27/5/22.
काक होहिं पिक बकहुं मराला।
मज्जन फल पेखऊं तत्काला.
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यह चौपाई तुलसी ने मानस में प्रयाग की प्रशस्ति में लिखी है।
निहितार्थ है गंगा में नहाते ही कौआ कोयल और बगुला तत्काल ही हंस हो जाता है ।पता नहीं हम स्नान के बाद कुछ अच्छे में बदलेंगे या नहीं।मगर देश की इतनी बड़ी सरिता में स्नान करने की उमंग तो है।
मैं प्रशंसा, मुक्ता और मुक्ता की बड़ी बहन रागिनी, उनका बेटा इंजीनियर प्रियांश सहित पांचों सवारियाँ प्रयागराज और बनारस की की गंगा नहाने के लिए चल दीं।हमें स्टेशन विदिशा तक विवेक ने कार से छोड़ा।दो धार्मिक,साहित्यिक, और राजनीतिक महानगरों की सरजमीं पर माथा टेकने के लिए। हम लोग चल दिए ट्रेन नं14115 बोगी नं बी वन में बैठकर।
डब्बे में सामने ही एक फौजी था जो बार बार बात करने की कोशिश करता रहा। थोड़ी ही देर बाद हमारा मूड खराब हो जाता है कि घर में धोखे से एक थैला छूट गया उसी में तो भोजन और पाथेय रखे थे।फिर हम लोगों ने खरीदकर ही खाना खाया। ट्रेन इतनी स्लो कि जैसे बैलगाड़ी।बहरहाल चादर खूब सारे मिले ऐसी 3 में। रात में मुसाफिरों की आवाजाही रही तो नींद नहीं आई।हम और छोटी तो लगभग जागते ही रहे।एक विदाऊट टिकट यात्री से टीटीई की बहस मजेदार थी।यह ट्रेन टीकमगढ़ खजुराहो होती हुई जा रही थी।पहले यहाँ रेल रास्ता था ही नहीं।
इलाहाबाद यानि प्रयागराज स्टेशन आना वाला है।वहाँ रेलवे रिटायरिंग में दो ऐसी रूम बुक हैं। मन में एक विचार आया कि महादेवी वर्मा, नेहरू, बच्चन,निराला,रामनाथ सुमन,और फादर कामिल बुल्के के शहर इलाहाबाद में भ्रमण रस लेंगे।
इलाहाबाद ।
28/5/22
स्टेशन पर ही एक कर्मचारी हमें लेने आ गया।दोनों कमरे ठीक ठाक।के नारायण सर ने बाबू आटो वाले को भेजा।उसने ही हमें संगम,बड़े हनुमान, भारद्वाज आश्रम, अलोपी मंदिर, और आनंद भवन की सैर कराई।37℃ तापमान में घूमना बहुत ज्यादा कष्टकारी तो नहीं था।इस सबमें मुझे तो बस संगम में नाव में बैठक और स्नान कुछ सुखद अनुभव हुआ और आनंद भवन में कुछ आश्चर्य महसूस हुए।हालांकि पापाजी की अस्थियां विसर्जन के समय 2008 में मैं आया था लेकिन वह तो अतिशोकाकुलता की अवस्था थी।कुछ याद नहीं सिवा इसके कि हम पिताहीन हो गए थे और हर तरफ अंधेरे थे।खैर शाम को अल्फ्रेड पार्क की
सैर की।वहाँ साकीबा की साथी शिखा तिवारी और उनकी बेटी मानसी आई।इतनी उमस थी कि क्या कहें।शिखा जी इलाहाबाद की मशहूर चाट और गुलाब जामुन लेकर आईं ।उनका नेह भरा आतिथ्य अच्छा लगा।उन्होंने अपनी किताब काफी हाऊस भेंट भी की।उनके आग्रह और परामर्श पर हम लोग मनकामेश्वर मंदिर गए।वहां स्वरूपानंद सरस्वती का मठ भी है।मुझे लगा कि इनसे मुलाकात कर सकता हूँ।मगर वह यहां नहीं थे।
प्रयाग पथ के संपादक हितेश कुमार सिंह भी मिलने आए।खूब बातें हुईं।उन्होंने दूधनाथ सिंह सहित अनेक का जिक्र किया।हितेश बहुत प्यारे मगर सख्त युवा संपादक हैं।मेरा विजय बहादुर सिंह वाला साक्षात्कार उन्होंने ही छापा था।जब भी फोन पर बात हुई तो विनम्रता की महक भी आई।इसीलिए उन्हें अपने आने का डिटेल्स उन्हें देने में संकोच नहीं हुआ।उन्होंने अमृतराय पर एकाग्र प्रयाग पथ का ताजा अंक भेंट किया।रात अच्छी गुजरी।सोने से पहले विचारों में प्रयागराज के स्थानों के दृश्य आँखों में छाये रहे।
सुबहे बनारस..
