पत्रकार और कवि त्रिभुवन की कविताओं पर अनामिका अनु का आलेख

हिनहिनाते घोड़ों की खुरजियों में स्वप्न भर कर एक बच्चा कलम की राह चलता है और अचंभे के साथ पूरी वर्णमाला को देखता है। धीरे-धीरे वर्ण उसके संगी-साथी बन जाते हैं और वह उनके साथ खेलने लगता है।अब वह शब्द लिख सकता है और बना सकता है नई पंक्तियाँ। घोड़े दौड़ते हैं उसके स्वप्न खुरजी से निकलकर गिरते हैं,वह उदास होता है। उन्हें समेटता है और चल‌ पड़ता  है सीखने-सिखाने की एक परंपरागत और विधिवत दुनिया में।इस दुनिया में उसे पहली बार मनुष्य के अलावा उसके कुछ और होने की ख़बर मिलती है। वह हैरान होता है यह जानकर कि मनुष्य के अलावा एक मनुष्य कितना कुछ और होता है।क्या मनुष्य का मनुष्य ही एकमात्र परिचय नहीं हो सकता? वह लिंग,जाति,धर्म,अर्थ, राष्ट्र सभी परिधियों को लांघकर मनुष्य बने रहने की कोशिशों में शब्द जोड़ता जाता है पंक्तियां बनती जाती हैं। सच जोड़ता जाता है विचार बनते जाते हैं। स्मृतियां जोड़ता जाता है दृश्य बनते जाते हैं और तब जन्म लेती है उसकी कविता।वह कवि नहीं कहलाना चाहता,वह पत्रकार हैं मगर वह मनुष्य समझे जाने की अखंड ज़िद्द के साथ हट-हट धूप में खड़ा है।कविता उसे छाया देती है।वह धूप में सच की ख़ोज में भागता रहता है।धूल फांकता है , एड़ियां घिसता है और बेवजह कविताएं नहीं लिखता है।कविताएं उसके पास आती हैं वह उसे लौटाता है जो नहीं लौटती वे त्रिभुवन की कविताएं कहलाती हैं।

आप जब त्रिभुवन को पढ़ रहे हो तो उनकी कविता ‘अबलक़ सपने, कुम्मैत घोड़ा’ पढ़ना न भूलें।

किसी कवि की कविताएँ उसे मनुष्य के तौर पर चिन्हित करती हैं साथ ही साथ उसके जीवन,उसकी चाह,उसकी दुनिया और उसके ब्रह्मांड के तत्वों को भी इंगित करती हैं।उसके विशिष्ट होने के कारण उसकी मन की दुनिया भी बड़ी यूनिक होती है उसमें बहुत सी चीजें ठूंसी हुई नहीं होती हैं बल्कि बहुत ही कम और ज़रूर चीजें इत्मीनान से सहेजी और‌ रखी गई होती हैं,उसकी चयनात्मक दृष्टि और तमाम तरह की कल्पनाओं से बनी एक दुनिया जिसमें उसके विचार, उसकी कामनाएं, उसका ज्ञान और उसकी इच्छाएं, सब विचरती रहती हैं। विद्यमान उन तमाम चीज़ों से उसके मानस का गहरा लगाव होता है। जब आप किसी कवि की सभी कविताओं को पढ़कर उठते हैं तो उस कवि के अंतस का एक टुकड़ा छूकर महसूस कर लेते हैं।

कविताएं‌ कवि के सबसे ईमानदार और सच्चे स्वरूप से हमारा साक्षात्कार करवाती हैं।किसी कवि की तमाम कविताओं को पढ़कर आपको लगता है कि आप एक और मनुष्य को’ थोड़ा जान पाए’ , यह बात आपको पाठक के तौर पर संतुष्ट करती है और आपमें निश्चित तौर पर कुछ जोड़ती ही है। मैंने त्रिभुवन की अब तक प्रकाशित सभी कविताओं को बार-बार पढ़कर यही  सीखा ।

