रोज़मर्रा की इन गतिविधियों से घरेलू उपभोग के लिए तो संसाधन जुटाए जा सकते थे, लेकिन महंगाई व सीमित संसाधनों को देखते हुए उसके आधार पर बच्चों के बेहतर भविष्य की ख़ातिर अच्छी शिक्षा के लिए धन जुटाना मुश्किल हो रहा था. महिलाओं की आर्थिक स्थिति इतनी कमज़ोर थी कि अपने बच्चों को स्कूल भेज पाना और उसका ख़र्च उठाना मुश्किल हो रहा था.
भरतपुर जिले के बहताना गांव की महिलाओं की ज़िंदगी तब तक गांव-देहात की सामान्य महिलाओं की तरह ही हुआ करती थी, जब तक कि उन्होंने तुलसी माला उत्पादन के गुर नहीं सीख लिए थे. आज बहताना की महिलाएं आत्मनिर्भरता की ओर क़दम बढ़ा रही हैं.
राजस्थान के भरतपुर जिले के डीग तहसील के बहताना गांव की महिलाओं की ज़िंदगी आम ग्रामीण महिलाओं से इतर बिल्कुल नहीं थी. इसके बावजूद, ग्रामीण परिवेश में रहकर भी तमाम सामाजिक वर्जनाओं के बीच आज बहताना की महिलाओं ने ख़ुद को आत्मनिर्भर बनाने का रास्ता खोज लिया है. सामान्यत: अन्य गांवों की तरह अधिकांश स्थानीय महिलाओं का समय खेती एवं पशुपालन जैसे कामों में बीत जाता था. रोज़मर्रा की इन गतिविधियों से घरेलू उपभोग के लिए तो संसाधन जुटाए जा सकते थे, लेकिन महंगाई व सीमित संसाधनों को देखते हुए उसके आधार पर बच्चों के बेहतर भविष्य की ख़ातिर अच्छी शिक्षा के लिए धन जुटाना मुश्किल हो रहा था. महिलाओं की आर्थिक स्थिति इतनी कमज़ोर थी कि अपने बच्चों को स्कूल भेज पाना और उसका ख़र्च उठाना मुश्किल हो रहा था. लेकिन जब से बहताना की महिलाओं ने अपने घर में ही तुलसी माला निर्माण का कार्य शुरू किया है, तब से उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आने लगा है. अब बहताना गांव की महिलाएं आर्थिक दृष्टि से तो आत्मनिर्भर हुई ही हैं, साथ ही परिवार में उनका सम्मान भी बढ़ा है. आज बहताना गांव में क़रीब 150 महिलाएं तुलसी माला बनाकर प्रति माह चार से पांच हज़ार रुपये आसानी से कमा रही हैं. इतना ही नहीं, इस व्यवसाय के लिए उन्हें अपने गांव से बाहर भी नहीं जाना पड़ता. कच्चा व तैयार किया हुआ माल व्यापारी स्वयं ही उपलब्ध करा जाते हैं और मज़दूरी भी उसी समय दे जाते हैं.
तीन वर्ष पूर्व स्वयंसेवी संस्था लुपिन ह्यूमन वेलफेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन ने डीग तहसील के बहताना गांव में उपलब्ध संसाधनों एवं लोगों की रुचि की जानकारी जानने के लिए एक सर्वे किया. इसमें यह बात सामने आई कि उत्तर प्रदेश के गोवर्धन, मथुरा एवं वृंदावन जैसे धार्मिक स्थलों के पास होने के कारण बहताना गांव में धार्मिक महत्व पर आधारित उद्यमीय प्रयोग आसानी से सफल हो सकते हैं. इसी बात को ध्यान में रखते हुए काम शुरू कर दिया गया. सबसे पहले उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के जैंत गांव से तुलसी माला निर्माण का प्रशिक्षण देने वाले नेमचंद लोधा को बहताना की महिलाओं को प्र्रशिक्षित करने के लिए बुलाया गया और दस दिन का गहन प्रशिक्षण महिलाओं को दिलाया गया. शुरू में तो महिलाएं खुलकर प्रशिक्षण में शामिल होने से झिझक रही थीं और स़िर्फ 10 महिलाएं ही आगे आईं. प्रशिक्षण के बाद इन महिलाओं के सामने अपना स्वरोज़गार संचालित करने के लिए आर्थिक संसाधनों की ज़रूरत महसूस हुई तो संस्था ने महिलाओं को राष्ट्रीय महिला कोष से प्रत्येक को 10-10 हज़ार रुपये का ऋण आसान किश्तों में उपलब्ध कराया. इस ऋण से महिलाओं ने तुलसी माला निर्माण के लिए मशीन ख़रीदी और जैंत गांव से कच्चा माल लाकर कार्य शुरू किया. लेकिन प्रारंभिक दिनों में इन महिलाओं को कोई ख़ास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि महिलाएं बड़ी मुश्किल से पूरे दिन में पांच से सात मालाएं बना पाती थीं. लेकिन इन महिलाओं ने हार नहीं मानी और पूरे मनोयोग से कार्य जारी रखा. धीरे-धीरे माला निर्माण की गति बढ़ती गई और अब वे प्रतिदिन 40 मालाएं बना रही हैं. इससे उन्हें प्रतिमाह चार से पांच हज़ार रुपये की आसानी से आय हो रही है. इस आय से महिलाओं ने अपने घर के ज़रूरी ख़र्चे चलाना तो प्रारंभ किया ही है, साथ ही सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा के लिए ग़ैर सरकारी स्कूलों में भेजना शुरू भी किया है.
