नाम या खातों की सुरक्षा करता है. मैं सोचता हूं कि अर्थशास्त्रियों, विचारकों एवं वित्तीय विशेषज्ञों को काला धन वापस लाने के तरीके बताने चाहिए. कितना पैसा है, यह हमें नहीं मालूम, लेकिन उस पैसे को हम कैसे देश में ला सकते हैं, कैसे उसे अपनी अर्थव्यवस्था में लगा सकते हैं, यह सवाल है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह एक अजीब बयान है. उन्होंने कहा है कि जल्द ही सरकार विदेशों में जमा काले धन के बारे में कुछ नामों का खुलासा करेगी. वित्त मंत्री ने भी ऐसा ही कहा है. यह एक अच्छी सरकार या प्रशासन के लिए शुभ संकेत नहीं है. यह एक गंभीर मामला है. चुनाव अभियान में ऐसा कुछ कहना एक और बात है, लेकिन अब आप लोगों की शक्ति के संरक्षक हैं. अगर आपके पास विश्वसनीय जानकारी है, तो आप यह बताइए कि क्या आवश्यक कार्रवाई कर रहे हैं, न कि ऐसी धमकी, घोषणा या वादे करने की ज़रूरत है. आपको क़ानून के अनुसार कार्य करना चाहिए. असांजे की तर्ज पर बाज़ार में उड़ते नामों के रहस्योद्घाटन करने की बात का कोई अर्थ नहीं है. कोई कुछ भी कह सकता है. किसी भी आंकड़े की बात की जा सकती है. इससे भी अधिक दु:खद बयान वित्त मंत्री ने दिया है कि नामों के खुलासे से कांग्रेस शर्मिंदा हो जाएगी. एक वित्त मंत्री को इस तरह बात नहीं करनी चाहिए. उनकी चिंता यह नहीं है कि कौन शर्मिंदा होगा और कौन शर्मिंदा नहीं होगा. उन्हें इस मसले पर क़ानून के मुताबिक गंभीर तरीके से आगे बढ़ना चाहिए. पांच-छह महीने में पहली बार सरकार ने इस विषय से निपटने में ज़िम्मेदार व्यवहार नहीं दिखाया है. बेशक यह विषय जनता की भावना से जुड़ा हुआ है और कई सालों से विदेशों में जमा काला धन देश में वापस लाए जाने की मांग उठती रही है.
मुझे आशंका है कि सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ एक हेट कैंपेन उनके विदेशी मूल की वजह से चल रहा है. मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि उन्हें भारत की क्या समझ है. ऐसे लोग पूरी तरह से ग़लत हैं. सोनिया गांधी ने 15 सालों तक कांग्रेस पार्टी को एक मजबूत नेतृत्व दिया है. दो बार उन्होंने केंद्रीय सरकार के चुनाव में जीत हासिल की है. वे यह चुनाव हार गए हैं, स़िर्फ इसलिए लोग ऐसी बहुत-सी बातें कह रहे हैं. यह एक लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. लोकतंत्र में हमें एक सत्तारूढ़ पार्टी की ज़रूरत होती है और एक विपक्ष की ज़रूरत होती है तथा दोनों का विश्वसनीय और मजबूत होना ज़रूरी है.
जदयू के शरद यादव का इस मसले पर एक अलग विचार है. उन्होंने कहा कि विदेश में जमा काला धन लाने की बात तो ठीक है, लेकिन भारत में जो पैसा कॉरपोरेट्स ने बैंक से लेकर नहीं लौटाया है और जो यह सफेद पैसा उनके पास बाकी है, उसका क्या? क्या वह पैसा हम वापस नहीं ले सकते या बैंकों ने उस एनपीए रकम को ख़त्म मान लिया है? यह उचित सवाल है. हमें जिस पैसे के बारे में पता ही नहीं है, उसके लिए इतने चिंतित हैं! ैएनपीए की समस्या हल करने के लिए वास्तव में बहुत कम काम किया गया है. एनपीए धनराशि अपने अधिकतम स्तर पर है और लगातार बढ़ती जा रही है. अगर इसका सही समाधान नहीं निकलता है, तो यह बैंकों के लिए भी नुक़सानदायक होगा. वित्त मंत्रालय को कुछ विश्वसनीय उपायों के साथ आगे आना होगा, ताकि इस विशाल धनराशि, क़रीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये, को वापस पाने के लिए एक समाधान खोजा जा सके.