वे प्रेम करते हैं ,प्रेम की  स्मृतियों का उत्सव भी मनाते हैं।वे नहर के पास बारिश में तेज साइकिल चलाते हुए हर प्रेम के स्पर्श को घनीभूत होता हुआ महसूस करते हैं मगर वे प्रेम के नाम पर व्यभिचार के कारोबार का पर्दाफाश भी करते हैं।वे काम-वासना और प्रेम के सहजीवन के बीच की परिधि को भली-भांति जानते और समझते हैं।

त्रिभुवन की कविता के पास हर प्रकार की हिंसा के लिए सशक्त प्रतिरोध की भाषा है।हर प्रकार की तानाशाही के ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक जिरह है।वह सरहदों के साथ नहीं खड़े हैं,वह तितली और ख़रगोशों के साथ खड़े हैं।उसके पास वह दृष्टि है कि वह ईश्वर‌ में राक्षस को देख सकते हैं और सीता की आँखों में दुनिया की बहुत-सी स्त्रियों का दुःख देख पाते हैं ।उसकी कविताओं में पन्हाए थन,नवप्रसूता के शृंगार,गगन टीले पर रेंगती बीरबहूटी बादल, ,मैली चांदनी,हारे में रखी कढ़ावणी,बिलौवणे की छाछ,लीलटाँस,चाँद-जलैरी,जीया-जूण ,कलायण,काल -विधूंस,आत्मदर्प की अठ्ठनियों के लिए ज़गह है।

वह अपनी कविताओं में कहते हैं बच्चों तक पहुंचती है शरारतें और सम्मोहन तक पहुंचता है प्रेम।वह बिछड़ चुकी प्रेमिका के उजास में नहलाये अपने हृदय को सहेजते वक़्त सोचते हैं शायद उसका चांद चुपके से दूसरे नभ में चला गया ।यह सोचते वक़्त भी वह उसकी दी गई उजास के प्रति कृतज्ञ रहते हैं वह अमिट प्रेम में डूबे धैर्यवान कवि  हैं।वह धैर्य से प्रेम को अनंत काल तक संभाले रखने वाले कवि हैं।वह कहते हैं:

स्वाद देह में देह का नहीं

प्रेम का है।

उनके प्रेम में एस एम एस वाला प्रेम है ,चाँद वाला प्रेम है , कामनाओं में तैरता हुआ प्रेम है।नकचढ़ी स्त्री है और उपेक्षा से टूटा आदमी भी है।वह चाहते हैं स्वीकार्यता और संवाद।वह चाहते हैं आलिंगन और अपने मौन का सम्मान।

उपेक्षा को ऐसा करूणा प्रत्युत्तर शायद ही किसी कवि ने दिया हो:

इतना रेतीला मत करो

कि समा जाऊँ गहरे भँवर में

आँखों में इतने जलमहलों का निर्माण न करो मेरी

कि सम के धोरे पर रख दी गई मछली हो जाऊँ!

वह चाहते हैं संसद तक पहुंचे भूखे-प्यासे लोगों की आह। वह चाहते हैं हर घर में पहुंचे वसंत ,केवल सत्ता के गलियारों में नहीं खिले फूल।वह चाहते हैं आम जन के लिए बचा रहे वसंत।कवि की एक बेहद चर्चित कविता है ‘शूद्र’ जिसे पढ़ने के बाद आप कुछ देर तक सुन्न हो जाते हैं,आपके आस-पास ऐसे दृश्य उमड़ आते हैं जो करुणा से भरे हैं और आपके समाज को आईना दिखाते हैं।यह कविता मानव के लोकतांत्रिक अधिकारों के जबर्दस्त हनन और उसके प्रति गंभीर उदासीनता को इंगित करती है।

कवि कहते हैं:

