यादव सिंह के अड्डों पर हुई तलाशी के दो-चार दिनों पहले एक प्रख्यात कॉरपोरेट प्रतिष्ठान के नोएडा एवं दिल्ली स्थित ठिकानों पर आयकर और प्रवर्तन विभाग के अधिकारियों ने छापा मारकर सैकड़ों करोड़ रुपये नकद व महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बरामद किए थे. बरामद की गई नकदी और दस्तावेज़ों के लिंक यादव सिंह से मिले और फौरन यादव सिंह को दबोच लिया गया. पैसे कमाने वाले और पैसे खपाने वाले मिले हुए हैं. नेता, अफसर और दलाल मिलकर देश का धन लूट रहे हैं और व्यवसायिक प्रतिष्ठान उस धन को खपाने का ज़रिया बने हुए हैं. कौन हटा देगा इस देश से भ्रष्टाचार? भ्रष्टाचार हटाने के लिए नेता, नौकरशाह, दलाल और पूंजीपशुओं की जकड़न तोड़नी होगी. कौन तोड़ेगा इसे? यह सवाल देश के आम आदमी का है.
यादव सिंह प्रकरण उजागर हुआ और पूरे देश ने जाना कि भ्रष्टाचार किस कदर हुआ, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार मासूम बनी रही. नोएडा के भ्रष्ट इंजीनियर यादव सिंह को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने निलंबित करना ज़रूरी नहीं समझा, जबकि अब तक उसकी गिरफ्तारी हो जानी चाहिए थी. ख़बर लिखे जाने तक न तो उसका निलंबन हुआ था और न गिरफ्तारी. सरकार की मौलिक कार्यप्रणाली यही है, बाकी सब धोखेबाजी है. आयकर विभाग के छापों में अरबों की काली कमाई पकड़े जाने के बावजूद राज्य सरकार भ्रष्टाचार का मामला दर्ज नहीं करती. पूर्व मुख्य सचिव नीरा यादव रही हों या अखंड प्रताप सिंह या मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाहों की जमात, सपा सरकार ऐसे ही लोगों को संरक्षण देती रही है. बसपा ने भी ऐसे ही कीर्तिमान बनाए हैं. यादव सिंह तो भ्रष्टाचारी तंत्र का एक पुर्जा है, जिसे बसपा सरकार ने पाला-पोसा और सपा सरकार ने निलंबन का करंट लगाकर उसे साधा और फिर काम पर लगा दिया. प्रदेश में बसपा की सरकार रही हो या सपा की, यादव सिंह ने अपनी पसंद के मुताबिक अपनी तैनातियां कराईं. यह भी कह सकते हैं कि व्यवस्था ने अपनी सुविधा के मुताबिक यादव जैसे खटमल को धन रिसने वाली जगहों पर तैनात किया. इसीलिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण कामों पर यादव सिंह का एकाधिकार था. सपा सरकार ने कुछ दिनों के लिए भृकुटी तानी, लेकिन जब यादव ने तनी भृकुटी का आशय समझ लिया, तो सब ठीक हो गया.
सपा के एक वरिष्ठ नेता की सक्रिय पहल पर यादव सिंह को 17 माह में ही बहाल कर दिया गया. निलंबन के बाद उसे पहले नोएडा, फिर ग्रेटर नोएडा और फिर यमुना एक्सप्रेस-वे जैसी तीन महत्वपूर्ण अथॉरिटी का मुख्य अभियंता बना दिया गया.
एनसीआर क्षेत्र की ये तीनों सबसे प्राइम पोस्टिंग मानी जाती हैं, जिन पर वह अकेले पद-स्थापित था. उल्लेखनीय है कि सत्ता में आते ही सपा सरकार ने यादव सिंह पर विभागीय जांच बैठाकर उसे निलंबित कर दिया था. उस पर नोएडा के सेक्टर-39 थाने में विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज हुआ था और सीबीसीआईडी जांच भी कराई गई थी, लेकिन नवंबर 2013 में यादव सिंह का निलंबन अचानक वापस हो गया. सीबीसीआईडी जांच भी समाप्त हो गई. सीबीसीआईडी ने यादव सिंह पर लगे आरोप सत्य से परे पाए और जांच बंद कर दी. व्यवस्था का सत्य यही है. सिस्टम इस कदर सड़ा हुआ है कि योग्यता एवं ईमानदारी उपेक्षा का शिकार है और जूनियर इंजीनियर पद से नौकरी शुरू करने वाला एक भ्रष्ट शख्स मुख्य अभियंता जैसे शीर्ष पद पर पहुंच जाता है. औद्योगिक विकास प्राधिकरण में तो उसने खुद इंजीनियर इन चीफ का पद सृजित कराया और उस पर आसीन हो गया. नोएडा अथॉरिटी और ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी दोनों ही उसके मातहत कर दी गईं. उसके बाद दोनों अथॉरिटी से जितने भी काम दिए गए, सभी यादव सिंह के इशारे पर दिए गए.
