देश में उच्च शिक्षा में उच्च स्तर पर घपलेबाज़ी का बड़ा खेल चल रहा है. कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के लिए माई-बाप समझी जाने वाली संस्था-विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी-ने बड़े पैमाने पर निजी संस्थानों को समकक्ष यानी डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देकर देश में एक समानांतर शिक्षा व्यवस्था खड़ी कर दी है. वह भी केंद्र सरकार और उसके मानव संसाधन विकास मंत्रालय की आंखों के सामने. इस घपलेबाज़ी को अदालत से लेकर संसद की समिति तक पकड़ चुकी है, पर सरकार है कि कार्रवाई के बदले बयानबाज़ी कर रही है.
कितनी अजीब बात है कि जिस देश में शिक्षा और शैक्षिक संस्थानों की सबसे अधिक चर्चा होती है, वहां दुनिया के  सबसे अधिक निरक्षर वयस्क रहते हैं. भारत सरकार, राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक चाहे तो इस पर गर्व कर ले, हम तो शर्मसार हैं. भारतीय लोकतंत्र की इन शिखर संस्थाओं की उदासीनता से भी हम चकित हैं कि इन सबका ज़ोर उस उच्च शिक्षा पर अधिक रहता है, जिसे देश की आबादी की केवल नौ फीसदी ही प्राप्त करती है. यह कहते हुए हम सब गर्व करते हैं कि भारत गांवों का देश है, लेकिन क्या यह भी उतना ही गर्व करने लायक है कि ग्रामीण इलाक़ों में उच्च शिक्षा की दर महज़ सात से आठ फीसदी है. इसके विपरीत संपन्न इलाकों में यह 27 फीसदी है.
यह तो हुई एक बात. दूसरी बात यह कि मनमोहन सिंह के  नेतृत्व में दोबारा सत्ता में आई यूपीए सरकार ने शिक्षा में सुधार के लिए सौ दिनों का जो एजेंडा तय किया है, उसमें भी सबसे अधिक ज़ोर उच्च शिक्षा पर ही है.  सौ दिन के इस एजेंडे को उस मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तैयार किया है, जिस पर देश में शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने का ज़िम्मा है. लेकिन उसकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर फॉरेन एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन (रेगुलेशन ऑफ इंट्री एंड ऑपरेशन, मेंटनेंस ऑफ क्वालिटी एंड प्रिव्हेंशन ऑफ कॉमर्सलाइज़ेशन) बिल को पारित कराना है. यानी भारत में गुणवत्ता युक्त उच्च शिक्षा सुनिश्चित कराने के लिए विदेशी यूनिवर्सिटी को शैक्षणिक संस्थान खोलने की छूट होगी. इन विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा मिलेगा और वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के  (यूजीसी) के नियमों के तहत ही संचालित होंगी. उसी तरह, जिस मनमाने ढंग से देश भर में अनगिनत और कुख्यात डीम्ड यूनिवर्सिटी चल रही हैं.