हिंदू-अंत:करण में शूद्र को मानवीय गरिमा का स्थान नहीं मिल पाया है।

‘शुद्र’ एक बड़ी कविता है अपने आकार , प्रस्तुति और संवेदना के कारण।

वरिष्ठ कवि और आलोचक असद ज़ैदी कहते हैं:

‘त्रिभुवन की काव्य रचना ‘शूद्र’ कविता के झीने आवरण में एक सभ्यतापरक आख्यान है;साथ में हमारे वर्तमान की सर्वांगीण आलोचना भी।’शूद्र’ काव्य में कवि की समाजशास्त्रीय नज़र, इतिहास और मिथक के ज्ञान और दार्शनिक गहराई का परिचय तो होता ही है,एक निरलंकृत शैली में दबे हुए काव्य- गुणों की झलक भी मिलती है।…जिस समाज में सारी रचना बेसमेंट में हुई है, उसमें ऊपर की मंजिलों में स्थापित श्रेष्ठिजन के विमर्श में

वह बेसमेंट अनुपस्थित रहता है।उनके योगदान,उनके विद्रोह और क्रांतियों तक को,स्मृति से  ग़ायब कर दिया जाता है। त्रिभुवन की यह कविता इस विशाल धरोहर की रिकवरी का काम बड़ी प्रश्नाकुलता,विवेकशीलता और नैतिक दृढ़ता से करती है।हमारे समय में दलित विमर्श एक ताकतवर वैचारिक धारा के रूप में उभरा है।…इस लिहाज़ से भी कवि त्रिभुवन की यह रचना अपनी सामाजिक और काव्यात्मक वैधता शानदार ढंग से अर्जित करती है।’

कवि अपनी कविताओं में समाजिक सोच पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं:

घृणा संस्कार है और प्रेम एक अवैध गतिविधि है।

एक पुरानी संस्कृति के दृढ़,सुंदर,सहिष्णु हरेपन का क्षय अगर आपको  समझना है तो आप त्रिभुवन की कविता ‘अरावली के आख़िरी दिन’ को पढ़ें।मिठास बटोरती छोटी – छोटी कोशिशों के थकने और दौड़ सकने की उजली कोशिशों को हांफते देखकर आप समझ जाएंगे मनुष्य अधोगति की तरफ़ बढ़ता जा रहा है इस दृढ़ सोच के साथ कि ऊर्ध्वगामी वह पा लेगा एक दिन सारा आकाश ।चेतना और साहस अपनी कोशिशों के साथ दम तोड़ने लगेंगी। उम्मीद आंगन से टहलकर घर लौट आएगी, वह लंबे सफ़र पर निकलने से रह जाएगी।आँख और कान, सच का सामना करने से कतराएंगे, किताबें यथार्थों के अर्थ वांचेंगी।तकनीकी और कृत्रिम ज्ञान में फंसकर मर जाएगी एक प्राचीन सभ्यता ,एक हरी ज़मीन, कई पहाड़ और सभी नदियां ,बच्चे किसी अनावश्यक कृत्रिम सच से दिमाग़ भर लेंगे और ऐसे ही किसी प्रोसेस्ड और जंक फूड  से पेट भरकर भूल जाएंगे भीतर-बाहर ढ़ह रही अरावली को और मरते अरावली के आख़िरी दिन को भी।

मनुष्य को बाँटती- तोड़ती,लड़ाती-थकाती और उदास करती सभी सीमाओं की कृत्रिमता और अनावश्यक उपस्थिति को ध्वस्त करने लिए उठे लोकतांत्रिक कदमों की पदचाप, त्रिभुवन की कविता ‘सन 3031’ में सुनी जा सकती है।यह कविता भविष्य में मनुष्य की मानवीयता में गहरी आस्था और रंग,नस्ल,धर्म,जाति,अर्थ-बाजार, वैचारिकी दुराग्रहों में गहरी अनास्था को प्रतिरोध की भाषा में व्यक्त करती है।

