राहुल गांधी विचारधाराओं की लड़ाई के बाद के राजनीतिज्ञ हैं. यदि कुछ लोग सोचते हैं कि वह समूह विशेष को उपदेश पिला रहे हैं तो इसका सीधा मतलब है कि वह कुछ चूक कर रहे हैं. मतदाताओं का एक बड़ा तबका मज़हबी मुद्दों से अब ऊब चुका है. राहुल गांधी अपनी यात्राओं के पीछे एक सुखद अहसास छोड़ जाते हैं. ज़रा इन्हीं बातों की तुलना उनके चचेरे भाई वरुण से कीजिए, उनका यह मानना है कि बी-ग्रेड अभिनय, स्टार बनने का एक मु़फीद रास्ता है.
लेकिन विचारों के प्रति उदासीनता आपको विचारकों के प्रति उदासीन बना सकती है. मसलन, पाकिस्तान महज़ जमीन का एक टुकड़ा भर है. साथ ही यह एक सशक्त अवधारणा है कि 1947 में मुसलमान, हिंदुओं से और 1971 में मुसलमानों से अलग हुए. और, अब वे एक ख़तरनाक गृहयुद्ध को भड़का रहे हैं, जो संक्रामक साबित हो सकता है. पाकिस्तानी संघर्ष का मूल सिद्धांत राज्य की अवधारणा रही है. हर पाकिस्तानी इस बात से सहमत है कि उसका देश एक इस्लामिक देश होना चाहिए, लेकिन इसका मतलब क्या है, इसे कोई नहीं समझता है. आज हालात ऐसे हैं कि सारी चर्चाएं हवाई हमलों, सड़कों पर बम विस्फोटों, टैंक, मशीन गन्स और आत्मघाती मिशन को लेकर की जा रही हैं. स्वाभाविक तौर पर इस्लामाबाद के पास हकीमुल्लाह महसूद जैसी व्याख्याएं नहीं हैं, जिसने एक पाकिस्तानी चैनल को बताया कि हम एक इस्लामिक मुल्क चाहते हैं, यदि हम इसमें कामयाब हुए तो इसके बाद हम भारतीय सीमाओं पर जाएंगे और भारत के ख़िला़फ लड़ने में मदद करेंगे. उनके इस्लामिक राज्य के मानचित्र में कश्मीर घाटी भी शामिल है. सेना और तालिबान में इस मानचित्र पर पूरी सहमति है और जब इन दोनों को एक-दूसरे को ख़त्म करने के मिशन से फुर्सत मिलती है तो कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की परियोजना पर ये एक-दूसरे की मदद भी करते हैं.
हालांकि यह अब किताबी बातें ही रह गई हैं, जिस ओर मौलाना आज़ाद जैसे विद्वानों ने इशारा भी किया है कि राष्ट्रवाद के लिए विश्वास कभी भी कोई मापदंड नहीं रहा. सीधी सी बात है कि अरब जनता 22 देशों में फैली है. इससे साबित होता है कि मज़हब को किसी राज्य की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है.
हम भारतीय भू-राजनीति के सत्ता केंद्रित विचारों से का़फी आकर्षित होते हैं कि आकार ही शक्ति का सूचक है. जबकि यह हमारे ऐतिहासिक अनुभव से कतई मेल नहीं खाता है. आख़िर जब ब्रिटेन ने दुनिया के कई देशों पर अपना क़ब्ज़ा किया तो वह कितना बड़ा था?
महज़ चंद हज़ार ब्रिटिश नागरिक और सेना ने 300 मिलियन भारतीयों पर शासन किया. ऐसा करने के लिए उन्हें कोई डब्ल्यूडब्ल्यूएफ पहलवान होने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी.