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29/5/22
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केदारनाथ सिंह की कविता बनारस का एक अंश है।
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से।
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12582 नंबर ट्रेन से हम लोग प्रयागराज से बनारस अथवा मडुआडीह पहुंचे।वहां भी रिसीविंग अच्छी हुई।रेलवे अधिकारी कमलेश राजपूत लगभग तीन सहयोगियों के साथ आए।ये सौजन्य हमें सुकवि राकेश पाठक से मिला।पूरा सामान रूम में ले गए।मुक्ता बोलीं ये तो आश्चर्य जनक स्वागत हुआ।चाय वाय सब हाथों हाथ। बनारस का स्टेशन यह नया बहुत सुंदर स्टेशन।इसे मडुआडीह भी कहते हैं।इसी में हमारे दो वातानुकूलित कमरे आरक्षित हैं।रागिनी दीदी की सलाह मानकर हम झटपट विश्वनाथ मंदिर के दर्शन हेतु चल दिए।यह दोपहर 11.30 का समय था।कोरिडोर गेट नंबर 4 से प्रवेश किया।लंबी लाइन।उमस और बेचैनी।मैं तो दो तीन बार नीचे बैठा।लोग जय जय कार कर रहे थे।फिर पिताजी की याद आई।वह चालीस बरस पहले आए थे बुआदादी के साथ।शिव की एक तस्वीर भी लाए थे।जो अभी भी मेरे पास है।वह कहते थे इस तस्वीर में शिव की आँखें बहुत सुंदर हैं।प्रियांश ने मेरी आकुलता को देखकर एक पंडा से वी आई पी दर्शन की बात की और हम शीघ्रता से मुक्त हो गए।चटकीली धूप के साये में गोधूल्या चौराहे तक पैदल चलना कष्टकारी था।हम पांचों वनवासियों की तरह चले जा रहे थे।भरा भरा बाजार खूब चहल पहल।दक्षिण के सैलानियों से सड़क ज्यादा भरी थी।सुबहे बनारस की बजाय हम दोपहरे बनारस का लुत्फ़ ले रहे थे।पेट भराऊ भोजन हमने सीता रसोई नामक रेस्टोरेंट में किया।प्रशंसा को आटो वाले लड़के की बातों में बहुत मज़ा आ रहा था।मैंने भी पाया कि अधिकांश लोग यहाँ मुहावरे दार अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कर रहे हैं।मगर ये आटो रिक्शा वाले ही।ये उनकी मजबूरी भी हो सकती है उन्हें इस विराट देश में रोजी रोटी के लिए चार बोल ज्यादा बोलकर मुद्रा मिल जाए तो बुरा क्या है।बनारस में हिन्दी के कवि ज्ञानेन्द्र पति रहते हैं। कबीर,प्रसाद,मुंशी प्रेमचंद,त्रिलोचन सहित कितने अपने वालों की याद आती रही।
मगर हाय री धूप।तूने हमें सेना पति की कविता के अर्थ याद दिला दिये।
वृष को तरनि तेज सहसौ किरनि तपै,
ज्वालनि के जाल बिकराल बिरखत हैं .
तपति धरनि जग झुरत झरनि ,सीरी,
छाँह को पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं!