यानी इस सरकार की आंख पर जो नज़र का चश्मा चढ़ा है, वह उच्च और तकनीकी शिक्षा से अधिक नहीं देख पाता. तो क्या बेसिक और प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए बड़े क़दम नहीं उठाए जाएंगे? हम बता दें, नहीं. इसलिए कि उससे जेबें नहीं भरतीं. यही कारण है कि 1956-1990  के  बीच देश भर में जहां 29  संस्थान ही डीम्ड यूनिवर्सिटी बने थे, वहीं पिछले 18 साल में 93 और बन गए. इतना ही नहीं, केवल पिछले नौ सालों में ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मेहरबानी से 95 संस्थानों को डीम्ड का दर्जा दिया गया, जिनमें से लगभग सभी मेडिकल कॉलेज या विश्वविद्यालय हैं. इनमें से 40 एनडीए के  शासनकाल (1991-2004) में बने तो बाक़ी 50 मनमोहन सिंह की पिछली सरकार के दौरान बने. यूजीसी के आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2008 तक देश भर में कुल डीम्ड यूनिवर्सिटी की संख्या 122 तक पहुंच चुकी थी. ये आंकड़े 1956 से इसलिए शुरू किए गए हैं, क्योंकि यूजीसी इसी साल अस्तित्व में आया था. ज़ाहिर है, सरकारी सर्टिफिकेट से कुकुरमुत्ते की तरह उग रही शैक्षणिक संस्थाओं को मान्यता मिल जाती है और वे शिक्षा के  बाज़ार में मनमानी लूट की हकदार बन जाती हैं. यही कारण है कि डीम्ड यूनिवर्सिटी कही जाने वाली इन संस्थाओं में कैपिटेशन फीस के  नाम पर  छात्रों का जमकर आर्थिक शोषण हो रहा है. शिक्षा के बाज़ार में यह खुला सौदा है कि एक से दस लाख रुपये देकर इंजीनियरिंग कोर्स में दाख़िला मिल जाता है. जबकि एमबीबीएस कोर्स के लिए 20 से 40 लाख रुपये और डेंटल कोर्स के लिए पांच से 12 लाख रुपये देने पड़ ही इन संस्थाओं में दाख़िला मिलता है. और तो और, आर्ट  व साइंस के पाठ्यक्रमों में 30 से 50 हजार रुपये तक वसूल लिए जाते हैं. तमिलनाडु के दो मेडिकल कॉलेजों का मामला अभी पकड़ा गया है. इस विवाद के  बाद मानव संसाधन मंत्रालय ने डीम्ड यूनिवर्सिटी के  तमाम नए प्रस्तावों पर रोक लगा दी है. साथ ही कैपिटेशन फीस को लेकर फंसे श्री रामचंद्र यूनिवर्सिटी और श्री बालाजी मेडिकल कॉलेज के ख़िलाफ़ जांच भी बैठा दी है. इस मामले में सूचना व प्रसारण राज्य मंत्री एस. जगतरक्षकन पर भी आरोप लगे हैं. कहा गया है कि श्री बालाजी मेडिकल कॉलेज जिस भारत विश्वविद्यालय के तहत चल रहा है, मंत्री महोदय उसके कुलपति हैं. यह दूसरी बात है कि जगतरक्षकन ने इससे इंकार किया है. बहरहाल, यह तो जांच से ही साफ हो सकेगा कि सच क्या है. उधर, सुप्रीम कोर्ट से कैपिटेशन फीस पर रोक के  बावजूद इस तरह की फीस वसूलने वाली श्री रामचंद्र यूनिवर्सिटी के  प्रबंधन बोर्ड में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के  अध्यक्ष केतन देसाई और उपाध्यक्ष पीसीके नायर भी हैं. ग़ौरतलब है कि इस यूनिवर्सिटी पर एमबीबीएस कोर्स में दाख़िले के लिए प्रति छात्र 40 लाख रुपये तक लेने का आरोप है. एमसीआई वह संस्थान है, जो मेडिकल कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का नियंत्रण रखती है.

सच का हमेशा गला घोंटा गया
यूजीसी तो डीम्ड यूनिवर्सिटी का सर्टिफिकेट इस तरह बांट रही है, जैसे किसी को ड्राइविंग लाइसेंस देने के  बाद कहा जाए-जाओ ड्राइविंग सीख लेना.Sukhadeo