त्रिभुवन की कविताओं की तीन खास विशेषताएँ हैं।

पहली विशेषता यह है कि उनकी काव्यभाषा विलक्षण स्थानीयता और पदार्थमयता के जीवंत साक्ष्यों से पुष्ट है।

दूसरी उनकी ज्यादातर कविताओं की अंतिम पंक्तियाँ   पाठकों के ज़ेहन में बेहद मजबूत मारक उपस्थिति दर्ज़ करती हैं।ये पंक्तियां उनकी कविताओं को नई ऊंचाइयों पर लाकर खड़ा कर देती हैं। त्रिभुवन की कविताओं की तीसरी विशेषता यह है कि सामाजिक और राजनीतिक कविताओं में वह गहरे चिंतन और शोध के बाद ही  कलम चलाते हैं,वह  केवल भावुकता या अपने जीवन के थोड़े से अनुभवों पर ही भरोसा नहीं करते बल्कि एक बड़े फलक पर उन अनुभवों को रखकर तार्किक और मानक तरीके से उसकी व्याख्या करते हैं।वे तथ्य से भागने वाले कवि नहीं हैं वे तथ्य को उजागर करने वाले कवि हैं।

मैंने त्रिभुवन की कविता ‘बाँसुरी ‘पढ़ी और बाँस की पीड़ा पसरकर उन तमाम उपेक्षित बच्चों तक पहुँचते हुए देखी जो काट दिए गए और झोंक दिए गये अवांछित हिंसक कार्यों में।उन कोमल हृदयों की स्वाभाविक अहिंसा में बलपूर्वक भर दिये गये हिंसा के बारूद। उन्हें  बड़ी निर्ममता से काटकर चैन की बंसी के बदले कुल्हाड़ी का दस्ता बना दिया गया और नष्ट कर दी गई हरियाली।उन तमाम बच्चों तक  शिक्षा ,रोटी , स्वास्थ्य के पहुँचने से पहले पहुंच गये थे: बाज़ार ,सौदागर और अपराधी।

जो बाँस होंठों से लगकर राग बांट सकता था वह कुल्हाड़ी का दस्ता बन विराग बांटने को मजबूर हैं।

यह कविता बाँस के दुःख के बहाने कई पीढ़ियों की उपेक्षित आबादी की पीड़ा को संबोधित करती है।कम शब्दों में यह कविता बहुत बड़ी बात कहती है।

 किसी को प्रेम में ख़ुदा दिखता है, किसी को धर्म में, किसी को व्यापार में ,किसी को धन में ख़ुदा दिखता है।

कवि को हर जगह दिखता है वसंत ,कवि को हर‌ जगह दिखती है संभावनाएँ।कूल,केलि,मन,नयन,स्तन,कछार,कुंज,बाग ,राग हर तरफ़ बसंत को देखकर  कवि पूछता है सब से:

कहाँ नहीं है वसंत?

वह प्रेम करते वक़्त अपने पर कोई लांछन नहीं लेता वह सारा दोष प्रेमिका के अचूक सम्मोहन को दे देता है।

वह प्रेम में अपनी उपस्थिति को दर्ज़ करते हुए लिखता है:

मैं तुम्हारे भीतर इस तरह आना चाहता हूँ

गाय के पन्हाए थनों में जैसे दूध 

(पृष्ठ 95,कुछ इस तरह आना)

मनुष्य ने बनाए हैं भगवान और वह उसे मिटा सकता है। मनुष्य ने बनाए हैं धर्म और वह उसे मिटा सकता है। मनुष्य ने ही बनाई है जाति वह ही मिटा सकता इसे।

नन्हा बच्चा काग़ज़ पर बार-बार बनाता है ईश्वर और रबड़ से मिटा देता है।बच्चा शायद बेहतर ईश्वर बनाना चाहता है इसलिए बार-बार कोशिश करता है।वह मिटाता है एक ईश्वर को ताकि नया ईश्वर बना सके।एक छोटा बच्चा भी जानता है :बनाए और मिटाए जाने का सच फिर हम और आप कहां और क्यों भटक रहे हैं?