लोग कहते हैं कि यादव सिंह के कारनामे उजागर होने के बाद सफेदपोशों के नाम भी उजागर होंगे, लेकिन यह केवल कहने-सुनने की बातें हैं. असलियत यही है कि सफेदपोशों (असली) के नाम कभी उजागर नहीं होंगे. सपा सरकार में यादव सिंह की तैनाती करोड़ों रुपये के चंदे के बूते हुई. अब इसे चंदा कहें या रिश्वत. भ्रष्टाचार विधा के कलाकार यादव सिंह की तैनाती इतनी ज़रूरी थी कि उसके लिए नौकरशाहों, इंजीनियरों एवं ठेकेदारों ने करोड़ों रुपये का चंदा इकट्ठा किया था. चंदे का पूरा ब्यौरा दिल्ली के पंजाब नेशनल बैंक के एक लॉकर से मिला है. दिल्ली, गाज़ियाबाद और नोएडा से ही उसके दर्जनों लॉकर सील किए गए हैं. एक लॉकर से 40 कंपनियों के दस्तावेज़ भी मिले हैं. वे कंपनियां कौन हैं और उनका यादव सिंह के काले धन से क्या लेन-देन था, इसका गहराई से खुलासा शायद ही कभी हो पाए. इन्हीं कंपनियों में से किसी एक के निदेशक से एक डायरी भी जब्त की गई, जिसमें तमाम देनदारों-लेनदारों के नाम-नंबर दर्ज हैं, लेकिन इसका भी खुलासा न अभी हुआ है और न कभी होगा. 40 कंपनियों में से केवल चार के निदेशकों का नाम सार्वजनिक किया गया, जो मामूली थे, जिनके उजागर होने से सिस्टम पर कोई फ़़र्क नहीं पड़ता.
नोएडा में सबसे ज़्यादा घोटाला प्लॉट आवंटन में किया गया. प्लॉट आवंटन में सबसे ज़्यादा गड़बड़ी मुलायम और मायावती के कार्यकाल में हुई. नियमों को ताक पर रखकर अनाप-शनाप तरीके से आवासीय एवं व्यवसायिक प्लॉट आवंटित कर दिए गए. इसमें अफसरों एवं नेताओं ने करोड़ों-अरबों रुपये कमाए.1994 में नोएडा में प्लॉट आवंटन में गड़बड़ी करने के आरोप में तत्कालीन सीईओ नीरा यादव और डिप्टी सीईओ राजीव कुमार को सीबीआई की अदालत ने 2012 में तीन-तीन साल की सजा सुनाई थी. उन्हीं नीरा यादव को मुलायम की सरकार में मुख्य सचिव बनाया गया था. नीरा यादव तो रिटायर हो चुकीं, लेकिन वही स्वनामधन्य राजीव कुमार अखिलेश सरकार में प्रमुख सचिव की हैसियत से ताकतवर नौकरशाह के रूप में पद-स्थापित हैं. घोटालों और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सरकारें नाकाम इसलिए रही हैं, क्योंकि वे स्वयं इनमें शामिल रही हैं. उत्तर प्रदेश में भी यही हुआ. इसी वजह से प्रदेश की जांच एजेंसियों ने अपना औचित्य खो दिया, उनकी कोई विश्वसनीयता नहीं रही. आएदिन करोड़ों-अरबों रुपये के घोटाले सामने आते हैं, लेकिन नतीजा शून्य रहता है. पुलिस ने अपनी प्रासंगिकता खो दी और सीबीसीआईडी जैसी जांच एजेंसियों की छवि घपलों-घोटालों को क्लीन चिट देने वाली संस्था की होकर रह गई है. लोकायुक्त संगठन ने अपना थोड़ा वजूद बनाया भी, तो अखिलेश सरकार ने उसे भोथरा कर दिया. राज्य के भ्रष्ट नेताओं एवं नौकरशाहों की फेहरिस्त लंबी-चौड़ी और मोटी होती जा रही है, क्योंकि कार्रवाई कुछ भी नहीं हो रही है.
