• सरकारी वकीलों की नियुक्ति में खूब चली पैरवी और रिश्वत़खोरी
  • भाजपा का चारित्रिक चेहरा बेनक़ाब, संघ भी नाकारा साबित हुआ
  • संगठन मंत्री सुनील बंसल ने किया भाजपाई हितों का सत्यानाश
  • क़ानून मंत्री जानते ही नहीं कैसे हुई सरकारी वकीलों की नियुक्ति
  • महाधिवक्ता ने भी कहा, उनसे सत्ता या संगठन ने नहीं ली राय
  • ऐसे भी लोग सरकारी वकील बने जो वकील के रूप में दर्ज नहीं
  • सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से की गई हस्तक्षेप की अपील

yogiउत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में भी वही सब चल रहा है जो पूर्ववर्ती सपा सरकार में चल रहा था या उसके पहले बसपा सरकार में चल रहा था. यानि, सिफारिशवाद, जातिवाद, गुटवाद और रिश्वतवाद योगी सरकार में भी उतनी ही तेज गति से चल रहा है. भाजपाइयों को बहुत दिनों के बाद सत्ता मिली है तो घूसखोरी की स्पीड अधिक है और इसमें कोई लोकलाज भी नहीं बरती जा रही है. योगी सरकार के सौ दिन में सबसे बड़ी नियुक्ति विभिन्न स्तर के सरकारी वकीलों की हुई और इसमें पैरवी और घूसखोरी जम कर चली. सरकार बनने के बाद ही सत्ता गलियारे में यह हवा फैलाई गई कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के सारे निर्णय संगठन के स्तर पर होंगे.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रदेशभर की इकाइयां अपने-अपने क्षेत्र से योग्य वकीलों की सूची संगठन मंत्री सुनील बंसल तक भेजेंगीं और नियुक्ति का आखिरी फैसला सुनील बंसल ही लेंगे. इस हवा का प्रसारण बड़े ही सुनियोजित तरीके से हुआ और नतीजा यह हुआ कि सुनील बंसल की दुकान जम गई. उत्तर प्रदेश और दिल्ली तक के वकीलों का लखनऊ में जमघट लगने लगा और बंसल का ‘राग-दरबारी’ गाने लगा. संघ के पदाधिकारियों ने भी आनन-फानन लिस्ट बनाने का काम शुरू कर दिया और जिले-जिले से वकीलों की लिस्ट संगठन मंत्री के समक्ष गिरने लगी.

भाजपा के प्रदेश मुख्यालय की पहली मंजिल पर बना सुनील बंसल का आलीशान कक्ष पैरवीकारों और पूंजीकारों से सजने लगा और आम लोगों व कार्यकर्ताओं के लिए दरवाजा बंद हो गया. बंसल ने भी ऐसा ही ‘एक्ट’ करना शुरू किया कि जैसे वे ही प्रदेश के असली मुख्यमंत्री हैं, योगी तो बस आदेशपालक हैं. जब मुख्यमंत्री ही ढक्कन तो मंत्री की क्या बिसात! बृजेश पाठक उत्तर प्रदेश सरकार के कानून मंत्री हैं. उनसे पूछिए कि विभिन्न स्तर के सरकारी वकीलों की एक भी नियुक्ति क्या वे कर पाए हैं? पाठक कहेंगे, ‘नो-कमेंट’… और हम पूरी गंभीरता से कहेंगे कि प्रदेश के कानून मंत्री को मालूम ही नहीं था कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति किनकी हुई और कैसे हुई.

उत्तर प्रदेश में सरकारी वकीलों की नियुक्ति ने भाजपा की चारित्रिक असलियत को बेनकाब कर दिया है. इसका ठीकरा आखिरकार योगी आदित्यनाथ पर ही फूटना है. बंसल तो आराम से राजस्थान निकल लेंगे. वे इस बात का जवाब भी नहीं देंगे कि उन्होंने सैकड़ों सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए समाजवादी पार्टी से जुड़े वकीलों को रिकोमेंड करते समय भारतीय जनता पार्टी के किस हित का ध्यान रखा! सपाई वकीलों ने बंसल को किस तरह प्रभावित किया होगा, इसे समझना कोई पहेली नहीं है. भारत की मुख्य-धारा का जिन लोगों को भान होगा, वे प्रभाव के समुचित फ्रेम पर बंसल को कस कर देख सकते हैं और आसानी से समझ सकते हैं.