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शाम हमने गंगा आरती के लिए मुकर्रर की थी।नाव में बैठकर चालीस घाट घूमे।मल्लाह एक किशोर था,उसने हर घाट की किंवदंती कहानी सुनाई।यहाँ प्रेमचंद घाट भी था।हरिश्चंद्र घाट भी,राजेंद्र प्रसाद घाट भी।केदार घाट और मणिकर्णिका घाट भी।नावें बत्तखों की तरह तैर रहीं थीं।आपस में नावें टकरा जातीं थीं।मल्लाह ने बड़ी चतुराई से नाव दश्वमेध घाट के सामने लगा दी ताकि भव्य आरती देखी जा सकती।मुक्ता बार बार कह रहीं थीं कि सामने आगे पीछे कितना जन सैलाब ।सही में भीड़ बहुत थी।जलस्रोतों का परंपरागत सम्मान ही स्तुति और आरती में छिपा है।मैं सोचता रहा गंगा की महाभारत में किरन जुनेजा का अदभुत अभिनय था।भीष्म अपनी माँ से मिलने आते हैं बहुत भावनात्मक संवाद होता है और फिर वह माँ धीरे धीरे पानी में उतरकर ओझल हो जाती है।यह वही गंगा है अथाह,विराट और सुदीर्घ। भनिति भदेस को सुरसरि सम सब कर हित होई तुलसी ने क्या खूब कहा है।ठीक कहा है।
तो आगे बढ़ते हैं …
फिर क्या किया हम लोगों ने।रास्ते में खाते पीते हुए बनारस रेलवे स्टेशन यानि अपने रैन बसेरा पर आ गए।और सो गए।आज इससे ज्यादा घूमते तो सर ही घूम जाता
30/5/22 सोमवार.
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सुबह केदार घाट पर तट स्नान किया।तैरने की चाह को राह यहां मिली।इसके बाद लौटते में एक सराय जैसी गली में दरिद्र जैसी हालत में अपनी पोटलियों को संभाले बहुत से बाबा बैठे दिखाई दिए।यह रंध्र जैसी गली थी।आते जाते भक्त उनके कटोरे में सिक्के या रूपये डाल रहे थे।एक बाबा के सिरहाने अंग्रेजी की एक किताब और एक अंग्रेजी का अखबार रखा था।नजरें मिलीं तो मैंने पूछ ही लिया।Do you really read these?
वह संयत क्षोभ में बोला..
Of course ..I read..Why do you think Baba can not read or think..
इसके बाद मैंने उससे तीन चार अच्छे सवाल दागे और उस फटीचर टायप बाबा ने अंग्रेजों में ही बौद्धिक उत्तर दिये।उसने अपनी जवाबी कार्रवाई में विवेकानंद और मानवता वादी सोच को सराहा।मैं बहुत बड़े अचरज में घिरा था।स्थान और समय का दबाव था कि मुझे उसे गुडबाय करके आना पड़ा।नाश्ते के पहले मुक्ता ने बरगद के वृक्ष पर पूजा अर्चना की।वह वट सावित्री की हर साल इसी तरह पूजा करतीं हैं।मैं क्यों रोकूँ भला।उसमें उन्हें कितना संतोष मिलता है।आखिर इस बहाने एक महान वृक्ष की यादें परंपरा में बची हुईं हैं।नाश्ते में पूड़ी,कचौरी,जलेबी और बाद में केशव का पान और पहलवान की लस्सी का आनंद भी लिया।अभी तक हमें कामायनीकार की कोई याद नहीं आई।सड़कों पर सफाई का बस नाम था।आटो चालक की वजह से आखिर बनारसी साड़ियाँ हमारे बैगों में आ ही गयीं और हमारे बटुओं से कुछ धनपखेरु उड़ ही गये।इस बीच भाई राकेश पाठक हमसे अद्यतन होते ही रहे।सांध्यकाल में सारनाथ से लौटते समय उनका आतिथ्य सुख लिया।उन्होंने भी अपनी कविता की किताब कोलाहल में बुद्ध हमें भेंट की।इसके बाद प्रियांश के नेतृत्व में बाटी चोखा नामक रेस्टोरेंट में जाकर पेटभर खाना खाया.वाराणसी की जगमग देखते हुए फिर आ गए अपने आशियाने पर।
रात के दो बजे दूसरे कमरे से दीदी का फोन आया।प्रियांश को बाटी चोखा धोखा दे गए थे और वह दस्त से ग्रस्त थे।हमने स्टेशन पर नीचे उतरकर मेडिकल सुविधा तलाशी।कुछ नहीं मिला।बहुत ही अलग दृश्य था।सब सोये थे।बाहर आटो को तलाशा तो वहाँ भी शयन उत्सव।रात की खूबसूरती शबाब पर थी और मैं खोज रहा था एक ओ आर एस का सैचेट और एक नोर्फ्लोक्स की टेबलेट।।कमलेश जी ने फोन उठा लिया और हर संभव मदद की।स्थिति इतनी गंभीर भी नहीं थी कि दीदी और मुक्ता मुझे बनारस में निशाचर बन जाने देतीं।हम सभी सो गए। उम्मीद भरी सुबह की प्रतीक्षा में।
31/5/22.