ऊर्जा घोटाला, पत्थर घोटाला, पुलिस भर्ती घोटाला, एनआरएचएम घोटाला, मनरेगा घोटाला, मिड-डे मील घोटाला, नोएडा प्लॉट आवंटन घोटाला, लैकफेड घोटाला, आयुर्वेद घोटाला, ताज कॉरीडोर घोटाला, खनन घोटाला, आय से अधिक संपत्ति घोटाला, खाद्यान्न घोटाला आदि में एक-दो गिरफ्तारियां छोड़कर क्या हुआ! सरकार ने प्रदीप शुक्ला जैसे भ्रष्ट नौकरशाह को जेल से छुड़वा लिया. बाबू सिंह कुशवाहा पर सपा सरकार ने कृपा दृष्टि नहीं हुई, इसीलिए वह जेल में हैं. बसपा के कार्यकाल में मायावती ने सपा के कार्यकाल के घोटालों पर आंखें मूंद ली थीं, तो सपा सरकार ने बसपा के कार्यकाल के घोटालों पर आंखें मूंद लीं. नोएडा प्लॉट आवंटन घोटाले में आईएएस राजीव कुमार को सीबीआई अदालत ने तीन साल की सजा सुनाई थी, हाईकोर्ट के आदेश से सजा स्थगित है, लेकिन अखिलेश सरकार की उन पर खास कृपा है. आईएएस संजीव शरण पर नोएडा अथॉरिटी के सीईओ रहते हुए होटलों के लिए जमीन आवंटन में गड़बड़ी करने के गंभीर आरोप हैं. आईएएस राकेश बहादुर पर भी अरबों रुपये के नोएडा ज़मीन घोटाले में आरोप लगे थे. मायावती सरकार ने राकेश बहादुर को निलंबित कर दिया था, लेकिन अखिलेश सरकार ने उनका ओहदा बढ़ा दिया. आईएएस सदाकांत, ललित वर्मा एवं के धनलक्ष्मी के ख़िलाफ़ सीबीआई जांच चल रही है, लेकिन वे सपा सरकार के खास हैं.
मायावती सरकार के समय हुए यूपी लेबर एंड कंस्ट्रक्शन को-ऑपरेटिव एसोसिएशन लिमिटेड (लैकफेड) घोटाले में तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके निजी सचिव सीएल वर्मा का नाम आया, लेकिन उनका क्या हुआ? उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के चीफ इंजीनियर रहे अरुण कुमार मिश्र द्वारा किए गए सबसे बड़े ट्रॉनिका सिटी घोटाले में क्या हुआ? 1400 करोड़ रुपये का घोटाला करने वाले ग्रामीण अभियंत्रण सेवा के निदेशक एवं मुख्य अभियंता बने उमा शंकर का क्या हुआ? यादव सिंह की तरह उमाशंकर पर भी न केवल बसपा सरकार की कृपा बरसती थी, बल्कि मौजूदा सपा सरकार में भी कृपा बरस रही है. 2009 से मार्च 2012 तक छात्र शक्ति इंफ्रा कंस्ट्रक्शन को पीडब्ल्यूडी ने छह अरब सात करोड़ 51 लाख रुपये के काम आवंटित किए. स़िर्फ सोनभद्र में ही 145 करोड़ रुपये के कार्य आवंटित हुए. अखिलेश सरकार में भी उमाशंकर की कंपनी को तीन अरब सात करोड़ 22 लाख रुपये से अधिक के कार्यों का अनुबंध किया गया. लोकायुक्त की जांच में दोषी पाए गए राजकीय निर्माण विभाग के पूर्व प्रबंध निदेशक सीपी सिंह का क्या हुआ? अरबों रुपये का घोटाला करने के बावजूद उन पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? अवैध कमाई के मामले में लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) भी कुख्यात है. एलडीए के अफसरों से लेकर इंजीनियर तक अकूत संपत्ति के मालिक हैं. भ्रष्टाचार के बोलबाले के कारण पिछले कई महीनों से एलडीए में कोई उपाध्यक्ष और सचिव नहीं है. अकूत धन का स्रोत-स्थल होने के कारण मंत्रियों और सपा के एक