भाजपाई हितों के संरक्षण के लिए प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री बनाए गए और सत्ताई शक्ति से सुशोभित किए गए सुनील बंसल की सिफारिश पर तकरीबन सौ ऐसे वकीलों की नियुक्ति की गई जो सपाई हैं. इनमें से 50 वकीलों की तो घोषित सपाई पृष्ठभूमि है. बंसल ने संघ की लिस्ट की ऐसी-तैसी करके रख दी. विभिन्न स्तर के सरकारी वकीलों की नियुक्ति औपचारिक तौर पर सरकारी मुहर से होनी थी, लिहाजा इन नियुक्तियों का औपचारिक ‘श्रेय’ तो योगी सरकार को ही मिला. यह भी विचित्र ही है कि सरकारी वकीलों की लिस्ट में जजों के बेटे और नाते-रिश्तेदारों को शामिल कर विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय जज बन गए और बड़े नियोजित तरीके से मंच से पटाक्षेप कर गए. हैरत यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को यह सब दिख क्यों नहीं रहा!

बहरहाल, योगी सरकार ने सपा सरकार में मंत्री रहे शिवाकांत ओझा के बेटे सत्यांशु ओझा समेत तमाम सपाई सरकारी वकीलों को फिर से नियुक्त कर दिया. योगी सरकार ने दो सौ से अधिक सरकारी वकील नियुक्त किए हैं, जिनमें तकरीबन सौ वकील सपाई हैं. इनके अलावा 79 नाम ऐसे भी हैं जिनके बारे में कोई अधिकृत जानकारी ही नहीं है कि वे नाम किसके कहने पर सूची में जोड़े गए. इसका जवाब भी सुनील बंसल को ही देना चाहिए. योगी सरकार ने सपा शासन के दौरान नियुक्त किए गए सभी मुख्य अधिवक्ताओं, अपर मुख्य अधिवक्ताओं, स्थायी अधिवक्ताओं और ब्रीफ होल्डरों को हटाया और इन पदों पर फिर अधिकांश सपाई अधिवक्ताओं को ही नियुक्त कर दिया.

यही सपाई वकील अब भाजपा सरकार के कानूनी मसले हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हल करेंगे. पिछले दिनों प्रदेश के न्याय विभाग ने पुरानों को हटाने और नयों को नियुक्त करने के सरकारी प्रहसन का आधिकारिक ब्यौरा जारी किया. इसके मुताबिक इलाहाबाद हाईकोर्ट में चार मुख्य स्थायी अधिवक्ता और 25 अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं की नियुक्ति की गई. इसके अलावा हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में चार मुख्य स्थायी अधिवक्ता और 21 अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किए गए. यह तैनाती एक वर्ष के लिए की गई है.

विकास चंद्र त्रिपाठी, जगन्नाथ मौर्य, डॉ. राजेश्वर त्रिपाठी और ओम प्रकाश शर्मा इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य स्थायी अधिवक्ता बनाए गए. जबकि विपिन चंद्र दीक्षित, इंद्र सेन तोमर, गिरिजेश कुमार त्रिपाठी, अर्चना त्यागी, विजय शंकर मिश्र, रमेश पुंडीर, कृष्ण राज सिंह, अमित कुमार सिंह, सुरेश चंद्र द्विवेदी, प्रणेश दत्त त्रिपाठी, अशोक कुमार, अर्चना सिंह, देवेंद्र कुमार तिवारी, प्रवीण कुमार गिरि, अशोक कुमार गोयल, पंकज राय, संजय गोस्वामी, विवेक शांडिल्य, शशांक शेखर सिंह, सुरेश सिंह, सुभाष राठी, नीरज उपाध्याय, विपिन बिहारी पांडेय, सरिता द्विवेदी और सिद्धार्थ सिंह को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किया गया.