कल इसी स्टेशन पर बांग्लादेश के रेलमंत्री आए थे।हमें गौरव रहा कि हम यहां ठहरे।भीड़ की बजाय हमारा नीड़ इस नीरव प्रदेश में था।वह सुबह हुई जिसकी शाम में हमें कामायनी एक्सप्रेस से घर लौटने की ललक है।मगर कन्फर्म टिकट तो है नहीं।पाठक जी हैं न।उनको नोट कराया।प्रियांश को कमलेश जी दवा ले आए थे।अंततः मैं और मुक्ता एक आटो से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को देखने चल दिए।वहां भी बस मंदिर ही देख पाए।कामरेड और प्रतिभाशाली मित्र आशीष त्रिपाठी को मैसेज किया कि मैं आपकी चुंबकीय शक्ति की परिधि में हूंँ।आशीष से मुझे लगाव है मैं उनकी प्रतिबद्धता,वकृत्व और लेखन के अलावा स्वभाव से बहुत प्रभावित हूँ।उन्होंने फिर आग्रह कर कर के घर बुला ही लिया।लगभग अनौपचारिक बैठक में गपशप के साथ अच्छी चाय और पोहा मिला।मुलाकात के प्यासे इस मुसाफिर को फिर तसल्ली का ठंडा पानी मिला।
इस तरह वापस लौटे।मगर प्रियांश को आराम नहीं था,हमने कमलेश जी की मदद से पास ही के श्रेयांश नर्सिंग होम में डा.वीरेंद्र सिंह से प्रिस्क्रिप्शन ली।उन्होंने एक इंजेक्शन लगवा दिया जिसके भरोसे हम मुतमईन होकर रेल में बैठ गए।अब बस एक रात बची है जिसमें आशा है शेष सब कुछ खुशनुमा ही होगा ।अच्छी नींद और विदिशा सकुशल पहुंच के साथ साथ।
बनारसी पान की गिल्लौरी और कर्णप्रिय बनारसी बोली के शहर को छोड़ते हुए यह आकांक्षा है कि अगली यात्रा भी कुदरत संभव करे।अभी तो हमने इस मोहब्बत के शहर की सतह भी नहीं देखी।जिस शहर में अब्दुल विस्मिल्लाह खाँ की शहनाई गूंज रही है।हिन्दी साहित्य की यात्रा का प्रस्थान बिंदु जिस शहर में हो उसे हम डेड़ दिन में कैसे समेट सकते हैं।और हाँ जिन जिन के साथ में पूर्व पारिवारिक यात्राएं हुईं हैं उनकी बातें,यादें भी स्मृति में आतीं रहीं।
आरक्षित सीटें कन्फर्म न होने के कारण तनाव भी रहा।मगर यात्रा का रस भी तो इन सबसे ही बना है।बना रस।बनारस।
ब्रज श्रीवास्तव.
विदिशा.