nitish kumarमिशन 2019 के नारे के साथ लोकसभा चुनाव पर लक्ष्य साध कर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विपक्षी दल एक होने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन सीटों के बंटवारे पर एक मत नहीं हो पाते. झारखंड में 2019 का पेंच यहीं आकर फंस जा रहा है. मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में झारखंड मुक्ति मोर्चा और झारखंड विकास मोर्चा सबसे आगे हैं.

जाहिर है, जब झारखंड में महागठबंधन बनेगा तो झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ही इसके संयोजक होंगे और वे अपने पुत्र हेमंत सोरेन को ही मुख्यमंत्री की ताज सौंपना चाहेंगे. जबकि गठबंधन में शामिल अन्य दलों के नेता झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तावित कर विधानसभा चुनाव लड़ना चाहेंगे. बाबूलाल की छवि अभी भी एक ईमानदार, मृदुभाषी एवं स्पष्ट विजन वाले नेता के रूप में बनी हुई है. हालांकि डोमिसाइल का मामला बाबूलाल के ऊपर अभी भी एक धब्बे के रूप में कायम है.

हेमंत की भी छवि एक कर्मठ एवं विजन वाले नेता के रूप में कायम है. हेमंत के पिता झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन निश्चित ही धृतराष्ट्र की भूमिका में रहेंगे और महागठबंधन में यह शर्त हर हाल में रखेंगे. झारखंड में विपक्षी दल बिहार मॉडल तो अपनाना चाहते हैं, परन्तु यहां राह बिहार की तरह आसान नहीं है. बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव को यह अहसास हो गया था कि यदि राजनीति में वजूद बनाए रखना है, तो गठबंधन बनाना ही पड़ेगा. यही कारण है कि दोनों ही नेता सारे अहंकार को भूल चुनावी मैदान में भाजपा के खिलाफ एकजुट हो गए. मगर झारखंड में महागठबंधन में झामुमो का अहम इसके आड़े आ रहा है. इसका कारण भी है, झामुमो को लोकसभा चुनाव से कोई ज्यादा लेना-देना नहीं है और वह अपना सारा फोकस विधानसभा चुनाव पर ही करना चाहती है. उसे क्षेत्रीय राजनीति में ही दिलचस्पी है.

अगर गठनबंधन में शामिल क्षेत्रीय दलों की स्थिति पर गौर करते हैं, तो झामुमो अभी झारखंड में सबसे बड़ी पार्टी है और विधानसभा में विपक्षी दल की भूमिका में है. इसके 19 विधायक हैं, तो जाहिर है यह गठबंधन का मुख्य हिस्सा होगा, पर इसे मुख्यमंत्री पद से कम पर समझौता मंजूर नहीं होगा. भावी समझौते में इसे 40 से कम सीटें मंजूर नहीं होंगी. संथाल परगना एवं कोल्हान में इसकी पकड़ मजबूत है और खासकर आदिवासी मतदाताओं पर झामुमो की पकड़ मजबूत मानी जाती है.

वही झारखंड विकास मोर्चा के सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी को पहले मुख्यमंत्री के रूप में उनके द्वारा किए गए कार्यों के कारण लोग अभी तक याद करते हैं. झारखंड गठन के बाद दो सालों में विकास का काम राज्य में खूब हुआ, उन कार्यों को लोग भी अब तक नहीं भूल पाए हैं. बाबूलाल ने अपने बलबूते पिछले विधानसभा चुनाव में आठ सीटों पर जीत दर्ज की थी, पर दुर्भाग्य यह था कि उसके छह विधायकों को भाजपा ने दल बदल करा कर अपने साथ ले लिया.

बाबूलाल मरांडी को इस बार गैर आदिवासियों का भी समर्थन मिल सकता है. धनबाद चंद्रपुरा रेल लाईन को बंद किए जाने के बाद इनके द्वारा की गई पदयात्रा में गैर आदिवासियों का एक बड़ा जनसमूह इनके साथ था. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी बाबूलाल का साथ लेकर झारखंड में शराबबंदी का बड़ा अभियान चलाया था और इसमें दोनों नेताओं की लोकप्रियता काफी बढ़ी थी. नीतीश बाबूलाल के नेतृत्व में झारखंड में चुनाव लड़ने का मन बना रहे हैं.