इसी तरह रमेश पांडेय, श्रीप्रकाश सिंह, विनय भूषण और शैलेंद्र कुमार सिंह लखनऊ खंडपीठ के मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किए गए. राज बख्श सिंह, नितिन माथुर, शैलेंद्र सिंह चौहान, राम प्रताप सिंह, अमरेंद्र प्रताप सिंह, अनिल कुमार चौबे, रंजना अग्निहोत्री, अमर बहादुर सिंह, आलोक शर्मा, विनोद कुमार शुक्ला, हर गोविंद उपाध्याय, राजेश तिवारी, शिखा सिन्हा, अजय अग्रवाल, राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिवेदी, देवेश चंद्र पाठक, पंकज नाथ, कमर हसन रिजवी, सत्यांशु ओझा और विवेक शुक्ला को लखनऊ खंडपीठ का अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किया गया.

प्रदेश सरकार ने जिन 201 सरकारी वकीलों की नियुक्ति की उनमें करीब 50 वकीलों के सपाई होने की पुष्टि हो चुकी है. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता के पद पर नियुक्त 21 सरकारी वकीलों में सपा सरकार के समय से तैनात अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिपाठी, देवेश पाठक, पंकज नाथ, कमर हसन रिजवी, सत्यांशु ओझा और विवेक शुक्ला को योगी सरकार ने भी जारी रखा. स्टैंडिंग काउसिंल के 49 पदों पर भी सपा सरकार के समय से तैनात 15 सरकारी वकीलों को फिर से जारी रखा गया है.

इनमें हिमांशु शेखर, शोभित मोहन शुक्ला, नीरज चौरसिया, मनु दीक्षित और केके शुक्ला के नाम प्रमुख हैं. ब्रीफ होल्डर के पद पर नियुक्त हुए 107 सरकारी वकीलों में से 21 सपाई वकीलों को जारी रखा गया है. सरकारी वकीलों की नियुक्ति में जजों के रिश्तेदारों का भी भाजपा सरकार ने खास ध्यान रखा है. इस नियुक्ति में सपा सरकार के तमाम वकीलों को जगह मिलने और भाजपा समर्थित वकीलों को खारिज किए जाने के कारण वकील समुदाय में काफी नाराजगी है. इन नियुक्तियों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी कथित तौर पर नाराज है. लेकिन इस नाराजगी का कोई प्रभाव न तो बंसल पर पड़ा है और न योगी सरकार पर.

संघ ने प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह को तलब कर अपनी नाराजगी जताई और इतिश्री कर ली. इस मसले पर संघ ने न तो मुख्यमंत्री से बात की और न प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल से कोई पूछताछ की. नाराज वकीलों ने भी भाजपा के प्रदेश व क्षेत्रीय कार्यालय और संघ के भारती-भवन दफ्तर कर अपनी आपत्ति दर्ज कराई. संघ की ओर से तलब किए गए महाधिवक्ता ने भारती-भवन जाकर इस नियुक्ति में उनका कोई हाथ न होने की कसमें खाईं और उन्होंने संघ पदाधिकारियों के समक्ष यह स्वीकार किया कि सूची बनाने में उनका कोई हाथ नहीं है और न न्याय विभाग ने सूची जारी करने से पहले उनसे कोई राय ही ली. बड़े पैमाने पर सपाई विचारधारा के वकीलों को सरकार द्वारा नियुक्त किए जाने की वजहों का महाधिवक्ता कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे सके.

उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ पीठ में 428 सरकारी वकील कार्यरत थे. इनमें करीब सवा सौ वकील फौजदारी (क्रिमिनल साइड) और अन्य सिविल साइड के वकील थे. सरकार ने फौजदारी पक्ष के अपर शासकीय अधिवक्तााओं को छोड़कर अन्य सभी वकीलों को हटा दिया और 201 सरकारी वकीलों की नई सूची जारी कर दी. नई सूची में सपा सरकार में मंत्री रहे शिवाकांत ओझा के पुत्र सत्यांशु ओझा सहित बड़ी संख्या में उन्हीं पुराने सपाई सरकारी वकीलों को फिर से दोहरा दिया जिन्हें सपा के शासनकाल में नियुक्त किया गया था. सपा सरकार में अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता रहे विनय भूषण को प्रोन्नत कर मुख्य स्थायी अधिवक्ता (द्वितीय) बना दिया गया.