एक और अलग सवाल है. आज हर कोई कांग्रेस पार्टी को लेकर, उसके नेतृत्व में बदलाव की ज़रूरत को लेकर चिंतित होने लगा है. मुझे नहीं मालूम कि यह सवाल कैसे उठा. कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार गई और बहुत जल्द ही महाराष्ट्र एवं हरियाणा चुनाव में भी असफलता हाथ लगी. यह सही है कि भाजपा ने महाराष्ट्र एवं हरियाणा में अच्छा प्रदर्शन किया. इसमें आश्चर्य की बात नहीं है. ऐसा होने की उम्मीद थी. जनता का दिमाग तीन या छह महीनों में नहीं बदलता. कांग्रेस 100 वर्षों की एक बहुत पुरानी पार्टी है. मुझे लगता है, वह अपने तरीके से अपना रास्ता निकाल लेगी और चिदंबरम ने सही कहा है कि अभी हम गांधी परिवार की बात कर रहे हैं, लेकिन एक दिन एक ग़ैर-गांधी भी पार्टी प्रमुख हो सकता है. हो सकता है, ऐसा हो, आख़िर कौन जानता है? लेकिन, मैं यह नहीं समझ पा रहा कि ग़ैर-कांग्रेसी लोग इस समस्या में अपना दिमाग क्यों लगा रहे हैं? मुझे आशंका है कि सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ एक हेट कैंपेन उनके विदेशी मूल की वजह से चल रहा है. मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि उन्हें भारत की क्या समझ है. ऐसे लोग पूरी तरह से ग़लत हैं. सोनिया गांधी ने 15 सालों तक कांग्रेस पार्टी को एक मजबूत नेतृत्व दिया है. दो बार उन्होंने केंद्रीय सरकार के चुनाव में जीत हासिल की है. वे यह चुनाव हार गए हैं, स़िर्फ इसलिए लोग ऐसी बहुत-सी बातें कह रहे हैं. यह एक लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. लोकतंत्र में हमें एक सत्तारूढ़ पार्टी की ज़रूरत होती है और एक विपक्ष की ज़रूरत होती है तथा दोनों का विश्वसनीय और मजबूत होना ज़रूरी है. कांग्रेस पार्टी फिर से काम करेगी और मुझे लगता है, अगर ऐसा होगा, तो यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी होगी. मुझे यकीन है कि आने वाले वर्षों में ऐसा होगा. लेकिन, अगर एक ऐसा ट्रेंड बन जाए, जहां समूची जनता की राय भाजपा के पक्ष में चली जाए और ऐसे लोग भी, जो सेकुलर या मॉडरेट हैं, स़िर्फ इस वजह से ऐसा ही करने लगें, तो इसे लोकतांत्रिक ट्रेंड कतई नहीं माना जा सकता. यह एक लोकतांत्रिक माइंड सेट नहीं हो सकता.
काले धन और कांग्रेस पार्टी के मुद्दे पर जितनी जल्दी कोई समाधान निकले, उतना ही अच्छा होगा. काले धन को वहां से निकालने के लिए क्या सुझाव है, इसके बारे में काफी कम सुना गया है और इसकी जगह सारा फोकस काले धन के मालिकों के नाम पर है. मान लीजिए, नाम सामने आ गए, तो आप क्या करेंगे? अन्य देश का क़ानून ऐसे लोगों के नाम या खातों की सुरक्षा करता है. मैं सोचता हूं कि अर्थशास्त्रियों, विचारकों एवं वित्तीय विशेषज्ञों को काला धन वापस लाने के तरीके बताने चाहिए. कितना पैसा है, यह हमें नहीं मालूम, लेकिन उस पैसे को हम कैसे देश में ला सकते हैं, कैसे उसे अपनी अर्थव्यवस्था में लगा सकते हैं, यह सवाल है. इसके लिए हमें विशेषज्ञों की राय चाहिए, इसके लिए राजनेताओं की ज़रूरत नहीं है.