कवि अपनी दुनिया में अपने हठ के साथ तनकर खड़ा है।वह सूखते खेत प्यासे मवेशियों उदास औरतों को देखकर नहीं जाएगा बादल की खुशामद करने, देवताओं के द्वार पर अपनी प्रार्थना रखने।वे भूखे मवेशियों को छोड़ आएंगे राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन में।सूखते पेड़ और रेत के उदास धोरों को बिठा आएंगे ताजमहल और लाल किले में।संसद भवन के भोजन कक्ष में बांध आएंगे बलबलाते ऊंट और हिनहिनाते घोड़ों को। उन्हें पूरा विश्वास है एक दिन खुद ही मान जाएंगे रूठे बादल …

डांफर से बचकर गुरसली के पंख,सिकरे की आँख,धामण की नोंक,सम्हालू के पत्ते देखता कवि घोड़े, गाय, भैंस और बकरियों से घिरा है।शहर में आते ही उसे घोड़े के कान,भैंस के सींग,गाय की थुही और बकरी के गलथण याद आने लगते हैं।वह अपने व्यस्ततम किसी क्षण में देख लेता है भूल -भटक कर आई किसी शोख तितली को। वह समाचार के बीट में इतना नहीं खो पाता कि देख न सके कोई ख़ूबसूरत सच।

त्रिभुवन अपनी कविताओं से ऐसी दुनिया अपने लिए और हमारे लिए बनाते हैं जिसमें हर घर के पास होगी अपनी नदी,अपना चाँद,गेहूं गुलाब ,गन्ने ,शहद और वीणा।जहां पशु-पक्षी ,कीट पतंग सब के पास होगी अपने हिस्से की खुशी और मुस्कुराहट ।जहां जठराग्नि नहीं होगी बस इंसानियत की ऊष्मा और अनुगूंज होगी। त्रिभुवन की उस अनोखी दुनिया में मछलियां उड़ सकेंगी, चिड़ियाँ तैर सकेंगी,सांप सरल हो जाएंगे और बनावटी दुनिया की हर चीज़ गायब हो जाएगी।कवि की बसाई  दुनिया में हर मौसम में  स्त्रियां खेल, उड़ और  मचल सकेंगी। त्रिभुवन की खेत के सरकंडे बादशाह से नहीं डरते ,उनकी रीढ़ सीधी और मजबूत हैं ।वे ऊंचे हैं और तनकर खड़े हैं। वे टूटकर भी कलम बनते हैं और लिखते हैं इंक़लाब। टूटे हुए सरकंडे ने अपने आदमी को तराश कर कद्दावर इंसान बना दिया।कवि की दुनिया अंधेरे में भी झकझकाता सूरज उकेर लेती है।उसकी दुनिया के बड़े लोग दरोगहलफ़ी नहीं करते।वे अपनी खुद्दारी के बल पर बड़े हुए हैं और जो जानते हैं तलवार से सुंदर मनुष्य की गर्दन होती है।नींद से ज़्यादा स्वप्न और हँसी से ज्यादा खनकते हैं आँसू। ऐश्वर्य से ज़्यादा वैभवशाली है हाहाकार। खनकदार आवाज़ से मजबूत है मौन ।