आज भारतीय राज्य को बाह्य तौर पर धार्मिक राष्ट्रवाद से ख़तरा है, जो अब आंतरिक ख़तरे की भी शक्ल लेता जा रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह है, साधनहीन लोगों में असंतोष की भावना. और, जबसे आर्थिक विकास की मलाई ऊंचे तबके को मिल रही है, तबसे इसने हिंसा की शक्ल अख्तियार कर ली है. राइज़िंग इंडिया ने ट्रिकल-डाउन सिद्धांत (इसके तहत उद्योगपतियों को टैक्स चुकाने में इस आधार पर छूट दी जाती है कि अप्रत्यक्ष तौर पर इसका लाभ बड़ी आबादी तक पहुंचेगा) के आधार पर वादा किया कि विकास का लाभ सभी लोगों तक पहुंचेगा, लेकिन विकास का यह रिसाव बहुत ही कम हुआ. दरअसल इसका लाभ उठाने वाली संस्कृति को व्यापक तौर पर परिभाषित किया गया है. आर्थिक सुधारों के 17 वर्षों बाद भी ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की तादाद 28 से बढ़कर 38 फीसदी पर पहुंच चुकी है. समाज में हाशिए पर रहने वाले और बेघर लोगों को शामिल करें तो भारत की आधी से भी अधिक आबादी भूखी और हताश सोती है.
कांग्रेस, बीजेपी और सीपीएम नक्सलियों के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई के लिए निर्विरोध रूप से सर्वसम्मति पर पहुंच चुके हैं, क्योंकि ग़रीबी दूर करने के लिए उनके पास राहत की योजना और रणनीति के तौर पर हिंसा को अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इसके लिए उनके पास कुंठित 300 मिलियन खाते-पीते भारतीयों का समर्थन है. इसीलिए अक्टूबर के महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों में लोगों का गुस्सा सत्ता प्रतिष्ठानों के ख़िला़फ दिखा भी. वे या तो वोट की राजनीति से बाहर रहने या अतिवादी और कट्टरवादी संगठनों की तलाश कर रहे थे.
आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाए हुए थी, लेकिन जब साठ के दशक में इसका बिखराव शुरू हुआ तो इसने शासन स्तर पर व्यापक दरारें पैदा कर दीं, जिससे सत्ता के शीर्ष स्तर पर गठबंधन की अव्यवस्था पैदा हो गई. फिलहाल हम सभी इसके विपरीत हालात देख रहे हैं कि जबसे विपक्षी पार्टियां ग़रीबों के लिए सकारात्मक माहौल बनाने में नाकाम रही हैं, तबसे हमें विपक्ष का बिखराव ही नज़र आता है. और, ज़मीनी स्तर पर अस्थिरता की यही वजह भी नज़र आती है. चाहे वह वृहद नक्सली चुनौती हो या राज ठाकरे जैसे क्षेत्रीय स्तर के उन्मादी लोगों का मसला.
संभवत: हथियारों से लैस और असंवेदनशील राज्य नक्सलियों से युद्ध जीत भी लेंगे, लेकिन ऐसा वे राष्ट्र को कमज़ोर करने की क़ीमत पर ही कर सकते हैं. कमज़ोरी, वैचारिक शत्रुओं के साथ-साथ अवसरवादियों के लिए एक अवसर है. क्या चीन नक्सलियों को अपनी मदद देकर अपना प्रभाव भारत के अंदर और इसके इर्द-गिर्द बढ़ा सकता है? चीनियों ने विनम्रतापूर्वक माओ को देवतुल्य बना दिया, जबकि माओवाद को ख़ारिज़ कर दिया. ठीक उसी तरह जैसे हम गांधी की तो पूजा करते हैं, लेकिन गांधीवाद को नकार चुके हैं. चीन विचारधारा की अपेक्षा अवसरवाद से अधिक प्रेरित होगा, लेकिन कोई भी फुटबॉल खिलाड़ी आपको बता सकता है कि एक बेहतर अवसरवादी गोल करता है. इससे भी बढ़कर, क्रांति की अपेक्षा रबड़ की गुड़िया निर्यात करना कहीं अधिक आसान है. बहरहाल, चीन में भारत को अस्थिर करने की कोई अनिच्छा नहीं होगी तो क्या हमें बढ़ती असमानता के बोझ तले लड़खड़ा कर चलने की ज़रूरत है. किसी राष्ट्र की मज़बूती के लिए उसकी भौगोलिक संरचना की अपेक्षा कई और लक्षण होते हैं. यदि शीर्ष पदों पर क़ाबिज़ नए महत्वाकांक्षी लोग यह नहीं समझते हैं तो वे न तो अपनी और न ही देश के हितों की सेवा कर पाएंगे.