यह टिप्पणी है यूजीसी के पूर्व सचिव राजू शर्मा की. उनकी इसी साफगोई के  कारण पिछले साल उन्हें यूजीसी से हटा दिया गया. सिर्फ़ दो-तीन महीने में ही. जबकि उनकी नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट की नियुक्ति समिति ने की थी. उत्तर प्रदेश कैडर के  1982 बैच के आईएएस अधिकारी राजू शर्मा यूजीसी जाने से पहले पीएमओ में थे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उनसे बेहद प्रभावित थे. यूजीसी अध्यक्ष सुखदेव थोराट ने दो-तीन महीने बाद ही अप्रैल 2008 में उन्हें मनमाने ढंग से सिर्फ़ इसलिए हटा दिया कि वह आयोग के  कामकाज पर उंगली उठा रहे थे. फ़ैसलों में पारदर्शिता नहीं बरते जाने के कारण फाइलों पर प्रतिकूल टिप्पणियां लिख रहे थे. दरअसल तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह के क़रीबी कहे जाने वाले यूजीसी अध्यक्ष श्री थोराट ने उस पूरे मामले को अपनी जासूसी के  तौर पर लिया. उन्हें लगा कि पीएमओ उनके ख़िलाफ़ शिकायतों के आधार पर उनकी जासूसी कराना चाहता है. इसलिए यह कहते हुए राजू शर्मा को हटा दिया कि उनको डेढ़ साल बाद अपने मूल कैडर में लौटना है, जबकि यूजीसी सचिव का कार्यकाल पांच साल का होता है. राजू शर्मा की विदाई के  बाद ही वर्तमान सचिव आरएस चौहान साहब आए. राजू शर्मा ने यूजीसी के अतिमहात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट-ई गवर्नेंस-की ख़ामियों को उजागर किया था. वह पहले व्यक्ति थे, जिसने नैनो जैसे आधुनिकतम तकनीक की पढ़ाई के  नाम पर डीम्ड यूनिवर्सिटी के  सर्टिफिकेट देने में बड़े पैमाने पर हो रही घपलेबाज़ी को उजागर की थी. उनके छोटे से कार्यकाल में ही आलम यह था कि वह जिस किसी प्राइवेट संस्थान को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने वाली फाइल पर प्रतिकूल टिप्पणियां लिखते थे, उसे यूजीसी अध्यक्ष थोराट बग़ैर कोई सलाह-मशविरा किए पलट देते थे.
वैसे थोराट गुट का कहना कुछ और है. इस गुट के  मुताबिक हितों में टकराव के  कारण ही राजू शर्मा को जाना पड़ा. उन्हें हटाने के फ़ैसले के  पीछे वजह दरअसल उनकी पत्नी थीं. उनकी पत्नी संगीता लूथरा शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय के  सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ाती हैं. आरोप है कि जब सेंट स्टीफन कॉलेज के प्रिंसिपल वाल्सन थंपू के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहा था तब श्रीमती शर्मा उसमें बढ़-चढ़कर भाग ले रही थीं. थंपू मामले में अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग (एनसीएमईआई) जब सुनवाई कर रहा था, तब उसने यूजीसी से पूछा था कि क्या बिना पीएच. डी किए कोई व्यक्ति कॉलेज का प्रिंसिपल हो सकता है. आरोप है कि राजू शर्मा ने इसकी फाइल यूजीसी अध्यक्ष सुखदेव थोराट को दिखाए बग़ैर अपनी ओर से राय भेज दी-नहीं. हालांकि राजू शर्मा के  क़रीबी लोगों का स्पष्ट कहना है कि एनसीएमईआई को इस संबंध में भेजे गए पत्र पर श्री थोराट का दस्तख़त है, जो बताता है कि यह फ़ैसला उनका ही था.

बहरहाल, निजी संस्थानों को जिस तेज़ी से डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया, वह बताता है कि इसके लिए आवश्यक जांच-पड़ताल भी नहीं की गई. यानी ग़ैरक़ानूनी ढंग से बने. और जिसका वजूद ही ग़ैरक़ानूनी होगा, वहां नियमों के पालन का सवाल ही नहीं उठता. नियमों की सबसे अधिक धज्जियां दाख़िले और फीस में उड़ाई जा रही हैं. इन संस्थानों में ग़रीब छात्रों को दाख़िला नहीं मिलता. जबकि सरकार से जब इन्हें सस्ती दरों पर ज़मीन दी जाती है, तब ग़रीब छात्रों से जुड़ी शर्तें भी रहती हैं और उन्हें मानने का वादा भी किया जाता है. लेकिन जिस देश में सरकार बनाने वाले ही वादे नहीं निभाते हों, वहां विशुद्ध दुकानदारी कर रही उच्च शिक्षण संस्थानों से उम्मीद करनी ही बेकार है. हद तो यह कि इन  डीम्ड यूनिवर्सिटियों  की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिए रेगुलेटरी बॉडीज़ तो हैं, पर वे दिखावे के  ही ज़्यादा हैं.