कोरे घड़े में पानी भरते ही जो गंध निकलती है, उसकी स्मृति।दवात में टिकिया घोलते वक़्त जो गंध आती थी;पहली बार नवजात को गोद में उठाते ही जो गंध कवि के रोम- रोम में फ़ैल गई थी ;पहली बार स्तनपान के बाद नवजात के मुंह से जो गंध आई थी,पहले प्रसव के बाद स्त्री के देह से निकली सुवास, गोबर से आंगन-घर निपते वक़्त जो गंध फैल गई थी चारों तरफ़। पदचिन्ह की तलाश में हासिल गंध ।ये वे गंध है जिसकी स्मृतियां कवि को बेचैन करती हैं और वह बढ़ती आयु में थम‌-थम कर उन गंधों की तलाश करता है।फिर भी कवि अपनी इंद्रियों से शिकायत करता है कि काश वे और संवेदनशील हो पाते तो वह भी पुष्पित पौध,भीगी दूब,बहते जल जैसा कुछ कह पाता।वह भी चींटी और चिड़िया की तरह देख पाता।सूनी हवेली और गहरी घाटियों की तरह सुन पाता।यह वह कवि हैं जो अपने जीवन और कविता में अपने लिए छिपा कर रखता है अपना आठवां दिन ।जिस दिन वह पत्नी से मनोहार करता है, बच्चों के साथ खेलता है ,मित्रों से मिलता है।वह व्यस्त रहता है और हँस कर कहता है:

व्यस्त होना थकना नहीं है।थक गया तो आराम करना पड़ेगा यह सोचकर वह कभी नहीं थकता है‌। वह सीखना चाहता है नदी, पहाड़, पेड़, पंछी की वर्णमाला और उनकी भाषा का व्याकरण।कभी वह काले तीतरों के लिए लिए जाल को हटाता है तो कभी गेहूं के दूधिया दानों में फंसे सपनों को संजोता है।कभी ऊंट पर चढ़कर मर्म को बुलाता है तो कभी खींप से खेजड़ी तक गिरे आंसुओं को सहेजने की कोशिश करता है।

त्रिभुवन का पूरा काव्य संसार मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे ,वन ,नहर, जल ,रेत, बादल और वाद्ययंत्रों से भरा पटा है।उनकी कविताएँ आम आदमी के रगों में उतरती धूप और छांव से बनी हैं।

त्रिभुवन की पांचों इंद्रियों के पास ऐसे दुर्लभ स्मृतिकोश हैं जो पाठक को कविता में रमने-बसने की जगह देते हैं।इस कवि के पास दुनिया भर के दुःख मेले की तरह खड़े हैं।वह उदास आंखों से देखता है देह व्यापार में फंसी लड़कियों को और उसके सभी उदास शब्द काग़ज़ पर बिछ जाते हैं।आंधी में जलती लालटेन सी मां से पूछता है:

मां तुम इंदिरा गांधी क्यों नहीं हो?

मुझे त्रिभुवन की कुछ कविताएं बहुत प्रिय हैं। उनमें में से एक कविता है:

जसमिंदर,तुम्हें याद है? उन्होंने जिस साख्य भाव से जसमिंदर को याद किया, उसी साख्य भाव का सुख जसमिंदर को उसकी बेटी की झोली में देने का आग्रह करता है।यह‌ वह कवि हैं  जो बालमन को पढ़कर जितना सुंदर लिखता है उतना ही सुंदर वह कामनाओं को जीकर लिखता है।

कविता ज़िंदगी का लिखत ही तो है और त्रिभुवन की कविताएँ इस बात का सटीक प्रमाण हैं।सच्चाई की विशालता और जटिलता कवि और कविता को विनय का पाठ पढ़ाती है। अपने सच पर सतत प्रश्न उठाते मन और कम ही सच जान ,समझ और कह पाने का बोध इस कवि को कहीं भी कभी भी उत्सवधर्मी ,वाचाल या अंहकारी नहीं बनने देता है। त्रिभुवन इतने अधिक मनुष्य हैं कि अपनी कविताओं में वे कभी भी जरा-सा देवता नहीं  बन पाते हैं।इनकी कविताओं के रग में यथार्थ और ज़मीनी सवाल दौड़ते हैं,वे मृग मरीचिका और मंगल गान के नहीं, यथार्थ और चेतना के जनकवि हैं।

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