शीर्ष नेता की आपस में ठनी हुई है. मंत्री चाहते हैं, उनका आदमी तैनात हो, तो नेता चाहते हैं कि उनका आदमी. उपाध्यक्ष को हटाने और तैनात कराने की हैसियत रखने वाले एलडीए सचिव अष्टभुजा तिवारी तबादले पर जा चुके हैं, लेकिन पद खाली पड़ा है, इसी प्रत्याशा में कि अष्टभुजा उसी पद पर फिर सवार होंगे. प्रदेश में सैकड़ों भ्रष्ट इंजीनियरों के ख़िलाफ़ पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा की जांच चल रही है, लेकिन कार्रवाई किसी पर नहीं होती. क़रीब सौ से अधिक नौकरशाहों के ख़िलाफ़ विजिलेंस शाखा जांच कर रही है. तक़रीबन दो दर्जन अफसरों के ख़िलाफ़ जांच पूरी हो चुकी है, लेकिन उनके ख़िलाफ़ न तो मुकदमा दर्ज करने की इजाजत मिलती है और न कार्रवाई आगे बढ़ती है. इसी में अफसर रिटायर होकर जाते भी रहते हैं. आईएएस तुलसी गौड़ हों या केके त्रिपाठी, ये सब रिटायर हो चुके हैं. जिन अफसरों के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने की मंजूरी की फाइल सत्ता के गलियारे में खोई हुई है, उनमें तुलसी गौड़, केके त्रिपाठी, आईएफएस नीरज कुमार, डीपी गुप्ता, पीपीएस श्याम लाल, राहुल मिठास, पीसीएस शंकर लाल पांडेय, आरएम दयाल, लालमणि पांडेय, सुरेश चंद्र गुप्ता के नाम शामिल हैं. मायावती के कार्यकाल में हुए स्मारक घोटाला मामले में भी आईएएस हरभजन सिंह, रवींद्र सिंह एवं मोहिंदर सिंह विजिलेंस जांच के दायरे में हैं. हरभजन एवं मोहिंदर सिंह रिटायर भी हो चुके हैं.
उत्तर प्रदेश सरकार के सतर्कता अधिष्ठान (विजिलेंस) में जांच के मामले ठंडे बस्ते में डालने के लिए ही भेजे जाते हैं. विजिलेंस शाखा अपनी जांच रिपोर्ट सरकार को भेज देती है और सरकार उस पर बैठ जाती है. इसके पहले भी विजिलेंस शाखा आईएएस आरए प्रसाद, पीएन मिश्रा, सीएन दुबे, गुरुदीप सिंह, एमके गुप्ता, सत्यजीत ठाकुर, गिरिराज वर्मा, आरके सिंह, बृजेंद्र यादव, सुनंदा प्रसाद, वीके वार्ष्णेय, ललित वर्मा, डीएस यादव, एके उपाध्याय, आरके भटनागर एवं एके टंडन जैसे वरिष्ठ नौकरशाहों के ख़िलाफ़ जांच कर सरकार को अपनी रिपोर्ट भेज चुकी है, लेकिन कार्रवाई ढाक के तीन पात ही रही. पूर्व कृषि उत्पादन आयुक्त एवं मुख्य सचिव अखंड प्रताप सिंह के ख़िलाफ़ भी सरकार ने विजिलेंस जांच की सिफारिश की थी और फिर अपना ही आदेश वापस ले लिया था. सपा ने सत्ता में आने के लिए भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाया था, पर अपनी सरकार बनने के बाद उसने धारा बदल दी. शराब माफिया रहे पोंटी चड्ढा (जिसकी बाद में हत्या हो गई) का नाम पंजीरी घोटाले में भी आया था. शराब घोटाले में भी वह शामिल था. सपा उसे सबक सिखाने का ऐलान करती थी, पर सत्ता में आते ही शराब की लॉटरी फिर उसी माफिया की फर्म के नाम खुल गई. पोंटी चड्ढा को मायावती का भी वरदहस्त हासिल था. अब उसकी कंपनी को न केवल सत्ताधारी दल का संरक्षण मिल रहा है, बल्कि बाकायदा सत्ताधारी दल का एक कद्दावर व्यक्ति पार्टनर के रूप में भी मिल गया है.