डीम्ड यूनिवर्सिटी का तात्पर्य एक ऐसे शैक्षिक संस्थान से होता है, जो लगभग यूनिवर्सिटी के समान होता है. इसलिए हिंदी में इसे सम विश्वविद्यालय भी कह दिया जाता है. इस तरह के संस्थानों को शिक्षकों की नियुक्तिसे लेकर डिग्री, पाठ्यक्रम, पढ़ाने का तरीक़ा और फीस सब तय करने का अधिकार होता है. लेकिन यह दर्जा किस तरह के संस्थानों को दिया जाए, इसका आधार यूजीसी के सामने साफ नहीं है. पहले ऐसे कॉलेजों या संस्थाओं को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा मिल जाता था, जो किसी क्षेत्र विशेष में अत्यंत विशेषज्ञतापूर्ण कार्य कर रही हों या शिक्षण के क्षेत्र में जिनकी साख हो. इस तरह के संस्थानों में नेशनल म्यूज़ियम और दिल्ली स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर उल्लेखनीय हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों से यह बड़े घोटाले का एक सरल सा ज़रिया बन गया है.

यूजीसी को जल्द ही मिल सकता है नया अध्यक्ष

kapilख़बर गर्म है कि यूजीसी अध्यक्ष सुखदेव थोराट की विदाई होने ही वाली है. नए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा यूजीसी की सार्वजनिक आलोचना से ख़ुद थोराट भी आहत बताए जा रहे हैं. इसलिए ऐसी चर्चा भी है कि श्री थोराट ख़ुद भी पद छोड़ सकते हैं. सूत्रों के  मुताबिक थोराट की जगह डॉ. वेद प्रकाश यूजीसी को नया अध्यक्ष बनाया जा सकता है. डॉ. वेद प्रकाश इस समय यूजीसी के  उपाध्यक्ष हैं. उन्हें हाल ही में यूजीसी लाया गया है. इससे पहले वह राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय (एनयूपीए) में कुलपति थे. शिक्षा जगत में उनकी अलग पहचान और सम्मान है. वह बतौर सचिव पहले भी यूजीसी में रह चुके हैं. वह कर्मचारी चयन आयोग में संयुक्त सचिव से लेकर योजना आयोग के  शिक्षा सलाहकार और एनसीईआरटी में प्रोफेसर और प्रमुख तक के अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं.

अचरज की बात यह कि तमिलनाडु में तीन मेडिकल कॉलेजों को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा जब दिया गया, उससे काफी पहले ही वहां दाख़िले शुरू हो चुके थे. इसी तरह राज्य में तीन ऐसे भी कॉलेज भी हैं, जिन्हें डीम्ड का दर्जा मिलने से पहले ही उनका पहला बैच पास हो कर निकल चुका था. इस तरह के एक-एक उदाहरण गुजरात, हरियाणा और पांडिचेरी में भी हैं. यह घोटाला बताता है कि इन संस्थाओं को डीम्ड यूनिवर्सिटी बनाने से पहले उनके यहां की पढ़ाई और अन्य सुविधाओं की जांच ही नहीं की गई. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि इन संस्थाओं को राजनीतिक रूप से मज़बूत और समाज के असरदार लोग चला रहे हैं. इसीलिए इस तरह  का मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज कोई सामान्य आदमी नहीं खोलता. ऐसी अधिकतर संस्थाएं आम तौर पर राजनीतिक रसूख रखने वालों की हैं जो उन्होंने छद्म नाम से खोल रखी हैं. इससे उन्हें सीधे-सीधे दो लाभ मिलते हैं. एक तो अपने इलाक़े छवि एक ऐसे आदमी की बन जाती है जो शिक्षा के लिए काम करता है. दूसरे, भारी-भरकम कैपिटेशन फीस के ज़रिए हर साल  करोड़ों रुपये की कमाई हो जाती है. केंद्रीय सूचना व प्रसारण राज्य मंत्री एस. जगतरक्षकन तक इसी तरह के एक यूनिवर्सिटी से जुड़े होने के कारण विवादित हो चुके हैं.
