मार्च 1999 में हुए सेनारी नरसंहार के बाद राज्य ही नहीं पूरा देश इस हृदय विदारक घटना से सदमे में आ गया था. बिहार के जहानाबाद जिले के सेनारी गांव में प्रतिबंधित नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के दस्ते ने जिस नृषंस तरीके से गला रेतकर लोगों की हत्या की थी, उसने सबको झकझोर कर रख दिया था. इस घटना के 17 साल बाद अब जाकर सेनारी नरसंहार के 15 आरोपियों में से 11 को फांसी की सजा तथा 3 को आजीवन कारावास की सजा मिली है.
सेनारी के अधिकतर ग्रामीण दोषियों को मिली सजा पर संतोष तो व्यक्त कर रहे हैं, परंतु देर से मिले न्याय और अधिकतर आरोपियों को छोड़ दिये जाने के कारण उनके मन में नाराजगी है. चौथी दुनिया से बात करते हुए ग्रामीणों ने कहा कि इस घटना में 100 से अधिक हथियारबंद लोगों ने 34 पुरूषों को घर-घर से निकालकर निर्ममता से उनकी हत्या कर दी थी.
यह आश्चर्य की बात है कि सिर्फ 15 लोग ही दोषी माने गए हैं. ग्रामीण बताते हैं कि 18 मार्च 1999 की उस काली रात को याद कर आज भी मन सिहर उठता है. सेनारी की मुखिया सीता देवी बताती हैं कि इनके ससुर परिक्षण शर्मा भी इसमें मारे गये थे.
जिस तरीके से नक्सलियों ने घटना को अंजाम दिया था, उसे देख सुनकर कोई भी सिहर उठता. नक्सलियों के उस हमले में जिंदा बचे ग्रामीण मोहन ने बताया, उस रात का खौफनाक मंजर आज भी आंखों के सामने घूम रहा है. नक्सलियों ने मुझे मरा समझकर गड्ढे में फेंक दिया था.
नक्सली एक-एक कर गांव के लोगों की गर्दन रेत रहे थे और मेरे शरीर पर लाश का ढेर बनता जा रहा था. ऊपर वाले की कृपा थी कि लाश में दबे होने के बावजूद मेरा दम नहीं घुटा. इस नरसंहार में नक्सलियों ने मोहन के अन्य संबधियों के साथ उसके चचेरे भाई परिक्षित और नन्दलाल की भी गला रेतकर हत्या कर दी थी.
सेनारी के ग्रामीण 15 नवम्बर 2016 की सुबह से ही फैसले का इतंजार कर रहे थे. पीड़ितों के घर में सन्नाटा पसरा था. इन लोगों का गुस्सा सरकार के प्रति था. इनका सवाल था कि फैसला आने में 17 साल क्यों लग गये. यदि सरकार और पुलिस प्रशासन तत्परता से काम करती, तो स्पीडी ट्रायल चलाकर इस मामले में बहुत पहले ही फैसला आ जाता.
पूर्व मुखिया कमलेश शर्मा के दरवाजे पर बड़े बुर्जुगो का मजमा लगा था. वहीं दूसरी ओर पैक्स अध्यक्ष मुकेश कुमार के यहां भी गांव के युवा बैठकर फैसले पर चर्चा कर रहे थे. गांव की महिलाएं भी जगह-जगह बैठकर इस फैसले पर चर्चा करती नजर आयी.
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हालांकि इस फैसले को सुनने के लिए गांव से कोई भी ग्रामीण जहानाबाद कोर्ट नहीं गया था. नरसंहार में पति रामश्लोक शर्मा और बेटे संजीव को खो चुकी ब्रम्हा देवी ने कहा कि घटना में नक्सली मेरे पति व बेटे को घर से खींचकर कर ले गये थे.
पीछे-पीछे हम भी ठाकुरवाड़ी तक गये थे. चारों तरफ मौत अपना खेल खेल रही थी. नक्सली वहां बड़ी संख्या में हमारे गांव के लोगों को हाथ बांधकर रखे हुए थे. ग्रामीण गोपाल शर्मा ने कहा कि मेरे भी दो चचेरे भाई बिमलेश कुमार और अमरेश कुमार की हत्या कर दी गई, पूरा परिवार टूट चुका है.
मुकेश कुमार ने बताया कि नक्सलियों ने हमारे चाचा तथा छोटे भाई को भी मार डाला. अभी भी हमारे परिवार के लोग सदमें से उभर नही पाये हैं. ठीक है जिन लोगों के खिलाफ सुनवाई हुई और इन्हें सजा मिली, लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में आरोपी फरार हैं.
इस घटना में संजय शर्मा के दो चचेरे भाईयों की हत्या कर दी गई थी. उन्होंने कहा, यह सही है कि वे लोग लौट कर नहीं आ सकते, लेकिन फैसले से संतुष्ट हुआ कि हत्यारों को उचित सजा मिली. इसी प्रकार अन्य ग्रामीणों ने भी फैसले को उचित तो बताया, लेकिन पुलिस प्रशासन की लापरवाही से बच गये आरोपियों को भी सजा देने की मांग सरकार से की.
संयोग की बात है कि जब नरसंहार हुआ था तब भी घटना के कवरेज के लिए हमने सेनारी गांव का दौरा किया था. तब सेनारी के ग्रामीणों में नेताओं और पत्रकारों के प्रति भारी आक्रोश था. पत्रकारों द्वारा अगड़ी जाति के लोगों को किसी मामले में दबंग लिखे जाने पर ग्रामीण नाराज थे. उनका मानना था कि नेता नरसंहार कराकर राजनीति कर रहे हैं.
उस समय यह गांव जहानाबाद से भाकपा के पूर्व सांसद रामश्रय सिंह का समर्थक माना जाता था. ग्रामीणों का कहना था कि रामाश्रय सिंह भाकपा के होते हुए भी कोई जातीय या वोट की राजनीति नहीं करते हैं. 20 मार्च 1999 को जब नेताओं का जमावड़ा गांव में लगा, तो सबसे अधिक आक्रोश का सामना लवली आनंद को करना पड़ा था.
तब वह समता पार्टी छोड़कर तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी में शामिल हुए थे. इस बात पर ग्रामीणों में आक्रोश था. ग्रामीणों का आरोप था कि गांव में हुए नरसंहार को अंजाम देने वाले संगठन की संरक्षक सरकार है. आज यह गांव उस नरसंहार मारे गये अपने 34 लोगों की याद में प्रतिवर्ष शहीद स्मारक पर पुष्पाजंलि अर्पित करता है.