स्वाधीनता के बाद से लेकर अब तक भारत में 15 संसदीय चुनाव हो चुके हैं और चंद दिनों में 16वां संसदीय चुनाव भी संपन्न हो जाएगा. हर बार की तरह इस बार भी चुनावी गतिविधियां जोर-शोर से जारी हैं. अंतर केवल इतना है कि चुनावी गतिविधियों का स्तर पहले की तुलना में अब बहुत गिर गया है. अगर साधारण तौर पर बात करें, तो यह कटु सत्य खुलकर सामने आता है. रही बात देश के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय मुसलमानों की, तो वहां भी यह गिरावट बहुत अधिक आ गई है. आपातकाल के बाद 1980 में हुए संसदीय चुनाव तक तो हालत कुछ ग़नीमत थी, लेकिन उसके बाद हुए तमाम चुनावों में स्तर, मूल्य एवं सिद्धांतों में गिरावट आती चली गई. मुस्लिम उलेमा एवं अन्य नेतृत्व की बात करें, तो पहले राजनीतिक पार्टियां और नेता उनके पास जाने में झिझकते थे और बहुत हिम्मत करके उनके यहां हाजिरी देते भी थे, तो केवल दुआ या आशीर्वाद लेने के लिए.
छोटे स्तर पर बात करें, तो बिहार राज्य में 1969 के विधानसभा चुनाव याद आते हैं. तब इस संवाददाता ने दरभंगा टावर चौक पर स्थित स्टेशनरी एवं किताब की दुकान के मालिक स्वर्गीय मौलाना जकी अशरफ, जो जमाते इस्लामी हिंद के स्थानीय अध्यक्ष एवं प्रसिद्ध धार्मिक व्यक्ति थे, से अपनी चुनावी टीम के साथ मिलने आए सीपीआई के तत्कालीन विधायक स्वर्गीय रामा वल्लभ जालान को देखा, जो मौलाना साहब के प्रति बहुत आस्था रखते हुए कह रहे थे, हमें मालूम है कि जमाते इस्लामी के सदस्य वोट नहीं डालते और व्यवहारिक राजनीति में भाग भी नहीं लेते हैं, मगर हम तो हर बार आपसे मात्र आशीर्वाद या दुआ लेने आते हैं और इस बार भी आए हैं. इसलिए आशीर्वाद दे दीजिए. फिर मौलाना साहब ने उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद भी दिया. इसी प्रकार उच्च स्तर पर प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी भी दारूल उलूम देवबंद के कुलपति स्वर्गीय कारी मोहम्मद तैय्यब और दारूल उलूम नदवतुल उलेमा लखनऊ के कुलपति स्वर्गीय मौलाना अली मियां की सेवा में हाजिर होती थीं. इस काम के लिए हेमवती नंदन बहुगुणा भी बहुत प्रसिद्ध थे.
फिर धीरे-धीरे वातावरण बदलने लगा. प्रतिष्ठित उलेमाओं की जगह वैसे उलेमा समुदाय में दिखाई पड़ने लगे, जिनका समाज में कोई प्रभाव नहीं था, जो किसी विचारधारा-सिद्धांत से जुड़े नहीं थे और जिन्हें अपनी मर्यादा की भी कोई चिंता नहीं थी. फिर एक ऐसा भी समय आया कि नई दिल्ली में कर्जन रोड, जो अब कस्तूरबा गांधी मार्ग के नाम से प्रसिद्ध है, के बीचोंबीच वक्फ़ की भूमि पर निर्मित एक छोटी-सी मस्जिद से लगी हुई भूमि पर बस गए स्वर्गीय मौलाना जमील अहमद इलियासी के पास पहले यहीं इंदिरा गांधी पहुंचाई गईं और फिर मौलाना साहब स्वयं दुआ देने एवं सफलता की भविष्यवाणी करने जाने लगे. उन्होंने स्वयं भी अपने जीवनकाल में इस संवाददाता से दावा किया कि 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी की उन्होंने पूर्व ही भविष्यवाणी कर दी थी, जिसके कारण मैडम का उनमें बहुत अधिक विश्वास हो चला था. स्मरण रहे कि यह वही मौलाना थे, जिन्होंने मस्जिद के इमामों का संगठन बनाया और अब उनके पुत्र मौलाना उमैर इलियासी उसके अध्यक्ष हैं. यह बात भी कम मजे की नहीं है कि मौलाना जमील इलियासी की इस करामात से दूसरी पार्टियों के नेता भी प्रभावित हो गए थे. इसके बाद वह दूसरी पार्टियों में भी बुलाए जाने लगे थे. 1999 और 2004 के संसदीय चुनावों के समय तो वह अन्य लोगों के साथ भाजपा की महफिलों में भी देखे जाते थे. एक बार तो अटल हिमायती गु्रप की भाजपा अध्यक्ष वेंकैया नायडू के निवास पर आयोजित एक विशेष बैठक में (2004 के संसदीय चुनाव के समय) उनसे बातचीत का अवसर मिला. बड़ी दिलेरी से सियासी गलियारों में वह अपने कारनामे गिना रहे थे.
यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि देश की आज़ादी में मुख्य भूमिका अदा करने वाले और उसके बाद समाज में सक्रिय जमीयतुल-उलेमा-ए-हिंद के अहम नेताओं को स्वाधीनता के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने कई बार नुमाइंदगी दी, संसद के दोनों सदनों में. शुरुआत में तो सब कुछ ठीकठाक था. सत्तारूढ़ समूह और जमीयतुल-उलेमा-ए-हिंद, दोनों में ईमानदारी थी, परंतु धीरे-धीरे दोनों में ही सियासी बाजीगरी आती चली गई. कभी-कभी तो नुमाइंदगी न मिलने पर दूसरी पार्टी की तरफ़ भी रुख किया गया, जिसका उदाहरण मौलाना महमूद मदनी की पिछले बार राज्यसभा में अजित सिंह के लोकदल की ओर से सदस्यता है. ग़ौरतलब है कि जहां इस संगठन का लालच बढ़ा, वहीं कांग्रेस ने इसे इस्तेमाल करके मुस्लिम समुदाय में फूट डालने की कोशिश की. दारूल उलूम देवबंद के कुलपति कारी मोहम्मद तैय्यब का मौलाना असद मदनी द्वारा 1980 के दशक के आरंभ में विरोध और फिर उन्हें देवबंद के मदरसे से बेदखल करके दिल्ली में स्थानांतरण के लिए मजबूर किया जाना भी देवबंद के मदरसे पर कांग्रेस की शह पर जमीयत द्वारा पूर्ण कब्जा करने का सफल प्रयास था. वैसे यह अलग बात है कि मदरसा तो बंटा और मुस्लिम समुदाय में फूट भी पड़ी, परंतु बाद में कारी तैय्यब के नेतृत्व में छोटा-सा ही, मगर दारूल उलूम (वक्फ़) के नाम से एक मदरसा अस्तित्व में आ गया और वह आज भी कायम है.
राजनीतिज्ञों और उलेमा द्वारा एक-दूसरे को इस्तेमाल करने की कहानी ख़त्म नहीं हुई है, बल्कि अब भी जारी है. राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ उलेमा की संख्या में भी वृद्धि हुई है. इन उलेमा में अधिकतर वे लोग हैं, जो राजनीतिक पार्टियों के पास स्वयं पहुंचते हैं आशीर्वाद लेने. प्रश्न यह है कि कैसा आशीर्वाद? स्पष्ट है कि यह आशीर्वाद संबंधित पार्टी से वफादारी की क़ीमत पर मिलता है. कहने को तो कहा जाता है कि आशीर्वाद, जिसमें भारी धनराशि भी शामिल होती है, चुनावी मुहिम चलाने एवं वातावरण अपने पक्ष में करने के निमित्त है, परंतु यह धनराशि कुछ लोगों के मामले में बहुत बड़ी होती है, तभी तो संबंधित उलेमा के फ्लैट और महल भी बाद में देखने को मिलते हैं. सच तो यह है कि इन उलेमा का आम जनता, विशेषकर मतदाताओं पर कोई प्रभाव नहीं पाया जाता. राजनीतिक पार्टियां इसी भ्रम में रह जाती हैं. इन उलेमा में कुछ बड़ी मस्जिदों के इमाम हैं, तो कुछ बड़े मदरसों के कुलपति. इन दिनों मौलाना यूसुफ कछौछवी एवं मौलाना तौकीर रजा खान भी बरेलवी यानी सूफी विचार के नाम पर किसी न किसी पार्टी से वफादारी करके आशीर्वाद ले रहे हैं. यही स्थिति पूर्व वर्णित मस्जिदों के इमामों के संगठन के अध्यक्ष मौलाना उमैर इलियासी की है. कारी मोहम्मद मियां मजहरी भी इस मामले में किसी से कुछ कम नहीं हैं. इनमें से अधिकतर अतीत में कभी कांगे्रस, तो कभी भाजपा से लाभांवित हुए हैं. मौलाना तौकीर रजा खान पर आम आदमी पार्टी ने भी पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय डोरे डाले थे.