इसके  लिए पहली बार सीधे-सीधे मानव संसाधन मंत्रालय और यूजीसी की भूमिका पर उंगली उठी ही नहीं, बल्कि तन भी गई है. मज़ेदार बात यह कि इसके लिए दोनों एक-दूसरे पर उंगली उठा रहे हैं. नए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कमान संभालते ही यूजीसी के कामकाज की समीक्षा शुरू कर दी है. यूपीए की पिछली सरकार में अर्जुन सिंह के  मानव संसाधन विकास मंत्री रहते बड़े पैमाने पर डीम्ड विश्वविद्यालयों को मंजूरी देने और दो सौ करोड़ रुपये के ई-गवर्नेंस प्रोजेक्ट को लेकर आयोग फंस चुका है. दो सौ करोड़ रुपये के  ई-गवर्नेस प्रोजेक्ट की जांच में केंद्रीय सतर्कता आयोग भी यूजीसी को ग़लत करार दे चुका है. यूजीसी ने इस प्रोजेक्ट को मंत्रालय के दो बड़े अफसरों की असहमति के बावजूद दी थी.
लेकिन डीम्ड यूनिवर्सिटी की मान्यता वाले खेल में यूजीसी के अधिकारी सीधे-सीधे मानव संसाधन विकास मंत्रालय को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. यूजीसी के  सचिव आरके  चौहान कहते हैं कि इस मामले में यूजीसी की भूमिका सिर्फ़ सलाहकार की होती है और डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने का अधिकार मंत्रालय को ही है. इसके  लिए रिव्यू कमेटी को आड़ बना कर पूरा गड़बड़झाला किया जाता है. यानी अगर किसी संस्थान की समीक्षा रिपोर्ट ठीक नहीं आती है, तो उसकी पुनर्समीक्षा करा दी जाती है. इसके लिए रिव्यू कमेटी भेजने का फ़ैसला पूर्ण आयोग की बैठक में लिया जाता है, जिसकी बैठक में उच्च शिक्षा सचिव से लेकर मंत्रालय के बड़े-बड़े अधिकारी तक शामिल रहते हैं. इसलिए कई बार तो यूजीसी की सलाहों को दरकिनार कर रिव्यू कमेटी की सिफ़ारिशों पर संस्थानों को डीम्ड यूनिवर्सिटी के सर्टिफिकेट दे दिए गए. जैसे तमिलनाडु के  पेरियार यूनिवर्सिटी को ही लें. उसकी समीक्षा के लिए यूजीसी की पहली समिति ने 2007 में दौरा किया था. उसने कई ख़ामियां पाईं, जिससे उसका मामला फंसने लगा. ऐसे में उसी साल जुलाई में यूजीसी ने दूसरी समिति भेज दी और उसने सब कुछ ठीक बता दिया. इसके  बाद अगस्त 2007 में उसे डीम्ड विश्वविद्यालय घोषित कर दिया गया.
ऐसा ही एक मामला मेरठ का है. डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने के लिए आई अर्जी पर यूजीसी ने जनवरी 2006 में एक समिति वहां भेजी. उस समिति ने आम तौर पर काफी कुछ ठीक पाया, लेकिन कुछ क्षेत्रों में कमियां भी दिखा दीं. वे कमियां क्या थीं, यह तो नहीं बताया गया लेकिन उसी साल अप्रैल में यूजीसी की रिव्यू कमेटी ने वहां का दौरा किया और उसने उसे हरी झंडी दे दी. इसी तरह अहमदाबाद के  सुमनदीप मेडिकल कॉलेज का भी उदाहरण है. अगस्त 2006 में उसे डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने लायक नहीं पाया गया था, लेकिन छह महीने के  भीतर ही यानी जनवरी 2007 में उसे हरी झंडी दे दी गई. कहना न होगा कि सरकारी कामकाज में इतनी तेज़ी कर्तव्यपरायणता और निष्ठा से अधिक दूसरे और अनैतिक कारणों से ही आती है. आम आदमी निगम स्तर पर एक ़फाइल को आगे बढ़ाने के लिए जिस तरह दस-बीस रुपये देकर काम निकाल लेता है, वही फार्मूला उच्च स्तर पर भी लागू होता है. लेकिन यहां रकम काफी होती है.