विनय भूषण जज के भाई होने के कारण भी काफी रुतबा रखते हैं. सपा सरकार में सरकारी वकील के बतौर नियुक्त हुए राहुल शुक्ला, अभिनव एन. त्रिपाठी, देवेशचंद्र पाठक, पंकज नाथ, कमल हसन रिजवी, विवेक शुक्ला, मनु दीक्षित, हिमांशु शेखर, नीरज चौरसिया, आशुतोष सिंह, रणविजय सिंह समेत करीब 50 सपाई सरकारी वकीलों को फिर से सरकारी वकील नियुक्त कर दिया गया. नियुक्त हुए सरकारी वकीलों की सूची में 79 नाम ऐसे भी हैं जिनके बारे में कोई अधिकृत जानकारी नहीं है कि वे कहां से आ टपके.

योगी जी आंखें खोलिए! जो वकील ही नहीं, उन्हें कैसे बना दिया सरकारी वकील!

भाजपा सरकार में सरकारी वकीलों की नियुक्ति सुनियोजित घोटाले से कम नहीं है. वह भी बड़े दुस्साहस से किया गया घोटाला. सरकार ने भी ऐसे लोगों को सरकारी वकील नियुक्त कर दिया है, जो आधिकारिक तौर पर वकील ही नहीं हैं. स्पष्ट है कि रिश्वतखोरी और गुटबाजी में सारे नैतिक मापदंडों को ताक पर रख दिया गया. जिन वकीलों को सरकारी वकील बनाया गया, उनमें से कई तथाकथित वकीलों के नाम हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में एडवोकेट ऑन रोल (एओआर) में दर्ज ही नहीं हैं. खबर है कि बगैर एओआर वाले नवनियुक्त सरकारी वकीलों की संख्या भी करीब 50 है. हालांकि शासकीय अधिवक्ता अधिष्ठान ने ऐसे दर्जनभर सरकारी वकीलों को ज्वाइन करने से मना कर दिया है, इनमें गिरीश तिवारी, प्रवीण कुमार शुक्ला, शशि भूषण मिश्र, दिवाकर सिंह, वीरेंद्र तिवारी, दिलीप पाठक जैसे लोगों के नाम शामिल हैं.

लेकिन यह ध्यान रखें कि बगैर एओआर वाले वकीलों की संख्या करीब 50 है जिन्हें सरकारी वकील के बतौर नियुक्त किया गया है. फिर यह सवाल सामने है कि केवल दर्जनभर वकीलों को ही ज्वाइन करने से क्यों रोका गया? सनद रहे, हाईकोर्ट में वकालत करने की पहली शर्त ही होती है कि उसका नाम एओआर सूची में दर्ज है या नहीं. मुख्य स्थायी अधिवक्ता रमेश पांडे का कहना है कि महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह के आदेश से बिना एओआर वाले सरकारी वकीलों को फिलहाल ज्वाइन करने से रोक दिया गया है.

लेकिन वे यह नहीं बता पाए कि बगैर एओआर वाले सभी नव-नियुक्त सरकारी वकीलों को ज्वाइन करने से रोका गया है कि नहीं. सरकारी वकीलों की नियुक्ति इतनी अफरातफरी में की गई कि एक-एक वकील के नाम कई-कई जगहों पर दर्ज कर दिए गए. पांच सरकारी वकीलों के नाम दो जगह पाए गए हैं. इनमें अनिल कुमार चौबे, प्रत्युश त्रिपाठी, सोमेश सिंह, राजाराम पांडेय और श्याम बहादुर सिंह के नाम दो या दो से अधिक जगह पर दर्ज पाए गए. सूची के पेज नंबर तीन पर ब्रीफ होल्डर (सिविल) की श्रेणी में पांच सरकारी वकीलों के नाम ही गायब पाए गए हैं.