दारूल उलूम नदवतुल उलेमा लखनऊ के शिक्षक मौलाना सलमान हसनी नदवी के बारे में जो ख़बर आ रही है, वह भी इसी सिलसिले की कड़ी है. कहा जाता है कि लंदन स्थित वर्ल्ड इस्लामिक फोरम के अध्यक्ष 69 वर्षीय मौलाना ईशा मंसूरी इन दिनों स्वदेश के दौरे पर हैं और यहां वह जफर सरेसवाला के सहयोग से मुस्लिम संगठनों एवं लोगों में से कुछ को भाजपा के हितों के लिए इस्तेमाल करने का जुगाड़ कर रहे हैं. ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव डॉक्टर मोहम्मद मंजूर आलम तो कहते हैं कि वह हमारे यहां आए थे, परंतु हमने उन्हें कोई महत्व ही नहीं दिया. कहा जाता है कि मौलाना ईशा मंसूरी की जफर सरेसवाला के भाई ओवैस सरेसवाला के साथ मौलाना हसनी नदवी से वसंतकुंज के एक छोटे-से मदरसे में भेंट हुई. याद रहे कि मौलाना साहब मोहम्मद अदीब द्वारा स्थापित मुस्लिम इत्तेहाद फ्रंट के अध्यक्ष भी हैं, जिसके 13 उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव भी लड़ रहे हैं और जिसका उद्देश्य केवल इतना है कि घनी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या अधिक हो, ताकि वहां मुस्लिम मतों का विभाजन हो सके. स्पष्ट है कि ऐसा होने से कुछ क्षेत्रों में भाजपा का हित होता है और ऐसी सीटों पर उसके उम्मीदवार कामयाब भी हो जाते हैं.
यह बात सर्वविदित है कि जब परिस्थितियां यू-टर्न ले चुकी हैं और राजनीतिज्ञों के उलेमा के पास जाने के बजाय उलेमा अपना महत्व जताने के लिए खुद राजनीतिज्ञों के पास आने लगे हैं, तो ऐसे में इन उलेमा का वजन घटेगा और प्रभाव भी कम होगा. यही हो भी रहा है. इसी माहौल में जब यह समाचार मिलता है कि जामा मस्जिद दिल्ली के शाही इमाम मौलाना सैय्यद अहमद बुखारी द्वारा हालिया गठित तीन सदस्यीय विशेष समिति ने कांग्रेस एवं यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से भेंट की है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होता है. स्पष्ट है कि इससे पहले राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य नवेद हामिद भी सात महत्वपूर्ण व्यक्तियों, जिनमें ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत के अध्यक्ष डॉक्टर जफरुल इस्लाम खां एवं जमाते इस्लामी हिंद के महासचिव नुसरत अली आदि शामिल थे, के साथ सोनिया से मिले थे और उन्हें एक स्मरण पत्र दिया था. कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम मौलाना बरकाती ने भी अभी हाल में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की दिल्ली से वापसी के बाद हुए एक सम्मेलन में उन्हें सलाह दे डाली कि चुनाव पश्चात वह कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए को समर्थन देकर उसे फिर से सत्ता में लाने के लिए तैयार रहें. जाहिर-सी बात है कि इन सब घटनाओं का कोई मतलब भी है. यह सब यूं नहीं हो रहा है. यहां भी राजनीतिज्ञों एवं उलेमा के बीच साठगांठ खुले रूप से दिखाई पड़ रही है.
यह निश्चय ही बड़े शर्म की बात है कि उलेमा, जो आदरणीय माने जाते हैं, में से अधिकतर अपनी हैसियत की परवाह न करते हुए राजनीतिक पार्टियों के हथकंडों के शिकार हो जाते हैं और अपनी छवि दागदार कर लेते हैं, जिससे उनका समाज में प्रभाव कम हो जाता है. इस प्रवृृति को फौरन रोकना बहुत ज़रूरी है. इसका रुकना देश, समुदाय, उलेमा एवं राजनीतिक पार्टियों के हित में है. उलेमा गलत इस्तेमाल होते हैं, चंद पैसों के लिए. राजनीतिक पार्टियों को भी उनका प्रभाव न होने के कारण मुसलमानों का वोट नहीं मिल पाता है. साधारण मुस्लिम मतदाता अब स्वयं जागरूक हो चुका है. वह अपना अच्छा-बुरा दोनों जानता है, राजनीतिक पार्टियों एवं उनके उम्मीदवारों के झूठे वादों को भी जानता है, उनकी चाल और जाल को पहचानता है. इसलिए वह इन उलेमा से हटकर स्वयं अपनी राय बनाएगा और अपने क्षेत्र के संपूर्ण विकास के लिए, भ्रष्टाचार और अपनी आर्थिक बदहाली की ज़िम्मेदार मौजूदा आर्थिक नीति ख़त्म करने के लिए ही अपना मत इस्तेमाल करेगा.
उलेमा की घटती साख
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