बहरहाल, यादव सिंह पर छापे की कार्रवाई के दौरान मिले साक्ष्यों के आधार पर पिछली सरकार के कुछ बड़े प्रोजेक्ट्स और ज़मीन आवंटनों की दोबारा जांच का रास्ता खुला है. बसपा शासनकाल में बड़े पैमाने पर ग्रुप हाउसिंग प्रोजेक्ट के ज़रिये बिल्डरों को ज़मीन दी गई थी. नोएडा फेज तीन और एक्सप्रेस-वे पर कई नामी बिल्डरों को ज़मीन आवंटित हुई थी और मात्र 10 फ़ीसद रकम लेकर भूखंड दे दिए गए थे. क़रीब 12 हज़ार करोड़ रुपये का केवल बकाया सामने आ रहा है, घोटाले की अरबों की रकम इसके अलावा है. नोएडा फार्म हाउस आवंटन को लोकायुक्त की तरफ़ से हरी झंडी मिल चुकी थी, लेकिन यादव सिंह प्रकरण सामने आने के बाद फार्म आवंटन घोटाला एक बार फिर ताजा हो गया है. 2009-10 में 155 फार्म हाउस आवंटन योजना आई थी. मायावती सरकार के कार्यकाल में नोएडा अथॉरिटी ने सरकार के क़रीबी व्यवसायिक घरानों, बड़े अधिकारियों, मंत्रियों और उनके रिश्तेदारों को कौड़ियों के दाम पर फार्म हाउस दे दिए थे. अथॉरिटी ने 129 कंपनियों और 29 लोगों को सस्ते दामों पर प्लॉट दिए थे. प्लॉट पाने वालों में मायावती के क़रीबी शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा और उसकी पत्नी का नाम भी शामिल है. बसपा के पूर्व राज्यसभा सदस्य डॉ. अखिलेश दास की पत्नी अलका दास को भी एक भूखंड दिया गया था. मायावती के क़रीबी नसीमुद्दीन सिद्दीकी को और उनके बेटे की कंपनियों के नाम पर भी कई भूखंड दिए गए थे. एक ही परिवार के 11 लोगों को सस्ते दामों पर फार्म हाउस मुहैया कराए गए थे. ऐसी कई कंपनियों को फार्म हाउस आवंटित कर दिए गए थे, जिनका रजिस्ट्रेशन आवंटन के बाद हुआ. एक ही कंपनी को कई-कई प्लॉट दे दिए गए.
मायावती और सपा का क़रीबी
यादव सिंह एक जाति के होने के सहारे मायावती का क़रीबी बना था और अवैध धन कमाने के हुनर के चलते वह समाजवादी पार्टी का भी क़रीबी बन गया. उसे सत्ता के क़रीब लाने में एक सजातीय आईएएस अफसर की बड़ी भूमिका थी. खूबी यह कि मायावती के खास रहे यह आईएएस अफसर आज अखिलेश के भी खास हैं. धन का ही प्रभाव है कि नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेस-वे डेवलपमेंट अथॉरिटी के पूर्व चीफ इंजीनियर यादव सिंह ने अपना ज़्यादातर करियर इंजीनियरिंग की डिग्री के बगैर ही काट लिया, लेकिन उसे प्रमोशन पर प्रमोशन दिए जाने में कोई अड़चन नहीं आई. 1980 में यादव सिंह ने नोएडा अथॉरिटी में जूनियर इंजीनियर के रूप में काम शुरू किया. 1995 में उसे प्रोजेक्ट इंजीनियर के पद पर तरक्की दे दी गई, जबकि प्रोजेक्ट इंजीनियर के लिए बीटेक होना ज़रूरी होता है. जाटव यादव सिंह को मायावती ने 2011 में नोएडा अथॉरिटी का इंजीनियर इन चीफ बना दिया. 2012 में सपा सत्ता में आई, तो यादव सिंह को 954 करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में निलंबित कर दिया गया, लेकिन 2012 में फिर बहाल कर दिया गया. फिर सपा सरकार ने प्रभावित होकर यादव सिंह को नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेस-वे, तीनों प्राधिकरणों का चीफ इंजीनियर बना दिया. करोड़ों की अवैध संपत्ति बचाने या छिपाने के लिए यादव सिंह ने सारी दौलत अपनी पत्नी के नाम कर दी थी और कागजी तौर पर तलाक ले रखा था. तलाक के बावजूद वह अपनी पत्नी के साथ रह रहा था.
अब बने भ्रष्ट अफसरों को बर्खास्त करने का क़ानून
भ्रष्ट अधिकारियों को फौरन बर्खास्त करने का क़ानून बनाने का प्रस्ताव संसद के गलियारे में खो गया है. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जब अन्ना का आंदोलन परवान पर था, तब तत्कालीन केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपित अधिकारियों को बर्खास्त करने का क़ानून बनाने का प्रस्ताव लाई थी. इसके लिए बाकायदा एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई थी, जिसने संविधान के अनुच्छेद-311 में आवश्यक संशोधन का सुझाव दिया था. लेकिन, सरकार समिति की सिफारिशों का अध्ययन ही करती रह गई और संसद में पेश करना भूल गई. तत्कालीन यूपीए सरकार के नेता घोटालों में इतने मशरूफ थे कि प्रस्ताव पेश करने की उन्हें फुर्सत नहीं मिली और सरकार चली भी गई. अब मौजूदा सरकार का दायित्व है कि वह उस प्रस्ताव को सदन में लाए और क़ानून बनाए.