यही कारण भी है कि नीतीश और बाबूलाल संयुक्त रूप से कई जनसभा और कार्यक्रम कर चुके हैं. झारखंड में कुर्मी मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक है और अगर नीतीश कुर्मी मतदाताओं को थोड़ा भी गोलबंद करने में सफल रहते हैं, तो यह गठबंधन एक बड़ी ताकत के रूप में उभर सकता है. वैसे अगर बाबूलाल के नेतृत्व में गठबंधन चुनाव लड़ता है, तो जाहिर है कि झामुमो इस गठबंधन में शामिल नहीं होगी, क्योंकि पार्टी को मुख्यमंत्री पद से कम कुछ स्वीकार नहीं होगा.

उधर नीतीश कुमार से अलग-थलग चल रहे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद झारखंड में अपनी अलग राजनीतिक गोटी सेट करने की कोशिश में हैं. चारा घोटाले में फंसे लालू प्रसाद को अभी सीबीआई की अदालत में हाजिरी लगाने हर सप्ताह रांची आना पड़ता है और इस कारण लालू प्रसाद यहां के राजनीतिक हालात से लगातार अवगत हो रहे हैं. लालू यहां झामुमो एवं कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश में हैं. झामुमो के हेमंत सोरेन भी लगातार लालू प्रसाद के सम्पर्क में हैं.

अगर ये तीनों ही पार्टियां एकजुट हुईं, तो बहुत संभव है कि झामुमो की सत्ता में वापसी हो जाय. तीनों ही दल अल्पसंख्यकों के हितैषी माने जाते हैं और तीनों के साथ हो जाने पर मुस्लिम वोटों का बंटवारा नहीं हो पाएगा. अभी झामुमो एवं कांग्रेस के पास 80 विधानसभा क्षेत्रों से 25 विधायक हैं, झामुमो 22 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर थी. राजद के पास अभी एक भी विधायक नहीं है. लेकिन झारखंड एवं पश्चिम बंगाल से सटे सीमावर्ती विधानसभा क्षेत्रों में राजद की अच्छी पकड़ है. अगर यह पार्टी गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरती है, तो कम से कम पांच सीटों पर चुनाव जीतने में सक्षम हो सकती है.

कांग्रेस यहां राष्ट्रीय पार्टी के रूप में जरूर है, लेकिन इसका जनाधार खिसकता ही जा रहा है. पार्टी में लगातार गुटबाजी के कारण संगठन कमजोर होता जा रहा है. पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ही यहां एकमात्र कद्दावर नेता के रूप में हैं. अभी यहां कांग्रेस के छह विधायक हैं. लेकिन दूसरे दलों का दामन थामकर कांग्रेस कुछ बेहतर कर सकती है. कांग्रेस ने बिहार से सबक सीखा है, जहां इसके एक-दो विधायक हुआ करते थे, वहां गठबंधन के साथ चुनाव लड़ने के बाद अब इसके पास तीन दर्जन विधायक हैं. हालांकि झारखंड गठबंधन में कांग्रेस लगभग बीस सीटों पर ही दावेदारी कर सकती है.

इस गठबंधन के बारे में सुबोधकांत सहाय का कहना है, ‘झामुमो के साथ कांग्रेस लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव लड़ सकती है. अभी दोनों दलों के बीच बातचीत प्रारंभिक अवस्था में है. राजद भी इस महागठबंधन का प्रमुख अंग होगी. साम्प्रदायिक ताकतों को हटाने के लिए हमें एक मंच पर आना ही होगा.’ अब इन तीनों दलों का एक साथ होना लगभग तय है. झामुमो नेता हेमंत सोरेन एवं राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के बीच कई दौर की वार्ता भी हो चुकी है. खुद हेमंत सोरेन यह स्वीकार करते हैं कि झामुमो समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ गठबंधन बनाएगी और इसी गठबंधन के तहत पार्टी लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में उतरेगी.

इधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह पूरी तरह से अहसास हो गया है कि झामुमो बाबूलाल मरांडी के साथ गठबंधन में शामिल नहीं हो सकती है. दोनों ही दल के नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं और यही कारण है कि नीतीश ने झामुमो को अपने गठबंधन में आने का न्यौता कभी नहीं दिया. बाबूलाल भी नीतीश को ही साथ लेकर चल रहे हैं. नीतीश भी शराबबंदी अभियान के बहाने झारखंड में अपनी पैठ बनाने में लगे हुए हैं और वे वहां बहुत हद तक सफल भी हो रहे हैं.

