अर्बन नक्सल पर जारी चर्चा के बीच एक सूची जारी हुई है, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिष्ठित 76 लोगों को अर्बन नक्सल बताया गया है. साथ ही इसमें द कारवां, द वायर, कोबरापोस्ट सहित 4 प्रतिष्ठित मीडिया हाउसेज के भी नाम हैं. इस सूची में उस जावेद अख्तर और शबाना आजमी को अर्बन नक्सल बताया गया है, जिनका हिंदी सिनेमा में अतुलनीय योगदान है. सूची जारी करने वालों के अनुसार, वो प्रशांत भूषण भी अर्बन नक्सल हैं, जो घपले-घोटालों और देश के अहित वाले कई मामलों को अदालत तक लेकर गए हैं और उनमें आए फैसले जनहित की दिशा में महत्वपूर्ण साबित हुए हैं.
यह सूची रामचंद्र गुहा को भी अर्बन नक्सल बताती है, जिन्होंने इस देश के इतिहास के कई अध्यायों को अपनी कलम के जरिए लोगों तक पहुंचाया है. शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई, पणव रॉय, विनोद दुआ, सिद्धार्थ वरदराजन, बरखा दत्त, निधि राजदान, सागरिका घोष, सबा नकवी और अभिसार शर्मा जैसे देश के प्रतिष्ठित पत्रकार और राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, सीताराम येचुरी, शशि थरुर, सलमान खुर्शीद और ममता बनर्जी जैसे लोकप्रिय नेताओं को भी इस सूची में अर्बन नक्सल के रूप में शामिल किया गया है. इसमें संदेह नहीं कि कई बार शहरों से भी नक्सली गुटों के लोग पकड़े जाते हैं, जो किसी गलत मंसूबों के साथ नक्सली गतिविधियों में संलिप्त होते हैं.
लेकिन वर्तमान समय में जिस तरह से समाज के प्रबुद्ध लोगों पर नक्सली होने का लांछन लगाकर उन्हें बदनाम किया जा रहा है, वो पूर्णत: एक सोची-समझी साजिश के तहत हो रहा है. जिस तरह फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म ‘बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम’ में अर्बन नक्सल की ‘कहानी’ को पर्दे पर उतारा और आदिवासियों के हक की बात करने वाले प्रोफेसर को नक्सलियों का समर्थक बता दिया, ठीक उसी तरह से वे वर्तमान में सरकार की आलोचना करने वालों और सरकार से सवाल पूछने वालों पर मनमाने तरीके से नक्सलवाद का ठप्पा लगा रहे हैं.
हाल के दिनों में अर्बन नक्सल पर यह चर्चा शुरू हुई पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी से. दरअसल, 31 दिसंबर 2017 को पुणे के नजदीक एलगार परिषद द्वारा एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ था, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसी के कारण भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़की. इस हिंसा में कथित भूमिका और माओवादियों से संपर्क रखने के संदेह में 28 अगस्त को विभिन्न राज्यों में छापेमारी हुई, जिसमें गौतम नवलखा को दिल्ली से, सुधा भारद्वाज को फरीदबाद से, वरवरा राव को आंध्रप्रदेश से और दो अन्य अरुण फरेरा व वर्नोन गोंजाल्विस को गिरफ्तार किया गया. बाद में यह खबर भी आई कि प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश में यह गिरफ्तारी हुई है.
नवलखा और भारद्वाज को हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र पुलिस को ले जाने से रोक दिया था और उन्हें नजरबंद रखने को आदेश दिया था. देश के हर हिस्सों में इस गिरफ्तारी का विरोध हुआ और इसे आवाज दबाने की कोशिश के रूप में देखा गया, क्योंकि जिन पांच लोगों की गिरफ्तारी हुई थी, वे सभी सरकार और व्यवस्था को उनके अमानवीय व जनता के अहित वाले फैसलों के खिलाफ आईना दिखाते रहते हैं. पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) और वीमेन अगेंस्ट सेक्सुअल वॉयलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन (डब्ल्यूएसएस) जैसे संगठनों, कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने 30 अगस्त को दिल्ली के प्रेस क्लब में साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इन सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की निंदा की.
बुकर विजेता लेखिका अरुंधति रॉय, वकील प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता बेजवाड़ा विल्सन, अरुणा रॉय और विधायक जिग्नेश मेवाणी ने इस छापेमारी और गिरफ्तारियों को गलत बताया. अरुंधति रॉय ने कहा कि सरकार अपनी विफलताओं से ध्यान हटाने के लिए एक्टविस्टों की गिरफ्तारी कर रही है. अरुणा रॉय ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा बताया और कहा कि यह उन लोगों के लिए संकेत है, जो असहमति जताते हैं. वहीं गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी ने इस गिरफ्तारी के खिलाफ पांच सितम्बर को देशभर में दलित-आदिवासियों का विरोध प्रदर्शन करने का एलान किया. इस विरोध प्रदर्शन का नाम रखा गया, ‘किस-किस को कैद करोगे: हम सब अर्बन नक्सल हैं.’