पैरवी-पुत्रों को उपकृत कर प्रमुख सचिव बन गए जज

सरकारी वकीलों की नियुक्ति प्रक्रिया किस स्तर तक अनैतिक रास्ते पर चली कि कार्यरत और रिटायर्ड जजों के बेटों और सगे-सम्बन्धियों को सरकारी वकील की लिस्ट में शामिल कर विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय जज बन गए. यह पुरस्कार रिश्वतखोरी नहीं है तो क्या है! आपको याद दिलाते चलें कि कुछ ही अर्सा पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (अब सुप्रीम कोर्ट में पदस्थापित) डीवाई चंद्रचूड़ ने जजों के बेटों, सालों और अन्य नाते-रिश्तेदारों को जज बनाने की सिफारिश की थी. ‘चौथी दुनिया’ में रिश्तेदारों की पूरी लिस्ट प्रकाशित होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसका संज्ञान लिया और जजों की नियुक्ति रोक दी गई. सरकारी वकीलों की नियुक्ति में फिर वही धंधा अपनाया गया, लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस पर ध्यान तक नहीं दिया. प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय इस उपकार के रिश्वती-एवज में जज बना दिए गए. जज बनाने वाली सिफारिशी लिस्ट में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी का नाम भी शुमार था, जो पीएमओ के हस्तक्षेप से रुक गया था.

अब योगी सरकार ने उन्हीं नीरज त्रिपाठी को इलाहाबाद हाईकोर्ट का अपर महाधिवक्ता बना कर केसरीनाथ त्रिपाठी को उपकृत कर दिया है. सरकारी उपकार प्राप्त करने में इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बाबा साहेब भोसले भी शामिल हैं, जिनके बेटे करन दिलीप भोसले को अखिलेश सरकार ने नियुक्त किया था और योगी सरकार ने भी उसे जारी रखने की ‘अनुकंपा’ कर दी. करन भोसले महाराष्ट्र और गोवा हाईकोर्ट के रजिस्टर्ड वकील हैं और वहां की बार काउंसिल के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के जज अशोक भूषण के भाई विनय भूषण को भी चीफ स्टैंडिंग काउंसिल नियुक्त किया गया है. ऐसे उदाहरण कई हैं.

वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति प्रक्रिया में विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय द्वारा की गई करतूतों का पूरा चिट्ठा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजा है. इसकी प्रतिलिपि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी भेजी गई है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजे गए ज्ञापन में सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने साफ-साफ लिखा है कि विधि विभाग के प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय पद का दुरुपयोग कर और विधाई संस्थाओं को अनुचित लाभ देकर हाईकोर्ट के जज बने हैं. पांडेय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में सरकारी वकीलों की नियुक्ति को अपनी तरक्की का जरिया बनाया.

नियुक्ति प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानक की भी पूरी तरह अनदेखी की गई. ज्ञापन में लिखा गया है कि प्रमुख सचिव रंगनाथ पांडेय ने जानते हुए भी 49 ऐसे वकीलों को सरकारी वकील की नियुक्ति लिस्ट में रखा जिनका नाम एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है और वे हाईकोर्ट में वकालत करने के लिए प्रतिबंधित हैं. रंगनाथ पांडेय ने खुद जज बनने के लिए सारी सीमाएं लांघीं. वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ श्रीवास्तव ने लिखा है कि हाईकोर्ट में सरकारी पक्ष की पैरवी के लिए नियुक्त किए गए सरकारी वकीलों की लिस्ट में रंगनाथ पांडेय ने अनुचित लाभ लेने के इरादे से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिश्तेदारों को शामिल किया. अधिकाधिक लोगों को उपकृत कर उसका लाभ लेने के लिए रंगनाथ पांडेय ने विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़े वकीलों और पदाधिकारियों को सरकारी वकील बनवा दिया और उसके एवज में जज का पद पा लिया. सरकारी वकीलों की लिस्ट में ऐसे भी कई वकील हैं जो प्रैक्टिसिंग वकील नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में सीधा हस्तक्षेप कर सरकारी वकीलों की विवादास्पद नियुक्ति प्रक्रिया को रोकने की अपील की गई है, ताकि न्याय प्रणाली की शुचिता बरकरार रह सके.