तुलसी माला में विपणन की समस्या नही
बहताना गांव चूंकि गोवर्धन, मथुरा, वृंदावन, कामां आदि जैसे धार्मिक स्थलों के पास है, इसलिए इन क्षेत्रों में तुलसी माला की अधिक बिक्री होती है. स्थिति यह है कि जितनी तुलसी माला तैयार होती है, उसे व्यापारी ख़रीदने के लिए तुरंत तैयार रहते हैं. यहां तक कि कुछ व्यापारी तो तुलसी माला तैयार कराने के लिए अग्रिम राशि भी दे देते हैं. तुलसी माला निर्माण कराने वाले व्यापारी बहताना गांव की महिलाओं को कच्चा माल एवं तैयार माल को ख़रीदने स्वयं ही गांव में जाते हैं, जिससे इन महिलाओं के सामने तैयार माल के विपणन जैसी कोई समस्या सामने नहीं रहती. अभी तक तुलसी माला निर्माण में काम आने वाली तुलसी के डंठल जैंत गांव से 10 से 20 रुपये किलो की दर से ख़रीदे जा रहे हैं, लेकिन लुपिन संस्था ने इस समस्या से निजात दिलाने के लिए गांव में ही तुलसी की खेती शुरू कराई है. इसमें तुलसी के पत्तों की ख़रीद आयुर्वेदिक कंपनियों द्वारा की जाती है और डंठलों का उपयोग तुलसी माला निर्माण में किया जाता है.
50 रुपये तक की होती है तुलसी माला
तुलसी माला में दाने जितने छोटे होते हैं, उसके दाम उतने ही अधिक मिलते हैं. इसलिए कि छोटे दाने तैयार करने में समय अधिक लगता है और इसका कच्चा माल भी महंगा मिलता है. गांव में अधिकतर महिलाएं छोटे दाने की मालाएं बनाती हैं, जिसके लिए बैटरी से चलने वाली एक मशीन की ज़रूरत होती है जो क़रीब 450 रुपये में आसानी से मिल जाती है.
सामान्य मालाओं के साथ-साथ अब तुलसी माला बनाने वाली महिलाओं ने तुलसी राखी एवं सजावटी मालाओं का निर्माण भी शुरू कर दिया है. इसमें तुलसी के दानों के साथ-साथ पीतल या तांबे के दाने भी मालाओं में लगाए जा रहे हैं. इससे इन मालाओं के दाम और अधिक बढ़ गए हैं तथा महिलाओं के मुना़फे में भी वृद्धि हो रही है. गांव की तुलसी माला बनाने वाली श्रीमती रामपति के मुताबिक रक्षाबंधन पर तुलसी की राखियां बनाने का 25 हज़ार का आर्डर मिला था. पिछले ही दिनों महाराष्ट्र के पंडरपुर क़स्बे से तीन लाख रुपये की तुलसी मालाओं का आदेश मिला है. ये मालाएं वहां एक धार्मिक उत्सव में वितरित की जाएंगी.
दूसरे गांवों में भी हो रहा है विस्तार
बहताना गांव में महिलाओं की तुलसी माला निर्माण से आई समृद्धि को देखकर इस गांव के आसपास के क़रीब आधा दर्जन गांवों में तुलसी माला निर्माण का कार्य शुरू हो चुका है और वहां भी यह कार्य तेज़ी से आगे बढ़ रहा है. तुलसी माला निर्माण का कार्य सिनसिनी, चुचावटी, सोनगांव, खेरिया आदि में शुरू हो चुका है जिनमें भी लुपिन संस्था ने तुलसी माला निर्माण के प्रशिक्षण आयोजित किए हैं. यह नितांत सत्य है कि स्थानीय आवश्यकता एवं उपलब्ध संसाधनों पर आधारित शुरू किया गया व्यवसाय निश्चय ही सफल होता है. साथ ही जिन कामों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है, वे कार्य सफलता के द्वार पर अधिक पहुंच पाते हैं. बहताना गांव में शुरू हुआ तुलसी माला निर्माण का कार्य निश्चय ही धार्मिक स्थलों के आस-पास के गांवों में आर्थिक समृद्धि का कारक बनेगा.