इस गिरफ्तारी के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई. वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने दायर याचिका का उल्लेख कर न्यायालय से सुनवाई का अनुरोध किया और मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविल्कर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने इस मामले में सुनवाई की. गिरफ्तार हुए लोगों के वकीलों ने तर्क दिया कि महाराष्ट्र पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी असहमति को कुचलने का प्रयास है. जिनकी गिरफ्तारी की गई है, वे सभी लोग आदिवासियों के लिए काम कर रहे हैं. इन्होंने न्यायालय को यह भी बताया कि गिरफ्तार हुए लोगों में शामिल वकील सुधा भारद्वाज ने अमेरिका की नागरिकता छोड़कर आदिवासियों के लिए काम करने का फैसला किया है. इन वकीलों द्वारा बहस में रखा गया एक तथ्य गौर करने वाला है. इन्होंने कोर्ट को बताया कि पिछले वर्ष दिसंबर में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा में ये लोग मौके पर भी नहीं थे.
लेकिन फिर भी इन्हें अभियुक्त बनाया गया है. यह तथ्य बताता है कि किस तरह केवल असहमति के कारण इन्हें जबरदस्ती फंसाया जा रहा था. तीन जजों की इस पीठ ने जो टिप्पणी की वो इस गिरफ्तारी के अलावा वर्तमान दौर के लिए भी महत्वपूर्ण है. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की तरफ से कहा गया कि ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतभदे सेफ्टी वाल्व की तरह होते हैं. अगर इन्हें रोका गया, तो प्रेशर कुकर फट जाएगा.’ इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने गिरफ्तार सभी पांच मानवाधिकार कार्यकताओं को जेल भेजने से मना कर दिया. न्यायालय ने महाराष्ट्र पुलिस की ओर से घटना के नौ महीने बाद की गई इस गिरफ्तारी पर सवाल उठाए. हालांकि कोर्ट ने महाराष्ट्र पुलिस को उन्हें अपने घरों में अगली सुनवाई यानि 6 सितंबर तक नजरबंद रखने की अनुमति दे दी और साथ ही केंद्र और महाराष्ट्र सरकार से मामले में 5 सितंबर तक जवाब देने को कहा.
हालांकि 5 सितंबर की सुनवाई भी आगे के लिए टाल दी गई. लेकिन कुल मिलाकर एक यह पूरा घटनाक्रम एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक ही नहीं खतरनाक भी है कि समाज के प्रतिष्ठित लोगों पर नक्सली होने का आरोप लगाकर उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया जाय. दरअसल, इस पूरे मामले का एक सिरा विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन और संसाधन हड़पने से भी जुड़ा है. चाहे सरकारें किसी भी दल की रही हों, प्रोजेक्ट लगाने के नाम पर कॉरपोरेट को जल-जंगल-जमीन लूटने की खुली छूट दी जाती रही है. जो लोग इस सत्ता समर्थित लूट के खिलाफ आदिवासियों के साथ खड़े हुए उन्हें विकास विरोधी करार दिया जाता रहा और अब उनपर अर्बन नक्सल का लबादा ओढाया जा रहा है.
फिल्मी है ‘अर्बन नक्सल’ की नई कहानी!
हमारे यहां सिनेमा को समाज का आईना कहा जाता है, यानि समाज में जो कुछ चल रहा होता है, उसे ही पर्दे पर उतारा जाता है. लेकिन कई बार यह क्रम उल्टा हो जाता है. कई बार समाज सिनेमा का अनुसरण करने लगता है. शायद कुछ ऐसी ही है अर्बन नक्सल पर जारी चर्चा की कहानी. 2014 में एक फिल्म आई थी, ‘बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम’. इसका एक डायलॉग है, ‘आदिवासियों की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वो करप्ट नहीं हैं…’ फिल्म में यह डायलॉग बोलने वाले प्रोफेसर पर अर्बन नक्सल का ठप्पा लगा दिया जाता है.
ठीक यही काम वर्तमान समय में किया जा रहा है और इन गतिविधियों के मूल में विनोद अग्निहोत्री हैं, जिन्होंने उस फिल्म की कहानी का ‘सूत्रपात’ किया था और अब वे ही अर्बन नक्सल के नाम पर देश के विभिन्न वर्गों के लोगों की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. गौर करने वाली बात यह है इस निर्देशक को कट्टरता फैलाने वाली कई संस्थाओं और लोगों का समर्थन प्राप्त है. ये सब मिलकर सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और लेखकों का चरित्र हनन कर रहे हैं और सरकार चुप्पी साधे हुई है, यह संदेहास्पद है.