शिवाजी राय
भारत में पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अंग्रेजों ने जिन व्यापार केंद्रों को स्थापित किया था, आज भी लगभग वही व्यापारिक केंद्र जीवित हैं और बीच-बीच में थोड़ा बहुत क्षेत्रीय स्तर पर छोटे-छोटे व्यापारिक केंद्र स्थापित हुए थे जो क्षेत्रीय कृषि उत्पाद आधारित उद्योग थे.उद्योगपतियों और सरकार की मिलीभगत से जो आर्थिक नीतियां तय हुईं उसमें क्षेत्रीय व्यापार केंद्र पूरी तरह नष्ट कर दिए गए और मुख्य रूप से 1989 के बाद बड़े पैमाने पर यह घटना घटित होती है.मंडल और कमंडल की राजनीति का भी इसमें मुख्य योगदान है, साथ ही पूरब के विनाश का कारण सत्ता का पश्चिम में केंद्रीकरण भी है. अगर हम उत्तर प्रदेश का उदाहरण ले तो जिसके सूत्रधार कल्याण सिंह, मुलायम सिंह और मायावती हैं जिन्होंने कभी भी राजनीति को युवाओं, किसानों, मजदूरों, छात्रों एवं महिलाओं को उनकी मूलभूत जरूरतों के लिए पारंपरिक स्थापित रोजगारों से जुड़ने नही दिया, इनको बहस से बाहर करके जाति और धर्म को बहस के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया. इसने अफीम का काम किया और यहां का पिता अपने परदेश में मजदूरी करने वाले बेटे की फिक्र करना भूल गया. 20वीं सदी के शुरूआती दौर में नजर डालें तो पाएंगे कि उत्तर प्रदेश बिहार की सीमा पर देवरिया, जो कभी चीनी का कटोरा था, 1903 में पहली गन्ना मिल बैतालपुर देवरिया सुगर मिल और 1921 में भटनी सुगर मिल स्थापित हुई थी, जिसकी जमीन किसानों ने पट्टे पर दी थीं. इसके साथ ही आजादी से पहले कुल 14 चीनी मिलें देवरिया जनपद में स्थापित हुई थीं. इस तरह देखा जाए तो गन्ना उत्तर प्रदेश में नगदी फसल के रूप में स्थापित हुआ और छोटे-छोटे व्यापरिक केंद्र जैसे मऊ, बनारस, भदोही, मिर्जापुर, टांडा, गोरखपुर, मगहर, सहजनवां, खलीलाबाद, बस्ती, गोंडा, आदि हथकरघा, साड़ी कपड़ा, कालीन सीमेंट के लिए जाने जाते थे, जिन्होंने लाखों स्थानीय मजदूरों को रोजगार दिया था और किसानों के उत्पाद ही मुख्य कच्चे माल के रूप में काम आते थे.
उद्योगों का विनाश
1989 के बाद बहुत तेज़ी से इन उद्योगों का विनाश शुरू हुआ और सभी मिलें और उद्योग केवल बच्चों को किताबों में पढ़ने के लिए मौजूद हैं.मजदूरों के हाथ खाली हो गए और किसानों की हालत खराब हो गई. स्थानीय स्तर पर रोजगार ख़त्म हो गया और यहां के नौजवान ट्रेनों में लादकर ट्रेड सेंटरों पर पहुंचाए जाने लगे.उत्तर प्रदेश से लेकर के बिहार, झारखण्ड, असम क्षेत्रों का बड़ा भूभाग खाली हो गया.थोड़े बहुत बचे नौजवान क्षेत्रीय शहर के लेबर चौराहों पर खड़े होते हैं, जहां केवल कालोनियां बसाने के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ती है, वह भी बस कुछ मजदूरों को ही खपा पाती है, बाकी अपने गांव वापस लौट जाते हैं.गांव में बचे हैं तो सिर्फ बेसहारा मां-बाप, वह भी पश्चिम की तरफ मुंह उठा कर ताकते हैं किबेटा पैसे भेजेगा तो उनकी दवा और रोटी का इंतज़ाम हो सकेगा.इस गांव प्रधान और किसान प्रधान देश में अब मेट्रो सिटी के असंतुलित विकास ने गांवों को निगल लिया है.