इससे ठीक उलट एक उदाहरण नोएडा स्थित एमिटी विश्वविद्यालय का है. एमिटी की स्थापना उत्तर प्रदेश सरकार की अनुमति से हुई. इसके  लिए राज्य सरकार ने एमिटी विश्वविद्यालय अधिनियम तक बना रखा है. लेकिन यूजीसी उसकी डिग्री को यह कहकर मान्यता देने से वर्षों इंकार करती रही कि प्राइवेट यूनिवर्सिटी खोलने के लिए उससे अनुमति नहीं ली गई. यूजीसी ने इसी कारण अपनी वेबसाइट पर एमिटी का नाम शुरू में नहीं डालती थी. लेकिन नवंबर 2007 में दिल्ली हाई कोर्ट ने साफ कह दिया कि यूनिवर्सिटी स्थापित करने के  लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की मान्यता ज़रूरी नहीं है. न्यायमूर्ति मुकुल मुदगल और न्यायमूर्ति रीवा खेत्रपाल की खंडपीठ ने एक जज वाली बेंच के  ़फैसले को सही करार देते हुए यूजीसी को निर्देश दिया कि वह एमिटी यूनिवर्सिटी को मान्यता प्रदान करे. इस बेंच ने यूजीसी की वह याचिका भी ख़ारिज़ कर दी, जिसमें उसने जुलाई 2007 में एकल न्यायाधीश वाली पीठ के  फ़ैसले को चुनौती दी थी. दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने कहा कि बेशक़ यूजीसी के पास स्तर बनाए रखने के  लिए नियम बनाने की शक्तिहै, लेकिन संविधान में यह साफ है कि यूनिवर्सिटी गठित करने का अधिकार राज्य विधायिका का है और इसके लिए यूजीसी की मंजूरी ज़रूरी नहीं है. अदालत ने यूजीसी को एमिटी की डिग्रियों को मान्यता देने का भी निर्देश दिया. हाई कोर्ट के  इस फ़ैसले के बाद यूजीसी ने अपनी वेबसाइट पर एमिटी यूनिवर्सिटी का नाम डीम्ड यूनिवर्सिटी वाली सूची में डाल तो दी है, लेकिन इस सूचना के  साथ कि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. यानी हाई कोर्ट के  इस फ़ैसले को उसने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी हुई है. वहां भी उसने यही कहा है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने एक क़ानून बनाकर यूनिवर्सिटी की स्थापना की है और इसके लिए उसने उसकी की पूर्व मंजूरी नहीं ली है. यहां यह ध्यान दिला दें कि यूजीसी के सचिव श्री चौहान ने हाल के विवादों पर यूजीसी का पक्ष रखते हुए कहा है कि आयोग का काम स़िर्फ स़िफारिश करना है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग देश के  सभी विश्वविद्यालयों के कामकाज की निगरानी करने, उनके वित्तीय पोषण और अकादमिक विकास के लिए उत्तरदायी संस्था है. इसलिए राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रशासनिक चूक के  कारण इसके  स्तर में गिरावट उसकी अविश्वसनीयता को ही बढ़ाएगा. इसी के मद्देनज़र पिछले दिनों राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की शैली और प्रासंगिकता पर तीखे सवाल उठाए थे. और तो और, उच्च शिक्षा पर बनी यशपाल कमिटी ने भी उसके  कामकाज के  तरीक़े पर गंभीर सवाल उठाए हैं. यह समिति पिछले साल फरवरी बनी थी और इसने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में इस साल पहली मार्च को सरकार को सौंप दी है. इस रिपोर्ट पर यक़ीन करें (न करने का कोई कारण नहीं है) तो पिछले 40 सालों से उच्च शिक्षा के  क्षेत्र में कोई बड़ा सुधार नहीं किया गया है. यूजीसी के पूर्व चेयरमैन प्रो. यशपाल के नेतृत्व में बनी इस समिति ने निजी और डीम्ड यूनिवर्सिटी को लेकर भी काफी और गंभीर सवाल उठाए हैं.