नियुक्ति प्रक्रिया पर उठाया सवाल, रंजना समेत कई ने इस्ती़फा दिया

राज्य सरकार द्वारा सपाई वकीलों को बड़े-बड़े सरकारी पदों पर नियुक्त किए जाने और भाजपा और संघ से जुड़े वकीलों की पूरी तरह अनदेखी किए जाने के खिलाफ नव-नियुक्त सरकारी वकील व रामजन्म भूमि मुकदमे से जुड़ी वकील रंजना अग्निहोत्री ने सरकारी वकील के पद से इस्तीफा दे दिया. रंजना अग्निहोत्री ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सीधा प्रहार करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपना इस्तीफा भेजा है. भाजपा की प्रदेश मीडिया प्रभारी रह चुकीं अनीता अग्रवाल ने भी सरकारी वकील के पद पर अपनी ज्वाइनिंग देने से इंकार कर दिया है. अधिवक्ता परिषद की डॉ. दीप्ति त्रिपाठी ने भी परिषद के वकीलों और महिला वकीलों की अनदेखी किए जाने के कारण सरकारी वकील का पद अस्वीकार कर दिया है. रंजना अग्निहोत्री ने कहा कि सपा कार्यकाल के अधिकांश सरकारी वकीलों को फिर से नियुक्त किया जाना भाजपा के प्रतिबद्ध वकीलों के साथ सीधा-सीधा अन्याय है. हाईकोर्ट में प्रैक्टिस न करने वालों को भी सरकारी वकील बना दिया जाना अनैतिकता का चरम है. अनीता अग्रवाल ने कहा कि वे भाजपा से पिछले 30 साल से जुड़ी हैं. उनकी उपेक्षा कर उनसे काफी जूनियर वकीलों को अपर महाधिवक्ता बना दिया गया है. ऐसे में वह स्टैंडिग काउंसिल के पद पर कार्य नहीं कर सकतीं.

यह कैसा सबका साथ, सबका विकास’…?

उत्तर प्रदेश में सरकारी वकीलों की नियुक्ति में भाजपाइयों ने भाजपा के हित को तो धोया ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सूत्र वाक्य ‘सबका साथ, सबका विकास’ की भी धज्जियां उड़ा दीं. सरकार ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति की जो सूची जारी की उसने भाजपा के चारित्रिक चेहरे के साथ-साथ सैद्धांतिक चेहरे को भी बेनकाब कर दिया. इस नियुक्ति में 15 फीसदी सवर्णों ने 80 फीसदी से अधिक हिस्सा झटक लिया. चार मुख्य स्थायी अधिवक्तााओं में तीन ब्राह्मण और एक ओबीसी हैं. 25 अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं में 12 ब्राह्मण और सात ठाकुर हैं. 103 स्थायी अधिवक्ताओं में 60 ब्राह्मण और 17 ठाकुर हैं. इसी तरह 65 ब्रीफ होल्डर (सिविल) और 114 ब्रीफ होल्डर (फौजदारी) में ब्राह्मणों और ठाकुरों की ही अधिक हिस्सेदारी है.

नव नियुक्त सरकारी वकीलों की सूची में दलितों का नाम न होने से दलित समाज में भी काफी क्षोभ है. अम्बेडकर महासभा ने इस प्रकरण में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राज्यपाल राम नाईक से सीधा हस्तक्षेप करने की मांग की है और यह अपील की है कि दलितों को भी सरकारी वकील बनाया जाए. अम्बेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल ने कहा कि न्याय विभाग द्वारा 201 सरकारी वकीलों की सूची में अनुसूचित जाति के वकीलों की संख्या महज एक है. उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश आरक्षण अधिनियम-1994 के आधार पर अनुसूचित जाति के सरकारी वकीलों की संख्या 46 होनी चाहिए. महासभा का कहना है कि जब अनुसूचित जाति के सरकारी वकील बनेंगे ही नहीं तो वे जज की कुर्सी तक कैसे पहुंचेंगे!

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