अब संसद और विधानसभा में इन पलायित मजदूरों, नौजवानों, किसानों, उजड़ते गांवों पर चर्चा नहीं होती, बल्कि बुलेट ट्रेन, मेक इन इण्डिया, स्किल्ड इण्डिया, स्टार्टअप और चुनावी जुमले उछालकर संसद को बंधक बना कर पूंजीपतियों के हवाले कर दिया जाता है.अब चर्चा होती है देव दिवाली की, त्रेता युग की दिवाली की, लव जेहाद की.अब चर्चा होती है मंदिर मस्जिद की, धार्मिक जुलूस निकालने की.इस बात की चर्चा अब ज्यादा होती है कि सरकारी इमारतों की दीवारों का रंग क्या होगा, चर्चा है स्वच्छता अभियान और गंगा सफाई की और देश-प्रदेश का बड़ा बजट और तंत्र भी इन चर्चाओं में खप जाता है.यहां कभी चर्चा नही होती किसानों की आत्महत्याओं पर, युवाओं के पलायन पर, कृषि उत्पाद की खरीदारी एवं मूल्य निर्धारण पर, गन्ना के बकाये के भुगतान पर, कुपोषण से निजात पर, गरीबी और भुखमरी पर, छात्रों की बढ़ती समस्याओं और शिक्षा के गिरते स्तर पर.
ट्रेनें माल ढोने के बजाय मजदूर ढो रही हैं
सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर के डाटा से इन समस्याओं का समाधान संभव नही है.अगर नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली बैंको को उबारने के लिए 2 लाख 11 हज़ार करोड़ देते हैं और शेयर बाज़ार में उछाल आता है और बाज़ारों में रंगत दिखती है तो पैसा किसके पास जाता है या सीधे कहा जाए तो एनपीए के बदले में इन पैसों का भुगतान सरकार करती है.जब मोदी जी का गुजरात मॉडल ढहता है तो साफ़ है कि जिस विकास की बात मोदी कर रहे थे वह और कोई नहीं बल्कि वही अंग्रेजों द्वारा स्थापित बड़े व्यापार केंद्रों पर आधारित मॉडल है जिनके कारण देश का नौजवान पलायन करता है.लेकिन हम भूल जाते हैं कि बाहर का पहुंचा हुआ नौजवान बिना शर्त मजदूरी करने को हाज़िर है तो स्थानीय नौजवान बेरोजगारी और भुखमरी की कगार पर निश्चित ही जाएगा, और ऐसा ही हुआ.मोदी ने गुजरात चुनाव जीतने के लिए अब विकास की नहीं बल्कि जापान से कर्ज लेकर एक लाख 10,000 करोड़ रुपएसे गुजरात के आधा प्रतिशत लोगों से भी कम का हित साधने के लिए बुलेट ट्रेन चलाने की कोशिश की है. इस कर्ज का भुगतान देश के 125 करोड़ गरीब, किसान-मजदूर से कर वसूल कर किया जाएगा.
21 करोड़ की आबादी का उत्तर प्रदेश जिसके बहुतायत हिस्से में छोटे-छोटे उद्योग बंद हो गए, मिले बेच दी गई वह एक लाख 10 हज़ार करोड़ रुपए से इन केंद्रों को जीवित कर दिया जाता तो उसकी सार्थकता सिद्ध होती और पलायन निश्चित ही कम हो सकता था.बैंको को उबारने के बजाय मोदी किसानो को पूर्णतया कर्ज मुक्त कर देते, तो उनका उत्पादन बढ़ जाता, फिर ये ट्रेनें मजदूर ढोने के बजाय माल ढोतीं, जिससे इन इलाकों में माल के बदले दाम आता और अर्थव्यवस्था सिर के बजाय पैर के बल बल खड़ी हो जाती.वैसे तो आगे एक बड़ा खतरा दिखता है, कि ये पलायित बेरोजगार युवा इन बड़े ट्रेड सेंटर पर इकठ्ठा होते हैं तो वो दिन दूर नहींकि इनके खाली हाथ इस व्यवस्था को चैन से जीने देंगे.
(लेखक गन्ना किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष हैं)