आडवाणी जी की रथ यात्रा के बाद भाजपा को 180 सीटें मिलीं. ज़ाहिर है कि वह अब अपने लक्ष्य को देख रहे हैं. उस वक्त अयोध्या आंदोलन चरम पर था, क्योंकि वहां न केवल बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया, बल्कि उसी के साथ आंदोलन को भी ध्वस्त कर दिया गया. ऐसे में यह साफ़ हो गया है कि भाजपा 2014 की सत्ता की दौड़ में शामिल नहीं है. मैं नहीं जानता कि उनके सलाहकार कौन हैं, लेकिन वे यह महसूस नहीं कर रहे हैं कि आम आदमी के बीच उनकी छवि दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है. दरअसल, अब उन्हें ऐसे लोग चाहिए, जो मुसलमानों के हाथ-पांव काटने की बात करते हों और गुजरात में हुए दंगों के लिए ज़िम्मेदार हों. इस सबसे आम जनता के बीच यही संदेश जा रहा है कि भाजपा एक ऐसी ज़िम्मेदार पार्टी नहीं है, जिसके हाथों में देश की बागडोर सौंपी जा सके. अब बच जाती है कांग्रेस और अन्य पार्टियां.
अगर एक पूर्व मंत्री जेपीसी के सामने आना चाहता है और सुबूत पेश करना चाहता है, तो किसी भी विवेकपूर्ण व्यक्ति के लिए जेपीसी के सामने उपस्थित होने में आख़िर क्या दिक्कत है? ज़ाहिर है, कांग्रेस के पास छिपाने के लिए बहुत कुछ है. अभी कई सिविल ग्रुप्स (नागरिक समूह), जो कि औपचारिक रूप से किसी राजनीतिक व्यवस्था में शामिल नहीं हैं, अपनी आवाज़ उठा रहे हैं.
घपलों-घोटालों के लिए ज़िम्मेदार कांग्रेस पार्टी का आने वाले चुनाव में क्या हाल होने वाला है, यह देखना है. ऐसे में अन्य पार्टियों को साथ आना होगा, चुनाव से पहले या चुनाव के बाद, जैसी भी स्थिति बने. कई ऐसे राज्य हैं, जहां स़िर्फ भाजपा और कांग्रेस हैं. ऐसे राज्यों में या तो कांग्रेस को सीटें मिलेंगी या फिर भाजपा को. कुल मिलाकर तस्वीर अभी साफ़ नहीं है. हां, यह सच ज़रूर है कि अगर भाजपा ज़िम्मेदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करे, तो भले ही वह सरकार न बना पाए, लेकिन सरकार के गठन में उसकी भूमिका ज़रूर हो सकती है. हालांकि, कौन सा विकल्प चुनना चाहिए, इसे लेकर पार्टी का रुख़ स्पष्ट नहीं है. आरएसएस का अपना एजेंडा है. अगर आरएसएस के दीर्घकालिक एजेंडे को देखा जाए, तो उसमें मंदिर निर्माण, धारा 370 हटाने और समान नागरिक संहिता लागू करने जैसी बातें हैं. उसके लिए यह सब महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इस संविधान में किसी भी सरकार के लिए यह सब कर पाना आसान इसलिए नहीं होगा, क्योंकि डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी और फंडामेंटल राइट्स का उल्लंघन किए बिना यह सब काम संभव ही नहीं है.
कांग्रेस पार्टी के लिए ख़ुद को बेहतर बना पाने और सुधारने का वक्त अब ख़त्म हो चुका है. उसके लिए इतने घपलों-घोटालों का जवाब दे पाना और अपने शीर्ष नेताओं के बीच चल रहे मतभेदों से निपटना मुश्किल है. दरअसल, कांग्रेस उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में सक्षम नहीं है. सच तो यह है कि कांग्रेस ये सारी चीजें सुधार नहीं सकती, बल्कि उल्टे वह अपनी समस्याओं को छिपाना चाहती है और छिपा कर मान लेती है कि समस्या का समाधान हो गया, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं. कांग्रेस नहीं चाहती कि ए राजा जेपीसी के सामने आकर बोलें और सुबूत सौंपें और यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. प्रधानमंत्री के जेपीसी के सामने उपस्थित होने की मांग थोड़ी अतिरेक भरी हो सकती है, लेकिन उसमें रुकावट क्या है?
अगर एक पूर्व मंत्री जेपीसी के सामने आना चाहता है और सुबूत पेश करना चाहता है, तो किसी भी विवेकपूर्ण व्यक्ति के लिए जेपीसी के सामने उपस्थित होने में आख़िर क्या दिक्कत है? ज़ाहिर है, कांग्रेस के पास छिपाने के लिए बहुत कुछ है. अभी कई सिविल ग्रुप्स (नागरिक समूह), जो कि औपचारिक रूप से किसी राजनीतिक व्यवस्था में शामिल नहीं हैं, अपनी आवाज़ उठा रहे हैं. हम उम्मीद करते हैं कि ये नागरिक समूह जनता के गुस्से को आवाज़ देंगे और एक मुक़ाम तक पहुंचाएंगे, जहां एक तीसरा मोर्चा या एक ऐसी पार्टी अस्तित्व में आ सके, जो कम से कम शासन (गवर्नेंस) को 2014 के बाद पटरी पर लौटा दे. लोगों के अनुमान के मुताबिक़, वह भले ही पांच साल तक न चले, लेकिन दो साल तक भी ऐसी सरकार चल जाए, तो लोकतंत्र अपनी सही जगह पर वापस आ जाएगा, हालात में सुधार आ जाएगा. और ऐसा होना इस वक्त सबसे महत्वपूर्ण है. उम्मीद की जानी चाहिए कि जनता का आंदोलन सफल होगा.