इसका एक और कारण यह भी है कि झारखंड के लोगों में यह प्रचारित किया जा रहा है कि नीतीश के नेतृत्व में बिहार का खूब विकास हुआ है. झारखंड में व्याप्त भ्रष्टाचार और विकास कार्य नहीं होने से यहां के युवा मतदाता इस सरकार से खासतौर से नाराज हैं. नीतीश की ईमानदार छवि ने भी झारखंडियों के बीच उनकी लोकप्रियता में इजाफा किया है. नीतीश और बाबूलाल झारखंड में तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं और अपने साथ आजसू को रखना चाह रहे हैं.

आजसू की महतो एवं मुस्लिम मतदाताओं पर अच्छी पकड़ है. झारखंड में भाजपा के बाद सबसे बड़ा संगठन आजसू का ही है. आजसू प्रमुख सुदेश महतो युवा नेता हैं और उनके सामने एक बड़ा राजनीतिक करियर पड़ा है, ऐसे में वे उपमुख्यमंत्री और कुछ मंत्री पद लेकर संतुष्ट हो सकते हैं. झाविमो को भी आजसू का यह फार्मूला पसंद आएगा. झाविमो और जदयू में पहले से समझौता हुआ ही है. नीतीश के लिए भी बाबूलाल से मिलना फायदे का ही सौदा है. अगर नीतीश के पांच विधायक भी चुनकर आ गए, तो झारखंड की राजनीति में उनका दखल बना रहेगा. यह एक ऐसा गठबंधन हो सकता है, जो झारखंड में तीसरा मोर्चा खड़ा कर सकता है.

हालांकि आजसू सुप्रीमो इस पर अभी बोलने से कतरा रहे हैं, पर इतना जरूर कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी हो सकता है. आजसू अभी भाजपा गठबंधन में है, लेकिन सरकार की नीतियों का खुलकर विरोध कर रही है. सीएनटी-एसपीटी मुद्दे पर तो आजसू काफी मुखर है. भाजपा नेता अर्जुन मुंडा के साथ तो सुदेश का बहुत ही अच्छा सम्बंध था. लेकिन मुख्यमंत्री रघुवर दास से उनकी नहीं पट रही है और यही कारण है कि सरकार में रहते हुए भी आजसू सरकार के खिलाफ आग उगलती रहती है. अगर नीतीश यह मोर्चा बनाने में सफल रहे, तो चुनावी जंग में तीसरा मोर्चा चैंकाने वाले परिणाम दे सकता है.

झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी भी इस मोर्चे पर राजी हैं. इसका कारण भी साफ है कि अगर यह मोर्चा 25 सीट भी जीतने में कामयाब रहा, तो कांग्रेस और अन्य दलों का समर्थन लेकर सरकार बना सकता है. बाबूलाल की मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी में भी कोई बाधा सामने नहीं आएगी. इसलिए बाबूलाल भी पूरे दम-खम के साथ चुनावी तैयारी में लगे हुए है और इन्हें जनसमर्थन भी मिल रहा है. बाबूलाल की आदिवासी वोटरों पर अच्छी पकड़ है. पिछले चुनाव में उन्होंने आठ सीटों पर जीत दर्ज की थी, लेकिन भाजपा ने इनके छह विधायकों को अपने पाले में कर लिया.

उस दल-बदल का मामला अभी तक विधानसभा अध्यक्ष के न्यायालय में लंबित है. भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा डर बाबूलाल की पार्टी से ही है. भाजपा को यह भली-भांति पता है कि कुछ विधानसभा सीटों पर भले ही बाबूलाल की पार्टी की जीत न हो, लेकिन वह भाजपा को हराने का दमखम जरूर रखती है. गौततलब है कि बाबूलाल भाजपा में रहते हुए ही राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे. इस कारण उनका और भाजपा का कोर वोटर एक ही हैं. इन सब के बावजूद, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि झारखंड में किसी भी गठबंधन की राह आसान नहीं है.

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