प्रो. यशपाल की दो टूक राय है कि पिछले कुछ सालों से जिस तरह से प्राइवेट संस्थाओं को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया जा रहा है,  उस पर रोक लगनी चाहिए. जो यूनिवर्सिटी नियमों का पालन नहीं करते, उनसे तीन साल बाद डीम्ड का दर्जा ज़रूर वापस ले लिया जाए.
यूजीसी, टेक्नीकल कोर्सेस की मान्यता देने वाली अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई), और मेडिकल कोर्सों को मान्यता देने वाली एमसीआई जैसी संस्थानों के  रहते भारत में उच्च शिक्षा की क्या स्थिति है, यह संसद की प्राक्कलन समिति की 17वीं रिपोर्ट से भी स्पष्ट हो जाती है. संसदीय समिति का कहना था कि, समिति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गुणवत्ता और मात्रा के  अपर्याप्त स्तर को देखकर चिंतित है. इतना ही नहीं, देश में लगभग 400 विश्वविद्यालय और  समकक्ष (डीम्ड) विश्वविद्यालय होने के  बावजूद यहां हर साल मात्र पांच हज़ार  छात्र ही पीएचडी करते हैं, जबकि अमेरिका में प्रतिवर्ष 25 हज़ार तो चीन में 35 हज़ार छात्र पीएचडी करते हैं. पीएचडी के मामले में ही नहीं, बल्कि शोधपत्रों और पेटेंट के मामले में भी हम अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे हैं. वर्ष 2005 में भारत के पास 648 पेटेंट थे, जबकि चीन के पास 2,452,  अमेरिका के पास 4,511 और जापान के  पास 25,145 पेटेंट थे. अनुसंधान पत्रों के प्रकाशन में विश्व में भारत का हिस्सा मात्र 2.5 प्रतिशत है, जबकि विश्व अनुसंधान पत्रों के प्रकाशन में अमेरिका 32 फीसदी की भागीदारी निभाता है.
ऐसा नहीं है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में यह कोई लाइलाज रोग है. इसका इलाज तो है, लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति अवश्य नहीं है. यह कितनी शर्मनाक बात है कि जिस यूजीसी के चेयरमैन कभी ख़ुद डॉ. मनमोहन सिंह रह चुके हों, उनकी ही पिछली सरकार में डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने में सबसे बड़ा घोटाला हो गया. ग़ौरतलब है कि 1991 में नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री बनने से पहले वह यूजीसी के चेयरमैन ही थे, लेकिन उनका यह कार्यकाल थोड़े दिनों के लिए ही रहा था. मनमोहन सिंह 15 मार्च 1991 से 20 जून 1991 तक यूजीसी में रहे.
बहरहाल, यशपाल समिति ने घोटालों और तमाम गड़बड़झालों पर रोक लगाने के मक़सद से यूजीसी, एआईसीटीई और एमसीआई आदि को ख़त्म कर एक उच्च शिक्षा आयोग बनाने की स़िफारिश की है. केंद्र से लेकर राज्य स्तर के सभी विश्वविद्यालय इस आयोग के अधीन ही होंगे और यह बिना कोई भेदभाव किए सबसे लिए समान नीति बनाएगा. फंड का बंटवारे में भी वह कोई भेदभाव नहीं करेगा. यही आयोग डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने का काम भी देखेगा. समिति ने इस आयोग के अध्यक्ष की नियुक्तिके लिएएक उच्चाधिकार समिति बनाने की भी स़िफारिश की है. उस समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को बतौर सदस्य रखने की बात कही गई है.
लेकिन लोगों की आम राय यही है कि इन स़िफारिशों पर अमल करना आसान नहीं होगा. इसलिए कि अगर ये संस्थाएं बंद हो गईं, तो फिर अपने लोगों को खपाने का बड़ा ज़रिया ही ख़त्म हो जाएगा. दूसरे, जिस देश में स्कूल-कॉलेज ही राजनीति के अखाड़े बन गए हों, वहां से राजनीतिक दल और उसके नेता अपना गर्भनाल कैसे और क्यों काट लेंगे ?

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